युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले एक ओर दुर्योधन अपने मन के भय को और संदेह को गुरु द्रोण और भीष्मपितामह के समक्ष रखता है और दूसरी ओर अर्जुन अपने मन की दुविधा को कृष्ण के समक्ष रखता है।
दुर्योधन और द्रोण को लगता है की भीष्मपितामह के नेतृत्व में जो सेना है वह पर्याप्त है क्न्योकि भीम की सेना भीष्म की सेना से कहीं कम है ,पर दूसरी ओर अर्जुन के मन में दुविधा है की शत्रु पक्ष में खड़े सभी योद्धा उसके अपने पुज्य्नीय परिजन हैं –क्या यह युद्ध करना उचित होगा। दुर्योधन के मन में अहंकार और राज्य का लोभ है पर अर्जुन के मन में सत्ता का लोभ नहीं है ,तो वह सत्ता के लिए अपनों का वध कैसे कर सकता है। यह अर्जुन अपने परिवार के लिए अनुराग है। जहाँ अहंकार होता है वहां पराजय का भी भय होता है और जहाँ अनुराग होता है वहां शिथिलताभी आ जाती है —-निर्णय में शिथिलता ,लक्ष्य प्राप्ति में शिथिलता –कारण अपने ही हाथों अपनों को कष्ट देना ,ऐसा सुख क्या मन को शांति दे सकेगा ,पर दूसरी ओर अहंकारी पुरुष साम दाम दंड भेद वो पाना चाहता है।
पर विवेकी पुरुष पहले सबका भला सोचता है।
आज हम देश में राजनैतिक उथल पुथल देख कर कहते हैं की भाई ये किस्सा कुर्सी का है पर सच कहूं मुझे तो महाभारत भी किस्सा कुर्सी का ही लगता है।
कृष्ण ने अर्जुन को कहा था की आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध रखते हुए धर्म का पालन करना बहुत
आवश्यक है। आज भी यह उतना ही आवश्यक है जितना यह तब था।
ग्यारहवें श्लोक दुर्योधन के मन का भय सामने आता है जब वो अपनी सारी सेना को एक ही रण नीति का अनुसरण करने की आज्ञा देता है और कहता है की भीष्मपितामह को चारों ओर से सुरक्षित रखने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए। किसी अनुवादकर्ता ने दुर्योधन की मनोदशा के बारे में कहा है (इसी श्लोक के अंतर्गत )भीम की सेना दुर्योधन को भीष्मपितामह की सेना से कहीं अधिक सुचारु रूप से संचालित दिखाई देती है।यहाँ दुर्योधन के मन के भाव विचलित दिखाई पड़ते हैं और ऐसा तभी होता है जब मन में
अविश्वास हो (अपने आप पर ) भय हो पराजय का ,ऐसा व्यक्ति
अपने मन में जानता है की वो जो कुछ भी कर रहा है वह न्याय संगत नहीं है ,धर्मानुकूल नहीं है पर फिर भी वह साम दाम दंड भेद अपने अहम के बारे में सोचता है। किसी अनुवादक ने यह भी लिखा है
की एक ओर तो दुर्योधन को अपनी सेना असक्षम दिखाई देती है और भीष्म की सक्षम ,तो दूसरी ओर गुरु द्रोण को दावे के साथ कहता है की भय का तो कोई कारण ही नहीं उनकी विजय तो निश्चित है।
(श्लोक १२ ,१३ )क्या यह दुर्योधन के अपने कुटिल मन का भय था या अपनी सेना को उत्साहित करने का प्रयत्न। पर भयभीत मन की दुविधा यहाँ साफ़ दिखाई देती है। दुर्योधन की दुविधा से सभी मन ही मन क्रोधित हो रहे थे भीष्मपितामह ने यह भांप लिया था की दुर्योधन की दुविधा हो सकता है उसकी अपनी ही सेना के मनोबल को क्षीण कर दे इसलिए अब यह अनिवार्य था की वे अपने वीरों का ,महारथियों का ध्यान युद्ध की आकर्षित करें और इसलिए
उनहोंने शंख बजा कर युद्ध की घोषणा कर दी। भीष्म के शंखनाद के साथ साथ दुर्योधन की सेना में अन्य वीरों ने भी शंखनाद कर दिया,अर्थात सेनापति भीष्म के साथ साथ सभी वीरों ने दुर्योधन की चुनौती स्वीकार कर ली। भीष्म की सिंह के सामान दहाड़ ने युद्ध
प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। .
