जिन्दगी : मोह का बोझ
अर्जुन को कृष्ण ने जब शिष्य के रूप में स्वीकार किया तब वे जानते थे की अर्जुन दुःख के सागर में डूब चूका है और भावनात्मक रूप से आहत होने के कारण अपना विवेक भी खो चुका है कृष्ण गुरु होने के
कारण शिष्य को ये समझाने लगे की जिस कारण वह दुखी और निराश हो कर बैठ गया है वह तो दुखी होने का कारण है ही नहीं। पर क्योंकि अर्जुन को अपने चारों ओर मृत्यु का तांडव होने वाला है यह समझ आ रहा था ,सैनिकों की मौत ,बंधू बांधवों की मौत ,घर के बड़े बुजुर्गों मौत ,गुरुजनों की मौत ——वो मोह ग्रस्त हुआ जा रहा था। “इन साडी परिस्तिथियों को हमने और विवेचनात्मक रूप से भी समझने का प्रयास किया। एक बात तो निश्चित है की यह एक पारिवारिक झगड़ा था। इस परिवार के सभी सदस्य भारत भू खंड के भिन्न भिन्न प्रदेशों के स्वामी थे जिन्होंने अपने अपने हितों को ध्यान में रख के अपना पक्ष निर्धारित किया था। कोई वैभव विलासिता के पक्ष में था तो कोई धर्म के और कोई मात्र कर्तव्य को ध्यान में रख कर बिना अच्छे बुरे का विचार किये अपने पक्ष को निर्धारित कर युद्ध के लिए तत्पर था। वो हम काकसर लोगों को कहते सुनते भी रहते हैं की दोस्त का दुश्मन हमारा भी दुश्मन। यहाँ यह भी स्पष्ट है की अर्जुन ने जब अपने ही परिवार के पूज्य जनों को विपक्ष में देखा तो उसके मन में अनुराग उत्पन्न हो गया ,वह निढाल हो गया ,ऐसे में क्या उचित है वो निश्चय नहीं कर पा रहा ——पर फिर भी अर्जुन के मन में यह संदेह नहीं उठा की वह स्वंम भी तो मारा जा सकता है। मन में जितना भी मोह अनुराग उत्पन्न हुआ हो पर एक दृढ़ निश्चय भी मन में था ,एक विशवास मन में था की शत्रु पक्ष में खड़े हर योद्धा की मृत्यु उसके हाथों निश्चित है। इसके पीछे एक आत्मशक्ति का संचार था की यह युद्ध धर्म युद्ध है और दूसरा की कोई उसे पराजित नहीं कर सकता। युद्ध भूमि में उसने शस्त्र त्याग अनुराग के कारण किया था न की अपनी अयोग्यता के कारण। में अर्जुन के आत्मविश्वास के इस रूप की सराहना करती हूँ और इसे सब के लिए एक सीख भी मानती हूँ की यदि कभी परिस्तिथियों के वश हमारा विवेक काम न भी करे तो भी हमें अपनी क्षमता पर कभी संदेह नहीं करना चाहिए। एक बात तो हम सभी जानते हैं की मृत्यु कभी भी हो सकती है ,किसी की भी हो सकती है और कहीं भी –वो सदा शोक का कारण होती है। सभी प्रियजन शोक पीड़ित हो जाते हैं ,अकाल मृत्यु तो बहुत बड़े दुःख का कारण बन जाती है। यह भावना पूरे विश्व में एक समान है ,ऐसा तो कभी होते नहीं देखा की लोग अपने किसी बंधू बांधव की मृत्यु पर खुशियाँ मना रहें हों और दूसरे लोग आ आ कर बधाइयाँ दे रहे हों। मृत्यु का कारण कुछ भी हो सकता है पर वो मनुष्य सदा अपनों के हृदय में स्नेह का भागी होता ही है। परन्तु मृत्यु क्या है और इस प्रक्रिया का अर्थात जन्म लेना -बढ़ना -जीवन भोग भोगना और अंत में मृत्यु को प्राप्त होना यह ‘सत्य ‘ ही सत्य है जैसे सूरज ,चाँद और तारे। कहा तो यह भी जाता है की जन्म लेना मृत्यु का पहला चरण है यह सभी जानते हैं। पर स्नेह शास्वत है इसलिए हम किसी को खो देने से या खो देने की आशंका मात्र से ही दुखी हो जाते हैं। जीवन का यथार्थ है पर मोह के वशीभूत है। अर्जुन भी मोह के वशीभूत है और ऐसे में कृष्ण ने उसे अपना शिष्य स्वीकार कर सत्य का ज्ञान देने का निश्चय किया।
