हम एक मनुष्य का उदाहरण लेते हैं जो नैतिकता से परे हट कर अपने व अपने समाज के लिए विध्वंसकारी ,कष्टदायक काम करता है और प्रसन्न भी होता है ,अपनी उपलब्धियों पर गर्व भी करता है -पर यह अनुचित है जिसे वह जानता भी है और समझता भी है ,पर मानने को तैयार नहीं ,किसी दूसरे के समझाने पर भी वह बात स्वीकार नहीं ,लेकिन ऐसे व्यक्ति के हानिकारक कृत्यों से समाज की रक्षा करना भी अति आवश्यक है ऐसे में हमें किसी मनोविशेषज्ञ का सहारा लेना पड़ता है जो उसे उचित और अनुचित का भेद समझाए एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए की प्रत्येक मनुष्य अपने अंतर मन में अच्छे और बुरे भेद जानता है अपने द्वारा किये गए कर्मों का फल जानता है उसका प्रभाव भी जनता है ,पर क्षणिक सुख व अहंकार के चलते उत्तेजित हो दुष्ट कर्म कर बैठता है -ऐसे में एक मनोविशेषज्ञ उसके अंदर पड़े ईश्वरीय तत्व को बाहर निकालने का प्रयास करता है ,उसे उसके प्रभाव से, नुक्सान से परिचित कराता है तब यहीं पर हम अपनी आम भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं की उसकी अंतरात्मा जाग उठी है उसका विवेक जाग उठा है – जब की यह सब तो उसके अंदर ही था ,वो ज्ञान को ले कर ही जन्मा था ,जीवनयापन कर रहा था पर विचारों में खिन्नता के कारण व्यवहार में कर्कश बन गया। जब ज्ञान का उदय हुआ विचारों ने अच्छे बुरे का भेद पहचाना तो उसके कर्मों में परिवर्तन होते देर नहीं लगी -फिर आत्म बोध हुआ तो सारी मानव जाति के प्रति उसकी धारणा बदल गई और उसके कर्म कल्याणकारी बन गए। आदिशंकरचर्य जी ने गीता भाष्य में इसका उल्लेख करते हुए कहा है
” The sense is that we are ignorant of the proper nature of the self because this self is neither the agent nor the object of the action of slaying. The reason is that the self is immutable.
” अर्थात आत्मा अडिग है अमर है।
श्लोक २० —–
भावार्थ —-यह (आत्मा )न कभी जन्म लेती है न कभी प्राप्त होती है , अथवा (ऐसा भी नहीं है की )यह एक बार हो कर फिर नहीं होती। यह जन्म रहित नित्य शास्वत तथा सनातन है ,शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती।
यदि साधारण शब्दों में हम कुछ कहें तो क्या वह मान्य होगा -आत्मा थी ,है और रहेगी यह एक ऐसा मिक्रो चिप है जो हो कर भी नहीं है और जो है और वो खो जाये इसका भी भय नहीं है। यह क्रियांविंत है पर कर्त्ता नहीं है ,संज्ञा है पर प्रस्तुत नहीं है, उदाहरण हजारों हैं पर सही एक नहीं है क्योंकि ये भिन्न भिन्न लोगों की व्याख्या में भिन्न भिन्न रूप से प्रस्तुत की गई है। यह चारों ओर के हाहाकार, अहंकार त्रास ,दुःख,सुख, वैभव व भौतिकता से घिरी है पर निर्लिप्त है। यदि हम आत्मा के उस स्वरुप को पहचान लेते हैं जो स्वरूप हीन है तो क्या हम अपने को जान लेंगे –यह संभव है। नहीं हो कर भी होना और हो कर भी न होना ,ऊपर से पवित्र और सत्य माना जाना यह सागर से भी गहरी विवेचना है जिसमे डूब कर उभरना है या कहें पार जाना है -याद रहे यहाँ पार जाना अर्थात इसमें डूब जाना है। कभी कभी यह बात कितनी सरल जान पड़ती है ऐसा लगता है की हम तो सब जानते हैं परन्तु अगले ही पल हमारा ज्ञान हमारे विचार मानो अन्धकार में खो जाते हैं। कभी किनारे का अहसास होता है और कभी लगता है की नाव बिन पतवार के मंझधार में है। क्या ऐसी ही दुविधा में अर्जुन भी फंसा था। क्या सही है और क्या नहीं, सच क्या है और झूठ क्या – युद्ध के बिना दूसरा कोई विकल्प न था,कृष्ण ने कहा की आत्मा अमर है और अर्जुन युद्ध को पाप समझ रहा था। तो क्या उसे युद्ध करना चाहिए ?
जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना ये आत्मा से संबंधित प्रक्रिया नहीं है जैसा की उपरोक्त श्लोक में स्पष्ट है “न जायते न म्रियते वा कदाचिन्नायं ” जब श्री कृष्ण ने यह स्पष्ट कर दिया
की आत्मा मृत्यु और जन्म से परे है तो यह भी सिद्ध हो गया की आत्मा शरीर की भांति न बढ़ेगी ,न विकसित होगी न संकुचित होगी और न ही इसका विनाश होगा या दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अंत होगा। गुनी जनों ने इसी कारण आत्मा को अजर अमर की संज्ञा दी है ,यह आज भी है ,कल भी थी और भविष्य में भी इसके आस्तित्व में किसी भी परिवर्तन की कोई सम्भावना ही नहीं है। जब आत्मा पर काल का कोई प्रभाव ही नहीं है तो इसे नवजात ,वृद्ध या जर्जर भी नहीं कह सकते।
दूसरी ओर अच्छे कर्म या बुरे कर्म व्यक्ति के अपने विचारों का परिणाम हैं तो उसका फल भी व्यक्ति को स्वयं ही भोगना पड़ता है ,उसके कर्मों के पाप पुण्य उसके अपने होते हैं। जिन विचारों के आधार पर कर्म किये जाते हैं उन्हीं विचारों को दुःख सुख की अनुभूति होती है।
आत्मा का तो इन सब से कोई लेना देना ही नहीं है। इसलिए जब हम इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है की मरता तो शरीर है आत्मा नहीं और शरीर को तब ही मृत घोषित किया जाता है जब शरीर और आत्मा पृथक हो जाते हैं।