श्लोक संख्या –५
भावार्थ -ऐसे महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस संसार में भिक्षास्त्र भोजन करना भी कल्याणकर है ,क्योंकि गुरुजनो को मार कर भी आखिर इस सार में मैं रक्त से सने हुए अर्थ –और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूँगा।
अर्जुन के ह्रदय की वेदना कम नहीं हो रही थी। उसका कहना था की अपने परिजनों को मार कर जीने से तो अच्छा है की भीख मांग कर जीवनयापन कर लिया जाये अर्जुन को एक विशेष धनुधारी बनाने का सारा श्रेय गुरु द्रोणाचार्य को जाता है और भीष्मपितामह वे तो उसके आदर्श हैं
उनके प्रति अर्जुन के मन में आदर और श्रद्धा के अतिरिक्त कुछ नहीं। किसी और भावना की तो कोई गुंजाईश ही नहीं , वो जान बूझकर कैसे उन प्रहार कर सकता है। उक्त श्लोक में ऐसा लगता है की युद्ध भूमि में आने के बाद अर्जुन की विचार धारा ही बदल गई और उसने कृष्ण से कहा की गुरुजनों को मार कर राज्य प्राप्त करने से तो अच्छा है की वो भीख मांग कर जिंदगी बिता दे। ये तो वे लोग हैं
जिन्होंने अपने आप को सनातन धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने में कभी भय या शोक नहीं किया। जिनके विशाल हृदय ने कई बार कई लोगों के बड़े बड़े अपराधों को क्षमा कर दिया ,जो हमारी सभ्यता और संस्कृति के आधार स्तम्भ हैं। जिन्हें वैभव और राज्य की कोई लालसा नहीं। जिनकी उदारता का गुणगान सदियों तक होता रहेगा —हे कृष्ण मैं उनका वध कैसे कर सकता हूँ। ऐसे महान लोगों का अंत कर देने से संसार में अच्छाई का अंत कर देने जैसा है।अर्जुन का मानना था की आज यदि उसे राज्य की प्राप्ति हो भी जाती है तो भी वह पल भर को यह भूल नहीं पायेगा की किस किस का रक्त बहा कर उसे राज्य प्राप्त हुआ है। दूसरा विकल्प था की वो युद्ध का मैदान छोड़ दे और यदि वो ऐसा
करता है उसे वन में जा कर भीख मांग कर जीवन व्यतीत करना होगा। यह भी सच था की वह एक योद्धा था वीर था। उसका कर्म ही समय आने पर युद्ध करना था -जैसे हर सिपाही करता है। और यह भी सच था की आज के दिन के लिए उसने घोर तपस्या की थी ,दिव्य अस्त्र शास्त्र प्राप्त कर उनके प्रयोग करने की दक्षता भी हासिल की थी। पर आज जब वो घडी सामने आ गई तो उसका उसका ह्रदय विचलित हो उठा है। वह व्यतिथ है और कृष्ण उसकी विनती स्वीकार नहीं कर रहे। वह युद्ध भूमि
छोड़ कर जाना व्हाहता है और कृष्ण उसे शास्त्र उठाने को कह रहे हैं। बिना युद्ध पराजय लेना अर्थात पांडवों का वन जाना सुनिश्चित है ,यह वीरोचित वयवहार नहीं है। कृष्ण जानते थे की युद्ध अब अवश्यम्भावी है और अर्जुन विचलित है।
श्लोक ६ –भावार्थ , फिर हम यह भी तो नहीं जानते की हमारे लिए श्रेयकर क्या है –हम जीतें या वे हमें जीत लें। जिनको मार कर हम जीना भी नहीं चाहते ,वे ही धृतराष्ट्र सामने खड़े हैं।
“poor arjuna victimized not so much by the external world as by his own mental condition, is seen here as incapable of judging whether he should conquer
his enemy or by an ignoble retreat allows them to conquer him by this stanza Vyasa is indicating at the level that the hysteria in Arjun was not only mental but at the level of the intellect also he has got himself shattered and unhinged .”
