कृष्ण के शब्दों से अर्जुन की तन्द्रा भंग हुई पर मन में उठे संशय दूर नहीं हुए —–बहुत ही मासूम सा उत्तर अर्जुन ने कृष्ण को दिया की वो सब तो ठीक है, पर मैं युद्ध में भीष्म पितामह और गुरु द्रोण के वध के लिए धनुष कैसे उठाऊं। ऐसा लगता है मानो अर्जुन कहना चाह रहा है की कृष्ण उसकी बात को उसकी दुविधा को समझ नहीं पा रहे हैं।
वो वीर ,वो सक्षम है ,वो कर्तव्य का पालन करने वाला है पर इस समय उसकी समस्या युद्ध करने में नहीं अपितु उसकी समस्या यह है की वह अपने गुरु द्रोण और पितामह भीष्म पर वार नहीं कर सकेगा ,वे उसके पूजनीय हैं। इस तरह अर्जुन ने अपनी बात को एक बार फिर समझाने का प्रयास किया। अभी तक अपने जीवन में उसने राक्षसों का अत्याचारियों का ही संहार किया था अपने परिजनों और पुज्य्नीयों का नहीं। उसको शस्त्र विद्या सिखाने वाले गुरु द्रोण हैं ,और भीष्म पितामह तो उसके जीवन का आदर्श हैं। इन विचारों ने अर्जुन को कायर बना दिया इसलिए उसने अपनी समस्या और दुविधा के समाधान के लिए कृष्ण से दुबारा प्रश्न किया यहाँ पर एक बात ध्यान देने की है
,कौरवों की सारी सेना का शक्ति बिंदु भीष्म और द्रोण हैं जिनकी सुरक्षा के आदेश दुर्योधन अपनी सेना को बार बार देता है। दूसरी ओर पांडवों की सारी सेना का शक्ति बिंदु अर्जुन और कृष्ण हैं। अर्जुन जिसके हाथ से शस्त्र छूट गए हैं और वो व्याकुल है और कृष्ण जो एक उच्च कोटि के मनोवैज्ञानिक एवं नीतिपरायण योग्य पुरुष हैं। कौरवों के लिए युद्ध भौतिकता के लिए और अहंकार के लिए है तो पांडवों के लिए धर्म की संस्थापना के लिए। अब यह भी निश्चित था की युद्ध के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है कयोंकि युद्ध को रोकने के सारे विकल्प विफल हो चुके थे। कृष्ण की ऐसे में अर्जुन का दुविधा में पड़ जाना -युद्ध से इंकार करना ,मोह में पड़ जाना उसे पथ से भटका देगा।
अर्जुन भी इस बात से अनजान नहीं है की अब युद्ध टालना संभव नहीं और अर्जुन यह भी जानता है की यदि युद्ध हुआ तो भीष्मपितामह और गुरु द्रोण उसके हाथों बच नहीं सकेंगे। यही उसकी व्यथा है की वह उन पर वार कैसे करे। ऐसे में यदि कोई उसे सही राह दिखा सकता है तो वो हैं उसके मित्र श्री कृष्ण। घर में रह रहे बुजुर्ग हों या फिर परिवार समाज या गांव
के वयोवृद्ध लोग हों उन सब के प्रति आदर की भावना उनके अनुभवों का सम्मान आदि बातें बच्चों के बालपन से ही उनके संस्कारों में डाल दी जाती हैं और कब यह व्यवहार, यह संस्कार जीवन का एक अभिन्न अंग बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। कालांतर से चला आ यह व्यवहार भारतीय सभ्यता का और भारतीय मूल्यों का आधार माना जाता है। इन मूल्यों की रक्षा का भार तब अधिकतर ग्राम
पंचयतों के पास रहता था ,हो सकता है ऐसा महाभारत काल में न हुआ हो पर कालांतर में था और आज भी इस व्यवस्था का लोग आदर करते हैं। यहाँ पर एक ही परिवार के दो भाग हो गए हैं जिसमें परिवार के कुछ सदस्य आवश्यकता से अधिक महत्वकांक्षी हो
गए हैं और स्वार्थ के आगे इतने अंधे हो चुके हैं की छोटे बड़े का भेद ही भूल बैठे हैं इतना ही नहीं परिवार के बुजुर्ग और अनुभवी सदस्यों की पूर्णतः अवहेलना भी करते हैं फलस्वरूप कुंठित गुरुजन मौन हो बैठे हैं अपने अधिकारों का पालन करने में अपने को असहाय पाते हैं। यदि पहले ही अपने अधिकारों का प्रोयग कर महत्वकांक्षाओं को इतना आगे बढ़ने से रोक दिया होता तो क्या महाभारत होता। ऐसा नहीं हुआ –कयोंकि परिवार के कुछ सदस्यों ने यदि अंकुश लगाना चाहा भी तो दूसरी ओर कुछ ने इसे बढ़ावा दिया। अनुचित व्यवहार जरा सा भी बढ़ावा मिल जाये तो अपनी सीमा पार कर कहर ढहा देता
