श्लोक — 5 , अध्याय –3
भावार्थ — कोई भी ( मनुष्य ) क्षण भर भी बिना कर्म किये नहीं रहता
क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा परवश हुए सभी प्राणी कर्म करने
में लगाए जाते हैं।
जब किसी वस्तु का निर्माण किया जाता है तो या तो हम
उसे अपने निजी सुख के लिए उपयोग में लाते हैं या उस वास्तु को किसी ऊर्जा से संचालित कर अपने रोजमर्रा के कामों को सहज बनाते हैं। परन्तु जब कोई जीवधारी जन्म लेता है तो परिस्थिति कुछ और ही होती है ,वह स्वचालित होता है , उसकी नियम बद्धः जीवनचर्या होती है। एक बात सभी जीवधारियों में एक समान है –उदर पोषण और प्रजनन। मानव जाति में बुद्धि का विकास बाकि अन्य सभी जीवधारियों से सर्वथा
भिन्न है ,इसलिए विचार , बुद्धि और कर्मों का स्तर भी भिन्न है।
मानव जीवन में जो घटित होता है वह इसी आधार पर होता है और जो इसका प्रभाव होता है वह मनुष्यों का भविष्य निर्धारित करता है।
जन्म – मृत्यु और देह में समयानुसार हो रहे परिवर्तन करीब करीब एक से ही होते हैं ,हाँ जीवधारी अलग अलग रूप में जन्म लेते ,विचरते और काल ग्रस्त होते जाते हैं। प्रस्तुत श्लोक का अर्थ भी कुछ ऐसा ही है
कि कोई भी हो वह निरंतर अपने जन्म रूप के अनुसार काम किये बिना रह नहीं सकता। हर किसी के लिए यह भी संभव नहीं कि वो हर
तरह का काम कर सके या कर्म कर सके। ‘ कर्म ‘ परिस्थितियां निर्धारित करती हैं और मानव जाति का कार्यक्षेत्र बहुत ही व्यापक है।
आज की तारीख में तो मानव ‘आकाश गंगा ‘ की ओर बड़ रहा है। इसलिए हमारे कर्म भी व्यापक हैं और ज्ञान की तो कोई सीमा ही नहीं है । आज हम जिस ज्ञान को ले कर आगे बड़ रहे हैं उसकी आधार शिला तो हजारों वर्ष पूर्व रखी जा चुकी है। सभी अपनी अपनी प्रकृति के वशीभूत हो कर्म करते वा ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं ,करते हैं और करते रहेंगे। अर्जुन के लिए इस बात को समझना बहुत आवश्यक है –उसका कर्म अपनी नियति के अनुसार युद्ध करना है। श्री कृष्ण ने जब यह बात समझाई की
मोक्ष की प्राप्ति हमें अहंकार ,मोह ,माया आदि का त्याग करने मात्र से मिल जाती है तो अर्जुन ने कहा जब मोक्ष की यह राह हमारे लिए उपलब्ध है तो फिर नर संहार करने की क्या आवश्यकता है। गुरु जनो का वध कर के वह नरक का भागी बन जायेगा , इसलिए युद्ध का त्याग करना ही उसे उचित जान पड़ता है। पर श्री कृष्ण का कहना है की बात यहाँ निस्वार्थ भाव से कर्म करने की है कर्म से छुटकारा पाने की नहीं और निस्वार्थ भाव से किये गए कर्म तभी संभव हैं जब मनुष्य को उचित और अनुचित का ज्ञान हो , क्योंकि यही ज्ञान उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। इससे मनुष्य में कर्तव्य की भावना दृढ़ होती है और मोह एवं अहंकार के बंधन हट जाते हैं ,लोभ और मोह का निवारण हो जाता है। हमें बस अपने कर्तव्य का पालन करना है ,बाकि प्रभु इच्छा।
संन्यास ले कर ‘मोक्ष ‘ लेने से अच्छा है की हम अपने जीवन का अवलोकन करें ,उसके अच्छे बुरे कर्मों को समझें ,हमें स्वयं ही पता चल
जायेगा की हम अपने जीवन को किस ढंग से जी रहे हैं। हमारे विचारों
को हमारे गुण अर्थात –रजो गुण , तपो गुण और सत्वगुण निर्धारित
करते हैं और तदनुसार हम कर्म करते हैं पर अपनी बुद्धि और ज्ञान द्वारा हम परिस्थितियों के अनुसार अपने कार्य को निर्धारित कर सकते हैं।
सन्यास लेने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आपको सब तरह के कर्मों से मुक्ति मिल गई –ऐसे में तो आप बस एक कार्य क्षेत्र से दूसरे कार्य क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं और कुछ नहीं। विचार शक्ति का प्रबल और श्रेष्ठ
होना बहुत आवश्यक है तभी आप अपने जीवन में सफलता पा सकेंगे।
श्री कृष्ण एक आदर्श पुरुष थे उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ सीखा
जाना और अनुभव किया ,प्रकृति से शांत होने के कारण वे एक आदर्श गुरु भी माने जाते हैं – इसलिए उन्होंने अर्जुन को दुर्बलता का त्याग
कर स्थिर मन से ‘ कर्म ‘ करने को कहा।
श्लोक संख्या — 6 , अध्याय -3 ,
भावार्थ –जो ( मनुष्य ) कर्मेन्द्रियों ( दस कर्मेन्द्रियाँ )को ( ऊपर से )