Swamy Chinmaynanda –
कुछ विचार मेरे मन में भी उठते हैं –जब हस्तिनापुर में कौरवों का शासन काल था तब चरों तरफ आरजकता फ़ैल रहे थी। कौरव हस्तिनापुर के शासक नहीं थे अपितु राजा पाण्डु की अनुपस्तिथि में राज्य की देख भाल कर रहे थे। और ऐसा बहुत लम्बे समय तक हुआ। इसने कौरवों में राज्य लोभ पैदा कर दिया। यह राज्य उनका नहीं था पर वे शासन कर रहे थे तो उनकी मन मानिंया बढ़ने लगीं।
सत्ता का नशा सर चढ़ कर बोलने लगा। इसका यदि मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण करें तो लगता है की कौरवों को इस बात का ज्ञान था की हस्तिनापुर का असली शासक युधिष्ठर ही था और जब कभी भी पांडव लौट कर आ जाते हैं तो उनके पास राज्य को पांडवों को सौंप देने के
सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था ,बरसों का राज मोह यूँ ही किसी दूसरे नहीं सौंप सकते थे यह मानव स्वाभाव के गुण हैं या कहें की अवगुण हैं की जिसे एक बार वैभव शौहरत की आदत हो गई तो बुद्धि को उचित अनुचित की राह दिखने वाले सभी कपाट बंद हो जाते हैं। ध्यान नहीं रहता की धर्म क्या है और अधर्म क्या है -छोटों के प्रति स्नेह बड़ों के प्रति आदर जैसी सब भावनाएं लुप्त हो जाती हैं। इस विषय में महाभारत का उदाहरण ही दिया जाता है वो इसलिए की लोग उससे कुछ शिक्षा प्राप्त सकें । उदाहरण देते देते यह कथा तो प्रचलित हो गई की समय के साथ साथ लोग भौतिकता की ओर आकर्षित होने लगे। यह मानव स्वाभाव का एक मनोवैज्ञानिक पहलु है ,और भौतिकता के कारण
अहंकार भी बढ़ने लगा। महाभारत काल में प्रजा हित को सामने रख धर्म का पालन किया जाता था। महाभारत के समय में सबसे बड़े महानायक श्री कृष्ण थे जिन्हों ने परिस्थितियों के अनुसार उचित मार्ग दर्शन किया। ऐसे समय में उन्होंने धैर्य का साथ नहीं छोड़ा ,शांत चित्त हो परिस्तिथियों का अवलोकन कर निर्णय लिए और राह दिखाई।
आज हर राज्य में कुरुक्षेत्र हो रहा है घर घर में हो रहा है ,अराजकता चारों ओर फ़ैल रही है ,भाई भाई का धन दौलत के लिए गला काट रहा है
लेकिन कोई कृष्ण नहीं है जो सही राह दिखा सके। जो संस्कृति और समाज में धर्म की संस्थापना कर सके। पीढ़ी दर पीढ़ी महाभारत हो रहे हैं। पग पग पर भौतिकता अपने पैर फैला रही है। सब अपना अपना जीवन अपने ढंग से जीने में लगे हैं ——
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ,
या खाय बौराये जग व पाए बौराये।
कवी बिहारी लाल
हस्तिनापुर में भी एक ही परिवार के कुछ सदस्य राज पाट भोग रहे हैं और बाकि के सदस्य जंगल -जंगल भटक कर जीवन यापन करने को बाध्य हैं। शारीरिक रूप से यातनाएं दे कर और मानसिक रूप से हतोत्साहित कर जब अन्याय और कष्ट अपनी चरम सीमा पर जा पहुंचे तब युद्ध की यलगार हुई। सर्व सम्मति से ही युद्ध की घोषणा की गई। पर यह सब जानते हुए भी अर्जुन का हृदय अपने परिजनों को शत्रु पक्ष में खड़े देख कर रो रहा है। यदि उसे राजपाट मिल भी जाता है तो क्या वह अपने पुजय्नीय परिजनों व गुरुजनो को क्ष्त विक्षत लहू लुहान युद्ध भूमि में निर्जीव पड़े देख कर ,जीवन में उनको कभी भुला पायेगा।यही बात वह कृष्ण को समझाना चाह रहा है की इतना रक्तपात करने से तो अच्छा है की वो योगी बन जाये और वन को प्रस्थान कर ले। कृष्ण जानते हैं की यह मात्र अर्जुन के मन की व्यथा है वह युद्ध करने के लिए उद्धत हुआ है तो इसलिए की उसके बड़े भाई को युधिष्ठर
उसका हक़ दिलाने में उसकी सहायता कर सके और युधिष्ठर भारत में हो रहे अधर्म का नाश कर धर्म की संस्थापना कर सके। प्रस्तुत घटना क्रम में अर्जुन भारत भूखंड में फ़ैल रही अराजकता से पूर्णतया
अवगत है युद्ध के लिए उद्धत भी है ,सज्ज भी है पर अपने परिजनों का वध कर वो राजपाट पाना नहीं चाहता। उसका यह द्व्न्द अपने संस्कारों के कारण है ,अपने ह्रदय में उठ रहे अनुराग के कारण है। .जिसके फलस्वरूप उसने अपने हथियार डाल दिए हैं और अब कृष्ण की ओर क़ातर दृष्टि से देख पथ प्रदर्शन का अनुरोध कर रहा है।