है। और इस तरह अधरम बढ़ता ही गया ,महत्वकांक्षायें विकराल रूप धारण करती रही और युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। दूसरी ओर इसी परिवार के कुछ सदस्य न तो गुरुजनों की अवहेलना कर रहे थे और न ही अधर्म या छल का प्रयोग कर अपने अधिकारों को पाने की चेष्टा कर रहे थे। इन्ही संस्कारों के धनी अर्जुन अपने पूज्यजनों पर वार करने की कल्पना मात्र से निढाल हुए जा रहे थे। ऐसे में मेरे मन में एक प्रश्न उठता है की ये गुरुजन और अन्य माननीय वयक्ति इतने असहाय क्यों थे. शायद तब जो परिस्तिथियाँ थी उनको देख कर कहा जा सकता है की उन सब माननीय सदस्यों का स्थान एक वेतन पाने वाले सैनिक या सेना नायक से अधिक कुछ न था। भीष्म पिता तो एक महान योगी भी रहे होंगे। युद्ध भूमि में लहूलुहान अवस्था में पड़े रहे ,शरीर का त्याग नहीं किया। युधिष्ठर को राजा और राज काज के नियमों व कर्तव्यों का उपदेश देते रहे वो भी उस समय जब उनकी सांसें उखड रही थीं ,अंतिम समय में जल भी अर्जुन के हाथ से ग्रहण किया दुर्योधन के हाथ से नहीं ,उन्होंने तब तक अपने प्राणो का त्याग नहीं किया जब तक उनको पांडवों की विजय का समाचार नहीं मिला ,फिर यही बात मन में आती है जब कृष्ण धर्म का साथ दे रहे थे तो भीष्म पितामह ने ऐसा कयों नहीं किया। यदि वे राजसिंहासन से बंधे थे तो भी का पांडवों साथ दे कर वे राजसिंहासन की रक्षा ही करते जो धर्म की रक्षा ही मानी जाती। उन्हें तो कोई लोभ भी नहीं था ,फिर भी उन्होंने धर्म के पक्ष को नहीं चुना। पारिवारिक हालत उस काल के हों या आज के कोई अंतर नहीं आया। लगता है आज भी हर घर में महाभारत युद्ध चल रहा है ,कैसी छाप छोड़ गया है महाभारत। युग बदल गए, बस मन्त्र से यंत्र का फेर है। इस श्लोक में अर्जुन का कहना है की वो अपने गुरुजनों के साथ युद्ध कैसे कर सकता है ,उसके संस्कार उसे ऐसा करने से रोक रहें हैं। बाकि सब के साथ वो युद्ध करने को उध्दत है लेकिन वो भीष्म और द्रोण के वध के लिए शस्त्र नहीं उठा सकता। इसलिए वो कातर दृष्टि से कृष्ण की और देख अपनी समस्या के समाधान के लिए प्रार्थना कर रहा है। जब की कौरव पक्ष में सज्ज खड़े भीष्म शंख नाद कर युद्ध का आगाज कर चुके हैं। अर्जुन की एक दुविधा यह भी थी की धर्म के लिए अपने कुल का नाश कर क्या उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाएगी ,ऐसे में तो युद्ध के लिए तत्पर होना अर्जुन की दृष्टि में मूर्खता ही मानी जाएगी। उसे अपने जीवनकाल में युद्ध जीत कर भी कोई ख़ुशी न मिल सकेगी। कयोंकी जीवन भर उसे यह दुःख कटोचता रहेगा की अपने स्वार्थ के लिए उसने अपनों का ही संहार कर दिया। यहाँ न तो किसी दृश्य फल की सम्भावना है और न ही अदृश्य फल की। अर्जुन को युद्ध से कोई भय न था उसे तो अपने गुरुजनों से युद्ध कर उनका संहार उचित नहीं लग रहा था। तो फिर कृष्ण उसकी वेदना को दुविधा को कयों नहीं समझ पा रहे कयों उसे कायर कह रहे हैं। स्वामी चिन्मयनन्दा जी ने भी इस विषय बहुत रोचक बात लिखी है जिसे मैं आप सब के साथ सांझा करना चाहती हूँ —-
“I have discussed this portion with some of the best men of our country and I have found all of them justifying Arjuna “argument .That is to say ,this is a very subtle point to be decided and perhaps ,Vyasa thought that this riddle of the society must be solved with the very principles of Hinduism for the guidance of the Hindu generation .The more we identify ourselves with the little ” I “in us the more will be our problems and confusions in in the life .”
स्वामी दयानन्द जी ने कहा है —-“Arjun was a brave man ,a courageous man and a mature person. A mature person can be sympathetic .A problem arises, however, when there is confusion .Arjun”s confusion was that of a mature person .vedanta cannot be taught to an Immature person .”
सारी समस्या तो यही थी की यहाँ राक्षसों और दुर्जनों का संहार कर विजय नहीं प्राप्त करनी थी यहाँ तो अपने पुज्य्नीय संबंधियों का संहार करना था जो अपने – अपने कर्तव्य या दूसरे शब्दों में कहें तो अपने धर्म की नीतियों के कारण हस्तिनापुर के सिंहासन से बंधे थे।