सर्व प्रथम अर्जुन को ‘अर्जुन ‘होने का अहसास दिलाना आवश्यक था। जब कोई अपने स्वाभाव के विपरीत ,परिस्तिथि के विपरीत ,धर्म के विपरीत और अपने निर्धारित कर्म के विपरीत काम करता है तो यह समझ लेना चाहिए कहीं तो कुछ गड़बड़ है और जो भी कारण है वो समयानुकूल नहीं है ,क्योंकि ऐसी परिस्तिथि तभी आती है जब किसी को कोई कार्य अपनी इच्छा एवंम आदर्शों के विपरीत करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अर्जुन को युद्ध से इंकार ना था पर पूज्य जनों का वध यह उसके संस्कारों के विरुद्ध था।
Swami Dayanand Saraswati wrote —
“Bhagavan remembered all of Arjuna’s word from the first chapter when, he spoke so eloquently about who would go to narka , and why dharma would be in trouble, etc. While acknowledging the wisdom of Arjuna’s words, Krishna told him that people of wisdom do not grieve. Arjuna was not a wise man and that was his whole problem, Krishna knew that all he had to do was make Arjuna a ‘Pandit ‘so that he would not see a problem where there wasn’t one, as he was presently doing. The sorrow itself was unwarranted which was why he was aggrieved .”
जो मर चूका है उसके लिए अपने कर्तव्य को भूल जाना व्यर्थ है। और यदि कोई मृत्यु को प्राप्त करने वाला है तो उसके लिए भी शोक करना व्यर्थ है। यह जन्म लेने की ,जीने की और फिर आत्मा के परमात्मा में लीं हो जाने की एक प्रक्रिया है और यह भी सत्य है की इसका कोई समय स्थान और कारण निर्धारित नहीं है और फिर यदि यह मान लिया जाये की आत्मा कभी नहीं मरती ,वो दूसरा शरीर धारण कर धरती पर आ जाती है तो ऐसी मान्यताओं को मान कर चलने से भी दुखी होने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। कृष्ण यही बात अर्जुन को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। हमारे लिए प्रकृति के
नियमों को समझना बहुत आवश्यक है नहीं तो हमारे हृदय में और विचारों में दुख एक बोझ की तरह छा जायेगा। इससे हमारी सकारात्मक सोच पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा और हमारे विवेक को कमजोर बना देगा। इसी लिए अर्जुन इतना व्यतिथ है क्योंकि वो शत्रु पक्ष में उपस्तिथ योद्धाओं को शरीर रूप देख रहा है ,सांसारिक बंधनो के आधार पर देख रहा है ,व्यवहारिक अनुराग के रूप में देख रहा है ,और मोह पाश में बंध कर अधीर हो शोकग्रस्त हो गया है। इस लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा की तुम व्यर्थ ही उन लोगों के लिए शोक कर रहे हो —-यह जीवन और मृत्यु का एक चक्र है ,जहाँ आत्मा और शरीर का संबंध कुछ समय तक रहता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की जहाँ एक ओर आत्मा अजर अमर है वहीँ दूसरी ओर शरीर जर्जर और क्षीण है। जब शरीर का अंत आ जाता है तो आत्मा के निवास के लिए प्रकृति एक नए शरीर का निर्माण करती है। दूसरी ओर हम यदि साधारण रूप में देखें तो आत्मा और शरीर एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। शरीर है तो आत्मा भी है और यदि आत्मा है तो शरीर है। पर आत्मा जो बात कहती है और जो शरीर करता है या सोच शरीर से करवाती है वो दो अलग अलग बातें हैं —-एक हो सकती है पर अधिकतर होती नहीं। हम शरीर के साथ जो जीवन जीते हैं वो सच झूठ ,अच्छा बुरा ,स्वार्थी परमार्थी ,अहंकारी या सदाचारी -कुछ भी हो सकता है ,और जो भी होता है वो हमारी निर्धारित सोच का परिणाम होता है। हम जो भी काम करते हैं अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। यह बात अगले लेख में भी जारी रहेगी।
नीरा भसीन