श्लोक 50 –भावार्थ ,
( समत्व ) बुद्धि से युक्त ( मनुष्य )इसी लोक में पाप और पुण्य दोनों को त्याग देता है ( अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है )इस लिए तू ( समत्वबुद्धिरूप ) योग के लिए ही प्रयत्न कर। यह ( समत्वबुद्धिरूप ) योग ही कर्मों में कुशलता है (अर्थात कर्म के बंधनों से छूटने का उपाय है। ) हम समत्वबुद्धिरूप को मानव स्वभाव के विपरीत तो नहीं कह सकते पर इतना अवश्य है की सांसारिक बंधनों में बंधे मनुष्य के
मस्तिष्क में लोभ ,मोह ,अहंकार और स्वार्थ का पलड़ा हमेशा भारी रहता है जिसे बल पूर्वक हटाना बहुत ही कठिन है। श्री रामानुजा जी के विचारों के आधार पर एस, एस , राघवाचार्य जी ने लिखा है “
If the mind is offered to God, impurities are removed .Desires and aversions do not pervert and strengthen the senses .When such purified and subdued senses function in relation to the objects, they put them down as they were by neglect and do not become the slaves of objects. The man who follows this path will have his mind under control and will attain peace and clarity of intellect. Such clarity of intellect puts an end to worldly cares and sorrows born of confusion and in that clear intellect the understanding of the self-established itself readily .”
अर्जुन कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने ही विचारों के बीच उलझता जा रहा है। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा है की जो वह सोच रहा है वही उचित है। न तो उसे अपने स्वजनों का संहार करना है और न ही उसे राज पाट का कोई लोभ है। अक्सर लोग ऐसी मनस्तिथि का शिकार हो जाते हैं जब उनके हृदय में उठ रही आशंकाएं प्रश्नों के जाल में जा फंसती हैं। ऐसी अवस्था में भय और शिथिलता का हावी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। अर्जुन विनती तो श्री कृष्ण से कर रहा है पर उलझा अपने ही विचारों में है। युद्ध का परिणाम उसे भयभीत करता जा रहा है। स्पष्ट है की उसने अपनी व्याकुलता को , दुविधा को ,और भय को अपने मित्र के सामने तो रख दिया है -सहायता की अपेक्षा भी है और विश्वास भी परन्तु अब भी वह स्वयं को पूरी तरह से कृष्ण को समर्पित वह नहीं कर पा रहा। क्योंकि उसके मन में प्रश्नों का प्रवाह निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। वह एक योद्धा है और उसे युद्ध में विजय मिलेगी –इसका उसे पूरा विश्वास भी है। हम यह रोज देखते है और समझते भी हैं की ऐसी मनस्तिथि में जो मानसिक तनाव बढ़ता है वो आत्मा को व्यथा पहुंचाता है ,कई बार तो मनुष्य अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठता है। जब मनुष्य को सोच में शंकाएँ अपना स्थान बना लेती हैं तो वह कर्म से पहले ही कर्म फल की सोचने लगता है। एक कर्म योगी को अपने मन में ऐसे विचार लाने ही नहीं चाहिए। हो सकता है की ऐसी परिस्तिथि में कुछ बुद्धि जीवी भिन्न विचारों का समर्थन करते हों और हो सकता है की उनके अपने कुछ मत भेद भी हों -ये संभव है।
कर्म किसी लक्ष प्राप्ति के लिए ही होते हैं ,कर्म करने से पहले सोच विचार आवश्यक है की अमुक कार्य करने से हमें हानि होगी या लाभ। इसके कुछ निर्देश तो हमारे शास्त्रों में भी मिलते हैं की अमुक कर्म धर्म के अनुसार है या नहीं आदि आदि। पर सच तो ये है की हर कर्म के दो ही पहलु होते हैं सफलता या असफलता .कर्मों का आधार हमारी सोच है -अच्छी या बुरी -दिन के उजाले में जीने वाले रातों के अंधेरों में ही अपनी शारीरिक वा मानसिक शक्तिओं का संग्रह करते हैं (यह प्रक्रिया शरीर विज्ञान का विषय है। ) हमें बस अपनी सोच को कर्म को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना है। यदि हम जीवन के दोनों पहलु एक साथ ले कर आगे बढ़ते हैं तो हार हमें शिथिल बना देगी और दूसरी तरफ फल की इच्छा न करते हुए जो कर्म हम करेंगे वो हमें सदा शक्ति देते रहेंगे। क्योकि दोनों ही परिस्तिथिओं को सम रूप से स्वीकार कर लेने से मन में राग , द्वेष ,अहंकार और शत्रुता आदि विचारों को स्थान नहीं मिलता।
“A karm yogi will go to that state which is beyond all evils . “ज्ञान और कर्म को साथ साथ चलना चाहिए ,आवश्यक है की हमारा कर्म हमारे ज्ञान पर इतना हावी न हो जाये की हम कर्म करें तो स्वार्थ के लिए ,इच्छा करें तो स्वार्थ सिद्धि के लिए ,उचित अनुचित का ध्यान करें तो निजी सफलता के लिए ,क्षणिक सुख के लिए ,भोग विलास के लिए -ऐसे तो अहंकार का जन्म होगा ही। हमारा ज्ञान हमें उचित कर्मों के लिए प्रेरित करे और हमारे कर्म सर्वजन हिताय हों यह सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। सांख्य योग के श्लोक 58, में लिखा गया है विवेक और अविवेक चित्त के धर्म हैं। उसमें जब तक अविवेक विधमान है तब तक उसमें ज्ञान का उदय कहा जाना केवल कहने के लिए ही है उसे यथार्थ ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जैसे लाल पुष्प को स्फटिक मणि के पास रखने से मणि में कुछ लालिमा आ जाती
है ,परन्तु वह लालिमा वास्तविक नहीं होती वैसे ही अविवेक के रहते विवेक यथार्थ रूप से नहीं रहता। “
श्लोक -51 ,अध्याय 2 ,
भावार्थ —–क्योंकि (समत्व)बुद्धि युक्त ग्यानी गण कर्म से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो विकार रहित पद (अर्थात मोक्ष ) को प्राप्त हो जाते हैं।
For shri Ramanuja –“steady mindedness is itself a fruition of devotion .”
