गीता के दूसरे अध्याय में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को कहा है कि स्थिर बुद्धि वाले लोग श्रेष्ठ कहलाते हैं। जिन लोगों ने अपनी इच्छाओं पर विजय पा ली है और जो लोग भौतिकता के प्रलोभन में नहीं पड़ते वही स्थिर बुद्धि वाले कहे जाते हैं। हम अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कभी कभी ग़ल्त राह चुन लेते हैं ,कभी स्वार्थ के चलते दूसरों के हित का ध्यान नहीं रखते इससे बुद्धि में चंचलता बनी रहती है। दूसरे अध्याय में श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग में स्थित रह कर कर्तव्य पालन करने को कहा -यहाँ फल की इच्छा नहीं रखने का उपदेश भी दिया। फल की इच्छा से किये जा रहे कर्म कभी कभी कर्ता को पथभ्रष्ट कर सकते हैं। यह ध्यान केंद्रित करने में एक बहुत बड़ी बाधा बन जाते है। परन्तु कर्तव्य और धर्मानुसार ,नियमानुसार किया गया काम सबके हित में होता है। हम काम कोई भी करें फल दो ही होते हैं ,कभी सफल तो कभी असफल। यदि सफलता मात्र को ध्यान में रख कर ही काम किया जाता है तो उद्देश्य की प्राप्ति न होने पर कर्त्ता के अहंकार को बहुत बड़ा आघात लगता है और इसके परिणाम घातक भी हो सकते हैं ,ऐसा ही कुछ कुरुक्षेत्र में हुआ। यदि फल की चिंता किये बिना कोई कार्य किया जाये तो असफल होने पर भी कर्ता को सोच वोचार कर अपनी गलती सुधारने का मौका फिर से मिल जाता है पर यदि अर्जुन की तरह हथियार डाल कर परिस्थिति से पलायन करने का सोचने लगे तो यह एक अनुचित निर्णय होगा — क्योंकि ऐसे निर्णय अधिकतर बिना सोचे विचारे किये जाते हैं और यदि कोई योद्धा वीर एवं ज्ञानी इस तरह का तर्क रखे तो इसे कायरता के लक्षण भी कहा जा सकता है। ” कायरता ” अर्जुन के लिए तो इस शब्द का प्रयोग कदापि नहीं किया जा सकता क्योंकि हम सब जानते हैं की उसका निर्णय तो मोह वश था। इसलिए परिस्थिति कोई भी हो ,कारण कोई भी हो बिना उचित अनुचित जाने हमें एकाएक किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंचना चाहिए। अर्जुन का शरीर यह सोच कर शिथिल पड़ गया की उसे अपने ही पूज्य जनों पर ना केवल वार करना है अपितु उनका संहार भी करना होगा। युद्ध की नियति ही यही है। अर्जुन को और कुछ भी याद नहीं रहा ,कौरवों का बढ़ते अत्यचार ,अधर्म के कारण प्रजा में फ़ैल रही अराजकता उसे सब भूल गया –बस वो अपने सामने विपक्ष में खड़े अपने पूज्य जनों को देख रहा था। यह कर्तव्य की राह में मोह के कारण उपजी बाधा थी। अर्जुन को इस अचेतन अवस्था से बाहर लाना बहुत ही आवश्यक था ,जिसका प्रयास श्री कृष्ण ने किया।
श्री सचिदानंद स्वामी जी ने लिखा है –” जो लोग अनिश्चय वाले हैं ,दुविधा में भटकने वाले हैं उनका ज्ञान अनेक शाखा वाला तथा अनिर्णायक होता है। कृष्ण ने कहा तू ‘कर्मफल की वासना वाले कर्म कांडों को छोड़ कर ज्ञान मार्ग में स्तिथ हो जा। ‘ ऐसा बुद्धि युक्त ( ज्ञानी ) पुरुष पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो रहता है। ऐसा बुद्धि युक्त महान मनुष्य जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो कर परमपद को प्राप्त करता है। जब तेरी बुद्धि मोह रूपी मैल को त्याग देगी तब तू उच्च पद को प्राप्त कर लेगा। जब तू निश्चिंतता प्राप्त करेगा तब तू योगी हो जायेगा। “
बुद्धि या ज्ञान को हानि पहुँचाने वाले वाह्य तथा आंतरिक दो प्रमुख तत्व हैं। वाह्य तत्व तो अनेक मतमतान्तरों को सुनने से हुई भ्रान्ति है ,और आंतरिक तत्व है ‘ अज्ञान ‘ ,जिसने हमारी मन बुद्धि
पर पर्दा डाल रखा है और इस कारण हमारी तर्क बुद्धि क्षीण होती रहती है। हम अधिकतर ऐसे विषयों पर चिंतन करते हैं जो हमें भौतिक सुख देते हैं ऐसे में हमारी आसक्ति भी वहीँ होती है और हमारे सारे प्रयत्न
भी उसे प्राप्त करने में लगे रहते हैं। हमने और आपने अक्सर यह अनुभव भी किया होगा की जब हमारी मनोकामनएं पूरी नहीं हो पाती तो हमारे अंदर क्रोध की ज्वाला भड़कने लगती है और यही सब दुखों की जड़ है। इससे सोचने समझने की शक्ति कम हो जाती है और मनुष्य अधिकतर वो कर बैठता है जो नहीं करना चाहिए। साधारण शब्दों में कहें तो मन जिद पकड़ कर बैठ जाता है। ऐसे में लाभ कम और हानि अधिक होती है। श्री कृष्ण भी अर्जुन को हठ का त्याग करने को कह रहे हैं।
अब हम तीसरे अध्याय की ओर बढ़ते हैं जहाँ हमें श्रीमद भगवत गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए उपदेशों में ‘ कर्मयोग ‘ को समझने का अवसर मिलेगा।
श्लोक –1 , अध्याय –3 ,
भावार्थ — हे जनार्दन ! यदि तुम कर्म की अपेक्षा बुद्धि (अर्थात ज्ञान ) को श्रेष्ठ मानते हो ,तो फिर हे केशव ! मुझे ऐसे भयंकर कर्म में क्यों लगा रहे हो ?