रोक कर मन से इन्द्रियों के विषय का चिंतन रहता है ,वह मूढ़ बुद्धिवाला
( मनुष्य ) मिथ्या चारी कहलाता है।
इस श्लोक का भाव देखें तो लगता है कि हजारों वर्षों से मानव प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन आया ही नहीं है ,न सोच बदली , न अधीरता कम हुई और न ही स्वार्थ छोड़ा। सत्ता का नशा तब भी था
आज भी है और यह नशा मानव पर मानव की जीत का है। इसी के चलते कुरुक्षेत्र में मानव जाति का महाविनाश हुआ। इससे पहले भी कई बार
किसी व्यक्ति विशेष ने मानव जाति का भारी संख्या में विनाश किया और इसके बाद में भी ऐसा होता चला आ रहा है। जब कभी ऐसी
परिस्थितियाँ आयीं या आएंगी तो उसका निवारण करने का एक मात्र उपाय युद्ध ही है। धरती पर मानव जाति को सभ्यता और संस्कृति का वर्चस्व बनाये रखने के लिए मानव जाति का ही बलिदान देना पड़ता है।
भारत भूमि पर बढ़ते अधर्म को रोकने के लिए श्री कृष्ण ने भी अर्जुन
से यही कहा ” उठो पार्थ युद्ध करो ” | जब किसी समस्या का कोई समाधान नहीं मिलता तब युद्ध को ही एक मात्र विकल्प मान लिया जाता है। इसमें लाभ हानि का माप दंड क्या माना जाये — गीता के अनुसार चलें तो हमें कर्मों पर ध्यान होगा और यदि फिर भी हालात
न सुधरें तो फल की चिंता किये बिना हमें अपने स्वधर्म के अनुसार
कर्तव्यों का पालन करना होगा। पलायन किसी भी कठिनाई का हल नहीं माना जा सकता।
स्वामी चिन्मयानंद जी ने कहा है — ” To sit back physically is not the way to reach anywhere ,much less the final state of perfection . If this physical retirement is not efficiently accompanied by an equal amount of mental
and intellectual withdrawal from the sensuous fields , the spiritual future of such a misinformed seekar is surely very bleak and dreary .”
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है –” कर्मयोग का तत्व समझने
के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि कर्तव्य क्या है। यदि मुझे कोई काम करना है तो पहले मुझे यह जान लेना चाहिए की वह मेरा कर्तव्य
है , तभी हम उस कार्य को कर सकते हैं । सार्वभौमिक भावसूचक शब्दों की तरह ‘कर्तव्य ‘ शब्द की भी ठीक ठीक व्याख्या करना दुरूह है। कर्तव्य के संबंध में सर्वत्र साधारण धारणा यही देखी जाती है की सत्पुरुष अपने विवेक के आदेशानुसार कर्म किया करते हैं। परन्तु वह क्या है ,जिससे एक कर्म ‘कर्तव्य ‘ बन जाता है। आंतरिक दृष्टिकोण से कर्तव्य की व्याख्या हो सकती है। ” कहने का तात्पर्य है की हमारी विवेक बुद्धि हमें सक्षम बना सकती है। संसार में रह कर मनुष्य को संसारी बनना पड़ता है। समाज के साथ व्यवहार बनाने में ही उनत्ति की सम्भवनाएँ बनती हैं। अपने आप को पहचाने – कहें या ‘ आत्मज्ञान ‘ कहें यह सांसारिक सुख – दुःख और बाधाओं को झेल कर ही जाना जा सकता है। निष्कर्म रहने से मुक्ति नहीं मिलती या यह भी सोचना होगा की मुक्ति तो चाहिए पर किस से। हम और आप इसी धरती पर रहते हैं तो आवश्यक है की इस संसार को जाने ,कर्म को समझें ,ज्ञान प्राप्त करें और अपने अनुभवों द्वारा ‘ आत्म बोध ‘ करें। जो ऐसा नहीं करते वे अधूरा और अहंकारी जीवन जीते हैं और अधिकतर संकटों की चपेट में आ जाते हैं। एक साधारण सा जीवन जीने वाले व्यक्ति के लिए यह कठिन हो जाता है कि वह जीवन के इन गूढ़ रहस्यों को जान सके। पीढ़ी दर पीढ़ी वह अपने जीवन को एक ही तरीके से जीता चला आ रहा है। उसके लिए तो सब कुछ
विधिवत चलता रहे – यह ही स्वर्ग है और यदि कभी किसी ने किसी नई सोच को जन्म दिया या कोई नई राह पकड़ी ,तो वह अधर्मी या पाप का भागी है , ऐसा मान लिया जाता है। आवश्यक है की हम अपनी कर्मेन्द्रियों से ऊपर उठ कर सोचें और आत्म चिंतन करें ,उचित अनुचित का भेद पहचाने , इन्द्रियों को वश में रखने का यही लाभ है की हम बहाव में नहीं बहते। डर ,भय या मोह के वश पराजित नहीं होते। रूढ़ियों का पालन करना कोई अनुचित बात नहीं है दूसरे शब्दों में इसे ही धर्म कहते हैं पर हम जो भी करें हमें उसका अर्थ ,भाव या फिर ये ऐसा करना है तो
इसके पीछे का सत्य क्या है ये जान लेना बहुत आवश्यक है। क्योंकि कर्म करना प्रत्येक जीवधारी का ईश्वर प्रदत स्वभाव है।