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जिन्दगी : शिक्षा पाई या ज्ञान ?

Tez Samachar by Tez Samachar
June 13, 2020
in Featured, विविधा
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जिन्दगी : शिक्षा पाई या ज्ञान ?
Neera Bhasinभारतीय संस्कृति में किसी चीज के बारे में ज्ञान (आज )प्राप्तकरना अर्थात उस वस्तु या विचार को पूर्णरूप से आत्मसात कर लेना है ,उससे  लाभ और  हानि को समझना है नाकि मात्र जीवकोपार्जन  साधन बनाने के लिए आंशिक रूप ग्रहण कर स्वार्थ के लिए उसे उपयोग करना। पूर्वकाल में जब गुरुकुलों की संस्थापना हुई थी तो वहां शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक स्नातक को विषय विशेष के साथ साथ मानवता की भी शिक्षा दी जाती थी जिससे समाज और देश का भी उत्थान हो सके और समाज में परिवार में सभी लोग मिलजुल कर रह सकें। ऐसे स्नातक जब शिक्षा पूर्ण कर समाज में प्रवेश करते थे तो वे भौतिक ज्ञान  के साथ साथ व्यव्हारिक   ज्ञान भी समाज को दे कर समाज और देश  का भला करते थे।
After their scholastic or professional training, therefore they walked into the world knowing perfectly well where to place themselves in the scheme of things in life. They were not hoodwinked by life, nor they expect life to be a mysterious cave where infinite riches lie scattered waiting for them to claim it .the contrast becomes ludicrously spectacular when we compare these fully educated men of those days with the partially instructed and misguided students of the present age who walk out of the university to realize that they have education but no knowledge.
इसी परम्परा के अंतर्गत जब कृष्ण ने अर्जुन को अपना शिष्य स्वीकार कर लिया तो उनका यह कर्तव्य बन गया वे अर्जुन को उचित मार्ग दिखाएँ और उसके संदेहों का निवारण कर उसकी क्षमता और शिक्षा का भान उसे करा सकें। इसलिए उन्होंने अपनी बात के शुरू में सबसे पहले यही कहा की हे अर्जुन तुम उन सब के लिए दुखी हो रहे जिनके लिए शोक करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। द्रोण और भीम वही कर रहे हैं जो उनका कर्तव्य है और वे अपने अपने कर्म   क्षेत्र में इसी कारण जाने जाते हैं और इसी लिए  वे महान भी कहे जाते हैं। उनके ज्ञान और वीरता की बराबरी करने वाला
दूसरा कोई उदाहरण मिलना कठिन है। इसी कारण वे सम्बन्ध विशेष या परिवार में अपना स्थान भी उच्च स्तर पर रखते हैं। भीष्म को आदर सम्मान उनकी आयु या वीरता के कारण नहीं मिला ,वे सभ्यता और संस्कृति के आधार पर धर्म का पालन करते हैं। युद्ध में वे जिस स्थान पर खड़े हैं ,वे अपने कर्तव्य पालन के कारण ही खड़े हैं।
हर समस्या या परिस्तिथि को देखने का अपना एक दृष्टिकोण होता है और यह भी आवश्यक नहीं की प्र्त्येक वयक्ति उस विषय को एक ही दृष्टिकोण से जांचे परखे। संभव है जो परिस्तिथियाँ हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं हम उन्हें वैसा ही देखें जैसी वो दिख रही हैं। पर जब हम उसे अपनी बुद्धि और विवेक से देखेंगे तो निश्चित ही हमारी सोच बदल जाएगी। उदाहरण के लिए जब एक स्त्री अमुक व्यक्ति की माँ होती है तो वो उसके विचारों में ‘माँ ‘ ही रहती है। उसका उस स्त्री के प्रति व्यवहार पुत्रवत ही रहता है। उसका मान सम्मान भी वो उसी तरह से करता है जैसा की एक पुत्र को करना चाहिए। दूसरी ओर परिवार के अन्य सदस्यों के लिए वही स्त्री किसी की पत्नी ,बहन बहु ,भाभी धायमाँ किसी भी रूप में हो सकती है। इन सब रिश्तों का निर्वाह वह एक ही घर में रह कर एक ही परिवार के सदस्यों के साथ करती है। यह एक विवेक पूर्ण और धर्मानुकूल स्तिथि है। या इसे सामाजिक व्यवस्था भी कहा जा सकता है। हमारी शारीरिक उपस्तिथि हमारा बौद्धिक स्वरुप हमारा विवेचनात्मक ज्ञान एक ही स्थान पर रह कर भिन्न भिन्न तरह से काम करता है। इसलिए हमारे विचारों में
प्रत्येक परिस्तिथि के अंतर्गत उचित – अनुचित का ज्ञान होना आवश्यक है। कभी कभी हालात संस्कारों के विपरीत आ खड़े होते हैं ऐसे में ज्ञान का संज्ञाहीन होना कोई बड़ी बात नहीं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। और यदि ऐसे में कोई सही निर्णय लेने योग्य न हो तो उसे किसी योग्य वयक्ति से परामर्श करना चाहिए जैसा की अर्जुन ने किया। उस समय कुरुक्षेत्र में जो सबसे अधिक शांतचित थे तो वे थे कृष्ण बाकि सब योद्धा  युद्ध के लिए अधीर थे ,संशय में तो केवल अर्जुन ही था और वो ही  पांडवों का सेना पति था। इस लिए अर्जुन ने श्री कृष्ण की शरण ली। अर्जुन अपने परिवार के उन महानुभावों के पास नहीं गए जिनके कारण उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ ,जिनसे युद्ध करना उन्हें ‘पाप ‘ लगा। वे अपने मित्र और सारथि कृष्ण की शरण में गए। क्योंकि वविवेक और सही ज्ञान उन्हें वहीँ दिखा। कृष्ण ने अपने पहले शब्दों से ही अर्जुन का मोह भांग करने का प्रयत्न किया “तुम उनके लिए शोक कर रहे हो जो उसके अधिकारी नहीं हैं “कृष्ण के ये शब्द अर्जुन की बुद्धि में विवेक का दरवाजा खोलने के लिए काफी थे ,ये शब्द एक कठोर प्रहार के सामान थे जिन्हे बिना किसी भूमिका के कहा गया।
हम अक्सर देखते हैं की यदि कोई मनुष्य किसी कारणवश कभी प्रलाप करने लगता है तो उस समय उसे अपने आस पास की परिस्तिथियों का कुछ अहसास नहीं रहता न
ही अपने शरीर का ध्यान रहता है –ऐसे में उपस्तिथ लोगों में से कोई अपना या फिर चिकित्स्क उसे जोरदार एक चांटा मारता है ,यह प्रहार कष्ट या दंड देने के लिए नहीं किया जाता अपितु इससे विचारों के प्रलाप का वो प्रवाह थम जाता है और उस व्यक्ति को अपने आस पास के हालत का अहसास हो जाता है –मानो  वो किसी स्वप्न से  हो जागा हो। यही प्रयोग कृष्ण ने अपने शब्दों द्वारा अर्जुन पर किया।
नीरा भसीन

 

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