इस दृश्य में गुरु शिष्य की अपेक्षा मित्र भाव अधिक दिखाई दे रहा है। गुरु की आज्ञा पर कोई प्रश्न नहीं उठता पर यहाँ श्री कृष्ण अर्जुन को आज्ञा दे रहें हों ऐसा नहीं लगता अपितु गुरु होते हुए भी वे अर्जुन को परिस्तिथियों का अहसास दिला रहे हैं ,अर्जुन को अर्जुन की क्षमता का अहसास दिला रहे हैं उसको उसके कर्तव्य का अहसास दिला रहे हैं क्योंकि यही एक वीर योद्धा का धर्म है। हमारे और आपके जीवन में भी कई बार ऐसी परिस्तिथियाँ आती हैं जब हमें किसी पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है। ऐसे में ये तो समझने वाले पर निर्भर करता है की वो कितनी बात समझता है और कितना उसका पालन करता है। श्री कृष्ण तो अपनी ओर से पूरा प्रयत्न कर रहे हैं पर अर्जुन की दुविधा दूर न हो सकी क्योंकि उसने अपनी एक धरना बना ली है और वो उसे ही श्रेष्ठ मानता है। उसका कहना था की स्थिर बुद्धि होने के लिए यदि ज्ञान ही पर्याप्त है तो ‘कर्म ‘ क्यों ? श्री कृष्ण स्वयं कह रहे हैं की ‘ज्ञान ‘से ही सीधे सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ,अब यदि
वह उनकी बात मान कर ‘कर्म ‘ करता है तो उसे फिर अपने द्वारा किये गए कर्मों का भी फल भोगना पड़ेगा क्योंकि वह अपने ही पुज्य्नीय
परिजनों का संहार कर पाप का भागी जो बन जायेगा। अर्जुन पूर्णतया मोक्ष चाहता है और श्री कृष्ण उसे ‘कर्म ‘करने को कह रहे हैं। इस श्लोक में अर्जुन को दो नामों से संम्बोधित किया है। ऐसा अधिकतर देखा जाता है की यदि किसी से कोई काम करवाना हो तो हम बात को मधुर बनाने
और अनुरोध जताने के लिए सामने वाले को अपनीयता भरे संम्बोधन
से बुलाते हैं या फिर उसके सामने अपना मत रखते हैं। ऐसा कोई भी कर सकता है छोटे बड़ों के साथ या बड़े छोटों के साथ , मित्र मित्र के साथ या फिर मां और संतान के बीच , मनुहार की परम्परा सदा से ही बहुत मधुर रही है। अर्जुन भी यही प्रयत्न कर रहा था। इस महा काव्य को
लिखते समय महर्षि वेद व्यास जी ने भी इस बात ध्यान रखा की दोनों मित्रों के बीच चल रही वार्ता को मित्रता के साथ साथ एक मनोवैज्ञानिक
प्रयोग की तरह भी प्रस्तुत किया जाये। इस लिए पल भर को वो ज्ञान
और कर्म का विषय छोड़ मित्र भाव से जुड़ गए। ‘गीता ‘ को समझना बहुत सरल है , सहज है , कयोंकि यह हमारे जीवन के बहुत करीब है
और यदि हम इन विचारों से जुड़ जाते हैं तो हम गीता के बहुत करीब हैं।
अर्जुन कह रहा था कि यदि वह युद्ध का और युद्ध
भूमि का त्याग कर देता है तो यह एक श्रेष्ठ कार्य होगा पर श्री कृष्ण बार बार उसे युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे हैं -क्यों ? श्री कृष्ण ज्ञान के साथ साथ उसे कर्म का भी उपदेश दे रहे थे ताकि अर्जुन के मन में उठ रहे संशय दूर हो जाएँ ,वह कर्तव्य के महत्व को समझे ,युद्ध का आवाहन करने के बाद वह परिस्तिथियों से पलायन नहीं कर सकता ,यह किसी भी वीर योद्धा को शोभा नहीं देता। स्वामी चिन्मयनन्द जी लिखा है की —–The Pandavas were convinced of the moral purity , the spritual worth and the devine glory of their standpoint in the imminent test of strength.But unfortunately ,Arjuna could not sink his egoism ,and see himself totally identified with the army championing the cause of the good .”