निरंतर अभ्यास -अच्छी सोच का ,परोपकार का बंधुत्व का , पारिवारिक संबंधों को उचित मान सम्मान देने का
ज्ञान अर्जित करने का –इस बारे मैं कहना चाहूंगी की अभ्यास का साधन कोई भी हो आज के परिवेश में यदि हम ज्ञान की बात करते हैं तो अधिकतर लोग स्वयं कोई प्रयत्न कर अपने विचारों को या कर्मों को नहीं सुधारते न ही परिस्तिथियों से कुछ सीख कर या इतिहास के पृष्ठों दृष्टि पर डाल कर कुछ सीखने समझने का प्रयास करते हैं ,बस गूगल पर अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढ कर आगे बढ़ जाते हैं। ये ज्ञान शास्वत नहीं है ,इससे अनुभव प्राप्त नहीं होता, न ही ज्ञान की वृद्धि होती है ,न ही इससे स्वयं का या किसी दूसरे का पथ प्रदर्शन होता है और कभी कभी सच और झूठ इस तरह से मिला दिए जाते हैं की कर्म एक छलावा मात्र बन कर रह जाते हैं अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। इससे भौतिकता और विलासिता तो बढ़ सकती है पर ज्ञान नहीं। विचारों में स्थिरता का प्रश्न हो या फिर प्रभु के नाम जप करने का –कहने का तातपर्य यह है की निरंतर अभ्यास करते रहने से ही मन की एकाग्रता बढ़ती है और लक्ष्य की प्राप्ति भी हो सकती है।
अंतःकरण की शुद्धि कर्म योग से होती है। ‘कर्म ‘नदी की अविरल धारा के समान होते हैं। यहाँ एक बात का ध्यान रखना बाहत जरुरी है की हम किस तरह के कर्म में रत हैं -दिनचर्या के या जीवकोपार्जन करने के कर्म ,पर ये कर्म तो नियम बद्ध हैं ,कुछ शरीर के धर्म हैं जो सभी जीवधारी करते हैं जैसे उदर का भरण पोषण और प्रजनन आदि हैं ,जिन्हें हम शरीर के द्वारा किये गए कर्म कह सकते हैं पर इस धरती पर मानव जाति एक बुद्धि विशेष को ले कर विकसित हुई है। विकास की इस प्रक्रिया में हम स्वार्थी बन कर आगे नहीं बढ़ सकते। क्योंकि हमारे द्वारा किये गए कर्मों का प्रभाव पुरे समाज पर तो क्या पुरे विश्व को भी प्रभावित कर देता है। मानवरूपी जीव मात्र में ही नर्क स्वर्ग की व्यवस्था की गई है जिसे हम कर्मों का रंगमंच कह सकते हैं। यहाँ पर मंच के कलाकार को वो ही सब कुछ करने को कहा जा सकता है जिससे दर्शकों को भी अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिले। विशेष परिस्तिथियों में कुछ विशेष कलाकारों की भूमिका से सामाजिक जीवन को कुछ धर्मानुसार और या नियमानुसार चलने की प्रेरणा मिलती है। ऐसे में एक कलाकार को सभी के उत्थान के बारे में ही सोचना चाहिए। अधिक शंकाएं ,अधिक प्रश्न या अधिक मोह कर्त्तव्य में बाधा बन सकते हैं। यहाँ कुरुक्षेत्र में भी प्रश्न यही था की अर्जुन को यदि उचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह देश काल और परिस्तिथि के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करने को उद्धत हो जाता है तो यह समझना चाहिए की उसने कर्म फल की चिंता का त्याग कर दिया है। इसे ही मुक्ति का मार्ग कहा गया है। मुक्ति मृत्युपरांत मिले यह आवश्यक तो नहीं ,यदि मन से व्यर्थ की शंकाओं और भी की धुंध को हटा दिया जाये तो मनुष्य जीते जी भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है – यह बहुत ही गहरा विषय है ,मात्र दो पंक्तिओं में इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती न ही इसे समझा जा सकता है। इसके लिए स्वाध्याय की बहुत आवश्यकता है। यह चर्चा आगे जारी रहेगी।