हे भरतवंशी !समस्त प्राणी जन्म से पहले अप्रगट रहते हैं ,बीच में (अर्थात स्तिथिकाल में )प्रगट होते हैं ,और मरने के बाद (पुनः )अप्रगट हो जाते हैं। फिर इसमें चिंता करने (अर्थात शोक करने की बात )क्या है ?
सांख्य दर्शन का पहला अध्याय श्लोक ‘९७ ‘
विषेशकरयवपि जीवनाम —–“जैसे सब जगत का अधिष्ठाता ईश्वर है ,वैसे ही जीवात्मा भी देह से सम्बंधित देखने सुनने ,मनन करने आदि कार्यों के कारण ,देह का अधिष्ठाता है। क्योंकि देह और उसकी इन्द्रियों में सब प्रकार की प्रवृति चेतन जीव की निकटता से ही हो सकती है ,उसके बिना देह और उसकी इन्द्रियां किसी भी काम में समर्थ नहीं हैं। “
अर्जुन अब भी दुविधा में है ,अब भी उसकी आँखों में कई प्रश्न उमड़ रहे हैं शरीर और आत्मा का एक साथ होना और फिर न होना ,धर्म और पारिवारिक संबंधों का हो कर भी उसे उस दृष्टि से देखना जहाँ वो अस्थिर है –आत्मा है और रहेगी पर शरीर नाशवान है। संबंध किससे है शरीर से या आत्मा से –ये प्रश्न और ऐसे ही कई प्र्शन मेरे मन भी उठते हैं ,बार बार उठते हैं फिर अज्ञान के अन्धकार से टकराते हैं और बिखर जाते हैं। अब तक श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक मनोवैज्ञानिक के रूप में समझने का प्रयास किया है पर अर्जुन तो एक राजपरिवार का सदस्य है ,धर्म से क्षत्रिय है -जिसमे दक्षता पाने
के लिए वह जीवन भर शिक्षा प्राप्त करता रहा और पारिवारिक संस्कारों ,नीति ,धर्म आदि का ज्ञान प्राप्त करता रहा। जीवन में निरंतर कठिनाईयों का सामना करते रहने से ,अपने परिवार को निरंतर सुरक्षित रखने के प्रयत्नों में वह अध्यात्म की उस सीमा तक अभी नहीं पहुंचा था जहाँ मोह अभिमान और भौतिकता लुप्त हो जाती है। इस लिए श्री कृष्ण ने अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों के ज्ञान को साधारण ढंग से प्रस्तुत कर समझने का प्रयत्न प्राम्भ
किया। उपरोक्त श्लोक में ‘आत्मा ‘ और ‘जीवन ‘का रहस्य
समझाते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा ——
हे भरत !अर्थात महान सम्राट भारत के वंशज –किसी भी जीव की उत्पत्ति का एक पल होता है पर उसकी उपस्तिथि
हमें युग युगांतर तक दिखाई देती है। जीव शरीर में सीमित काल के लिए होता है पर जीवात्मा को काल का बंधन नहीं। अब यदि हम इस बात पर विचार करें की अमुक जीव (शरीर रूप में )कब प्रगट हुआ तो हम समय का लेखा जोखा न कर सकेंगे ,पर आज वो है ये तो प्रमाणित है ही और कल वो उस शरीर में नहीं रहेगा यह भी अकाट्य सत है। तो हम कह सकते हैं की जो आज हमारे समक्ष है वो आदिकाल में भी रहा होगा और जब आदिकाल से आज तक विद्मान है तो भविष्य में भी होगा। यहाँ इस बात को याद रखना अति आवश्यक है की आत्मा इस अंतराल में भिन्न भिन्न शरीरों में प्रवेश करती रही है। ‘आत्मा ‘ निरंतर ‘आत्मा ‘ ‘जीव ‘या ‘ईश्वर ‘के नाम से जानी गई है धर्म चाहे कोई भी हो।
पर जिस काया में उसने प्रवेश किया वो भिन्न भिन्न परिवेश हैं ,भिन्न भिन्न नामों से सम्बोधित किये जाते हैं ,भिन्न भिन्न देश काल में प्रगट होते हैं और भिन्न भिन्न कारणों से मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
यह वो पल होता है जहाँ ‘आत्मा ‘और ‘देह ‘एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं ,उस जीव का भौतिक नाम ,उसके शारीरिक संबंध सभी समाप्त हो जाते हैं और जीव रहित शरीर को पंचतत्वों के हवाले कर दिया जाता है। ‘जीवन ‘तो एक कमान से निकले तीर की तरह है जो निर्धारित समय में जन्म और मृत्यु के बीच का मार्ग तय करता है। तो जब मृत्यु निश्चित है ,अटल सच है और हम यह जान गए हैं तब हे अर्जुन ये व्याकुलता कैसी। तुम एक अज्ञानी मनुष्य की तरह क्यों भ्रम जाल में फंसे हो ,एक ऐसे मनुष्य की तरह जो अपने अंतर्मन में विधमान ईश्वर को नहीं पहचानता ,जो अपने को सदा तुच्छ जान हींन भावना से घिरा रहता है। हे अर्जुन तुम अपने आत्मस्वरूप को पहचानों और दुविधा से बाहर निकलो . आत्मा कभी नहीं मरती ,यह तो अक्षय आनंद स्वरुप है। इस लिए तुम्हारा इस समय इस तरह विलाप करना शोभा नहीं देता।