अर्जुन का श्री कृष्ण से सीधा सवाल था की जब वे जानते हैं
‘ज्ञान ‘ से ‘मोक्ष ‘ की प्राप्ति हो जाएगी तो फिर वे उसे कर्म करने को क्यों कह रहे हैं। यहाँ हमें एक बात स्मरण रखनी होगी की अर्जुन पराजय के भय से पलायन नहीं करना चाहता था , अपितु वह अपनी योग्यता को ले कर पूर्ण रूप से आश्वस्त था ,और जानता था की विपक्ष में खड़े सभी वीरों का अंत निश्चित है , जो उसके अपने पुज्य्नीय परिजन हैं। महाभारत का युद्ध एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे भारत को विचलित कर दिया था सभी अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करने को अधीर थे। सभी जानते थे की यह एक निर्णायक युद्ध था और सभी अपनी विजय को ले कर आश्वस्त भी थे। क्यों की सब एक से बड़ कर एक कुशल सैनिक थे।
हम किसी भी कार्य में तब तक सफलता नहीं पा सकते जब तक हम उसमें अपना शत प्रतिशत योगदान नहीं देते , पर फिर भी सफलता सब को नहीं मिलती। अपना सर्वस्व हम तभी दे सकते हैं जब हम फल की चिंता त्याग कर मात्र कर्तव्य की ओर ध्यान दें। अर्जुन का ध्यान विचलित हो रहा था मोहग्रस्त हो रहा था और श्री कृष्ण जानते थे की ये पांडवों के हित में उचित नहीं था।
श्लोक संख्या – 2 ,अध्याय -3 ,
भावार्थ –(तुम अपने ) मिले हुए – से (संदिग्ध ) वचनों से मेरी बुद्धि को
मोहित सा कर रहे हो। वह एक बात निश्चित कर के बताओ ,जिससे मैं
कल्याण को प्राप्त कर सकूँ।
यहाँ पर अर्जुन बिलकुल एक हठी बालक से जान पड़ते हैं। वीर अर्जुन ने यह स्वीकार कर लिया की श्री कृष्ण के वचन उसे भ्रमित कर रहे हैं। चर्चा सदा दो मत भेदों को ले कर ही होती है , दूसरी अवस्था में तो बात एक ने कही दूजे ने मान ली वाली स्तिथि ही होती है। चर्चा जब किसी गूढ़ विषय पर की जा रही हो तो आपसी
मत -भेद होना एक आम बात है और यह सम्भावना तब और भी बड़
जाती है जब दोनों ही अपना मत सही मानते हों। पर यदि कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपना पथ प्रदर्शक मान कर चर्चा करे तो फिर
दूसरे व्यक्ति द्वारा दिखाई जाने वाली राह पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। कभी कभी ऐसा भी होता है की पहला व्यक्ति दूसरे व्यक्ति द्वारा समझाई जा रही बात को स्वीकार करता जाता है , सही भी मानता है पर उस बात में से ही कोई छोर पकड़ कर अपने पक्ष को सही सिद्ध करने में लग जाता है और चाहता है की सामने वाला भी उसकी बात सही माने और प्रस्सन भी हो । हम सब ऐसा ही करते हैं और अर्जुन ने भी यही किया। ऐसे क्षण हमारे जीवन में निरंतर आते रहते हैं जब हम किसी दूसरे के पक्ष में
अपना मत देने लगते है। आज हम कुछ मान भी लेते हैं और समझ भी लेते हैं मन को दृढ़ भी कर लेते हैं पर कुछ दिन के बाद जब कुछ नया
घटित होता है तो वह मन की सारी दृढ़ता को तहस नहस कर देता है। यहाँ युद्ध भूमि में भी यही हुआ कृष्ण कहते रहे और अर्जुन सुनता रहा ,लगा की वो समझ भी रहा है ,पर अर्जुन ने फिर से अपने ही विचारों को ही सही सिद्ध करने का प्रयास किया और श्री कृष्ण से भी यही अपेक्षा की कि वे भी उससे सहमत हों। अर्जुन को श्री कृष्ण की बातें मायावी लगती हैं और उसे ऐसा लग रहा है कि वह अपने मित्र की बातों के जाल में फंसता चला जा रहा है। इस लिए वह अनुरोध करता है की उसे वही करने को कहा जाये जिससे न तो वह पाप का भागी बने और न ही उसे नरक का दुःख भोगना पड़े।
जब रूढ़ियों को बहुत अधिक महत्व दिया जाने लगता है तो हम अपनी
विचार शक्ति का त्याग कर देते हैं ,जब की नई सोच और परिवर्तन को सदा से प्रगतिशील माना जाता रहा है।