कायरता के दोष से जिसका स्वाभाव ढक गया है और धर्म के विषय में जिसका चित्त मोहग्रस्त हो गया है ,वह मैं तुमसे पूछता हूँ। जो निश्चित कल्याणकर बात हो वो मुझे बताओ मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। अपनी शरण में आये हुए मुझको तुम उपदेश दो।
इस श्लोक में यह स्टष्ट हो जाता है की अर्जुन ने अपने को पूर्णरूप से कृष्ण को समर्पित कर दिया है क्योंकि यह स्पष्ट था की वो अपने गुरुजनों के समक्ष शस्त्र न उठा सकेगा तो वद्ध का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उसके मस्तिष्क में ऐसा लगता है मानों असमंजस की धुंध छा गई है ,कुछ भी स्पष्ट नहीं दिख रहा। वो नहीं पहचान पा की यहाँ धर्म कहाँ है अधर्म कहाँ है। वो नहीं जानता की इस समय शत्रु के साथ युद्ध करके विजय उचित है या अपने मोह में पड़ कर युद्ध भूमि से पलायन कर लेना उचित होगा। ऐसे में अर्जुन चाहता है की कोई उसे इस दुविधा से बाहर निकाले। इस लिए वह शस्त्र छोड़ कर स्वयं को कृष्ण की शरण में समर्पित कर देता है की बस अब एक वही हैं जो इस दुविधा (संकट की नहीं ) की घड़ी से उबार सकते हैं। “मैं तेरा दास तेरी शरण में आ गिरा हूँ ,हे प्रभु मेरा पथ प्रदर्शन करो। “
स्वामी चिन्मयनन्द जी ने लिखा है —-
“Hinduism insist on the Manav Dharma ,meaning it insists that man should live true to their own essential nature as godly and divine and therefore ,all efforts in life should be directed towards
Maintaining themselves in the dignity of the soul and not plod on through the life like helpless animals.”
सबसे अच्छी बात जो इस श्लोक से उभर कर सामने आ रही है वो है भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग ” गुरु शिष्य परंपरा “.जीवन में गुरु धारण करना अर्थात अपने जीवन में उठ रही शंकाओं का समाधान करने का प्रथम सोपान .फिर जब हम गुरु धारण कर लेते हैं तो हमें अपने मन संकल्प कर लेना होगा की जिस महान आत्मा की शरण में हमने अपने आप को समर्पित किया है हमें उसकी बताई राह पर ही चलना है। कुरुक्षेत्र में शिष्य दुविधा में है गुरु शांत चित्त है ,शिष्य का ह्रदय असमंजस में है ,गुरु के बताये समाधान सार गर्भित हैं ,शिष्य के विचारों अन्धकार यदि बढ़ता जाता है तो गुरु के विचार उसमें उजाले की किरणों की तरह फैलते जाते हैं। अर्जुन और कृष्ण दोनों संबंधी होने के साथ साथ बहुत अच्छे मित्र भी थे। पर स्तिथि यहाँ बहुत गंभीर हो चुकी थी। अब मित्र के मीठे वचन अर्जुन को धैर्य नहीं बंधा सकते थे। अर्जुन को आवश्यकता थी एक गुरु की ,मित्र की संतावना की नहीं ,इसलिए उसने अपने आप को एक दास की तरह ,एक भटके हुए शिष्य की तरह श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया और उचित राह दिखने की प्रार्थना की। आज हम देखते हैं की जब भी हम किसी को अपना शुभचिंतक मानते हैं पर फिर भी उसके परामर्श को मानते समय अहंकार बीच में आ जाता है। या तो हमें उस पर विश्ववास नहीं होता या फिर हम अपने को अधिक समझदार मानते है ,जब की सच तो यह है की यदि आज हम किसी से परामर्श लेते हैं तो हम उसके मुहं से वही सुनना चाहते हैं जो हमारे विचारों को ही सही माने।तब अर्जुन ने भी यही किया और आज हम भी यही कर रहे हैं। हालात अलग होने के कारण अर्जुन की बात कहीं न कहीं उचित लग सकती है ,पर अपनी सोच को हम हमेशा से सही मानते आ रहे हैं। इसीलिए गुरु परम्परा का विकास हुआ था। ज्ञान गुरु से ही मिल सकता है यह सामाजिक सोच हजारों तक चलती रही और आज भी देखने को मिल जाती है।
समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए जो व्यवस्था की गई उसे दो भागों में बांटा गया। एक भाग जिसमें देश की आंतरिक देख भाल का कार्य था उसेमें किसी वयक्ति विशेष को राजा बना कर देश के संचालन का भार उसे सौंप दिया जाता था ।जैसे आर्थिक वय्वस्था ,या प्रजा की सुरक्षा या फिर सीमा की सुरक्षा हो सब काम राजा की आज्ञा के अनुसार और राजा के कर्मचारियों द्वारा किये जाते थे। राजा का जीवन भौतिक सुखों से भरपूर होता था। राजा आज्ञा की उलंघन करने वाले दंड के भागी होते थे। यह एक संक्षिप्त सी परिभाषा है। दूसरी ओर गुरु का पद था जो उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर प्राप्त होता था। गुरु कोई भी हों उनका स्थान राज्य में राजा से ऊँचा होता था। वे जंगलों में रह कर शोध कार्य करते थे और देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियम आदि बनाते थे। युवा पीढ़ी की शिक्षा का भार गुरुओं पर ही था। वे विभिन्न विषयों की शिक्षा दे स्नातक तैयार करते थे जो जो अपनी योग्यता के आधार पर राज काज में राजा के दरबार में नियुक्त किये जाते थे। एक बात विशेष ध्यान देना योग्य है की गुरुओं का जीवन बहुत ही साधारण था। वे भोग विलास या भौतिकता के लोभ से बहुत दूर रहते थे। इनके बनाये नियम ही धर्म का आधार थे और इन नियमों का उलंघन तो राजा भी नहीं कर सकता था। यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है की शांत चित्त रह कर ही किसी नई रचना या नियम को सकारात्मक रूप से लागु किया जा सकता है। इस लिए एक राजा और गुरु की जीवन शैली में सदा से इतना विरोधाभास रहा है।
इस समय जब श्री को गुरु मान कर अर्जुन उसे उचित राह दिखने की प्रार्थना कर रहा है तो हम यह प्रश्न उठा सकते हैं एक राजकुमार गुरु कैसे हुआ। श्री कृष्ण के लिए यह संभव था। वे एक राज कुमार थे पर उन्हों ने कभी शासक के पद पर काम नहीं किया। उन्हों ने जीवन भर भारत भूमि पर धर्म और मानवता को प्रोत्साहन दिया। जब जब भी भारत भू खंड पर अधर्म का आगाज हुआ उन्हों ने आगे बढ़ कर उसे सुधारने का प्रयास किया। वे उच्च कोटि के विद्द्वान थे और प्रकृति प्रेमी भी थे। महलों में निवास करते हुए भी उनका
जीवन एक योगी की तरह था और हमारे धर्म ग्रन्थ उन्हें योगी कहते भी हैं। वे सदा शांत चित्त रहते थे ,इसीलिए अर्जुन ने सेना को न मांग कर कृष्ण को अपना सारथि बनाने की प्रार्थना की। सारथि अर्थात सही राह पर बढ़ने वाला।श्री कृष्ण एक ऐसे महान पुरुष के रूप में अवतरित हुए जिनमे राजा और योगी दिनी के ही गुण विधमान थे वे साधू स्वाभाव दृढ़ निश्चय वाले माने जाते हैं। ये बहस तो न समाप्त होने वाला विषय है। एक सच्चे मित्र भी थे इसीलिए यहाँ अर्जुन ने अपने मित्र को अपना गुरु मान उनसे पथप्रदर्शन करने की प्रार्थना की।