श्लोक १४ -इस श्लोक से कुरुक्षेत्र में पांडवों के पक्ष की चर्चा है। भीषम द्वारा युद्ध को प्रारम्भ करने के लिए किये गए शंखनाद का उत्तर पांडवों की सेना ने भी शंख नाद कर दे दिया।
शंखों की धवनि ,नगाड़ों की धवनि सैनिकों की यलगार के शोर से धरती काँप उठी। यह शोर भयभीत कर देने वाला था। संजय ने धृतराष्ट्र को युद्धभूमि का वर्णन करते हुए कृष्ण और अर्जुन के शौर्य वा धैर्य की प्रशंसा की और बताया की कैसे इन दोनों ने भीष्म के
शंखनाद का उत्तर शंखनाद से दिया। हो सकता है संजय के मन में
कहीं ना कहीं अब भी कोई आशा की किरण बाकी थी की धृतराष्ट्र
शायद युद्ध को रूक दें।
श्लोक १५से १९ —–संजय प्रयत्न करता जा रहा है की धृतराष्ट्र पांडवों के पक्ष को समझे और युद्ध रोक ले। युधिष्ठर
के शंख का नाम है कोंच शंख जिसका अर्थ है अनंत विजय ,ऐसे ही
अन्य शंख आदि का विवरण इन श्लोकों में किया गया है।
श्लोक २ो से २३ ——-यह वो समय था जब अर्जुन का रथ युद्ध भूमि में प्रवेश करता है। युद्ध अभी प्रारम्भ नहीं हुआ
था ,पर युद्ध को किसी तरह रोका जा सके ऐसे कोई आसार भी नहीं थे। अर्जुन के रथ के सारथि श्री कृष्ण थे और उनके रथ की ध्वजा पर बलशाली हनुमान का चित्र अंकित था। अर्थात ज्ञान और शक्ति दोनों ही अर्जुन के रथ पर सवार थे। उस समय अर्जुन युद्ध के लिए अधीर जान पड़ते थे कयोंकि वे हाथ में धनुष उठा चुके थे।
यह वो पल थे जब अर्जुन ने कृष्ण को रथ दोनों सेनाओं के बीचों बीच ले जाने का अनुरोध किया सीदी सादी भाषा
में कहें तो अर्जुन अपने शत्रु की सेना और उसमें युद्ध के लिए तत्पर
योद्धाओं को परखना चाहते थे। युद्ध का आवाहन करते हुए पांडवों ने जो शंख नाद किये थे ,उसकी गूँज धरती से आसमान तक गूंज रही थी और तभी संजय ने एक बार फिर धृतराष्ट्र से कहा की पांडवों के बल के सामने कौरव सेना का टिकना संभव नहीं।
कृष्ण रथ दोनों सेनाओं के बीच ले गए तो अर्जुन ने स्पष्ट करते हुए कहा वे किसी तरह का कोई खतरा उठाना नहीं चाहते इसलिए शत्रु पक्ष में खड़े मंदबुद्धि ,सत्ता के लिए पागल ,लोभी वीरों का स्वयं निरिक्षण करना चाहते हैं। दूर देशों से आये राजा
दुर्योधन के पक्ष में क्या इसलिए खड़े हैं की वो बहुत ही पराक्रमी
वीर है या फिर दुर्योधन की विजय पर उनको कोई न कोई बड़ा
भारी भौतिक लाभ होने वाला है। ऐसी शंकाएँ
मन में उठना स्वाभविक है। यह एक निर्णायक युद्ध था जो धर्म और
अधर्म के बीच था। युग परिवर्तन की सम्भावना का आधार था।