हम सब की हजारों समस्यांए हैं एक से बढ़ एक ,एक सुलझती है तो दूसरी आ खड़ी होती है ,पल भर को हम थम जाते हैं और फिर सोचते हैं की ये समस्या आई कहाँ से ,क्या सभी इस कारन पीड़ित हैं ,यदि नहीं तो मैं ही इस विपदा में कैसे घिर गया ,सारी दुनिया खुश दिखाई दे रही है ——तो में क्यों आपदांओ में फंसा हूँ ,यहीं पर विचार करने की आवश्यकता है ,सबसे पहले तो दूसरों की तरफ देख कर तरह तरह की हींन भावनाएं अपने अंदर ना पनपने दें , अपने कर्मों का और अपनी परसतिथिंयो का विश्लेषण करे ,गहराई से सोचने पर समझने पर आप स्वयं ही अपने दुःख का कारन भी समझ लेंगे और उसके निवारण का मार्ग भी ,क्न्योकि दोनों ही हमारे मन की उपज हैं —-अधिकतर यही होता है की अपनी भावनाओं मैं बह कर हम कुछ अधिक ही सोच लेते हैं और दुखी होते रहते हैं। हाँ कुछ प्राकृतिक विपदाएँ हैं जो सब के लिए दुःख का कारण होती हैं और सब मिलकर उसका समाधान भी ढूंढ लेते हैं। ‘अहंकार से उपजी,द्वेष से उभरी ,अपने को ऊँचा दिखाने की होड़ में उभरी ऐसी भावनाएं पहले तो मन में राग द्वेष पैदा करती है फिर अनुचित राह पर ले जाती है। ध्यान से सोचें तो हम समझेंगे की ये तो हमारी ही चुनी राह थी –तो फिर यह भी निश्चित मान लें की इसका निवारण भी हमारे मन में है ,इसको यदि हम समझने में सफल होते हैं ये ज्ञान ही माना जायेगा ,समय रहते हमारी चेतना जागृत हो गई ऐसा हम कह सकते हैं।
swami Dyanand ji has written in Bhagvat Geeta home study —-
“The statement that The intire Veda and Vedanta is a rsvealed knowledge ” is not an immature statement ,as we will come to understand .THE intire Veda is a body of knowledge that was not authored by any person ,it was revealed
to the risis directly ,that is why the Risis are not the authors of Vedas .They the seers of the mantras –मंत्र द्रष्टा थे मंत्र कर्ता नहीं थे therefore the Vedas are considered to be aapurusya
(अपुरुष्य ) not born of human intellect .They considered to be pramana ,because they reveal some thing that is not available to us through perception or inference, be it the knowledge of various ends and means in the karm kanda or the knowledge of the Vedas .It talks about you.
मनुष्य में विचार हैं सोचने समझने की एक विलक्षण शक्ति है ,जो अन्य प्रजातिंयो में नहीं है। ऐसी भी मान्यता है की जो लोग अपने किसी निजी देवी – देवता को नहीं मानते वे नास्तिक हैं पर यही लोग वेदों को प्रामाणिक मानते हैं और इसमें विश्वास भी रखते हैं जैसे महात्मा बुध और महावीर आदि। तो क्या यही कारण था की आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मूर्ति पूजा का विरोध कर वैदिक धर्म का प्रचार किया।
अंत में यही कहा जा सकता है जब हम मोक्ष की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो रहे हों तो हम जो भी मार्ग चुने ,वो चाहे प्रवृत्तिमार्ग हो या फिर निवृत्तिमार्ग –दोनों को गहराई से समझना आवश्यक है। यह विषय गंभीर और गूढ़ अवश्य है पर असाध्य नहीं। अनगिनत महापुरुषों ने इस विषय पर अपने विचारों को लेखनीबद्ध किया है। यह कहना अनुचित न होगा की मोक्ष और ज्ञान पाने का आधार गीता को मान कर
जो भी चर्चायें बुद्धिजीवी समाज में हुई हैं उसको मान कर चलें तो “गीता “को हर युग का मार्ग दर्शक कह सकते हैं।