श्लोक संख्या –66 , अध्ययाय -2
भावार्थ –अयुक्त (अर्थात ना जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले ) व्यक्ति में
(आत्मविषयक ) बुद्धि नहीं होती ; उस आयुक्त व्यक्ति में (आत्मविषयक ) भावना भी नहीं होती ; (आत्मा ) भावना से रहित व्यक्ति को शांति नहीं मिलती और अशांत चित्त व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है।
व्यक्ति का शांत चित रहना यह बात कहने में जितनी आसान है व्यवहार में उतनी ही कठिन। आज हमारे चारों तरफ इतना अधिक विज्ञान का प्रादुर्भाव है की हम सीधा तथ्यों पर चले जाते हैं। जो सिद्ध नहीं हो सका ,जो प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दे सकता उस पर कैसे विशवास किया जा सकता है। दूसरी ओर समाज में कुछ ऐसे घटक हैं जो आम आदमी की सोच एवं भावनाओं को अपने वश में कर लेते हैं और उनसे वही करने को कहते हैं जिनसे उनका निजी स्वार्थ सिद्ध होता हो .लोग भी अपने अंध विशवास के चलते या यह भी कह सकते हैं
की ऐसे लोग अपने विवेक का प्रयोग कतई नहीं करते और दूसरों की
चकाचौंध को सच्चा सोना समझ उसमें डूबते जाते हैं। ये लोग कुछ कुछ रोबोट जैसे होते हैं (यंत्रवत ), कह नहीं सकते की किसको किस रूप में लाभ हुआ पर उनके पथ प्रदर्शक अवश्य सोने के सिहाँसन पर विराजमान हो जाते हैं। यह भौतिकता का जाल है जो भरम के धागे से बना दिया जाता है और साधारण बुद्धि वाला मनुष्य इसमें फंसता चला जाता है —-चूँकि फंस चुका है -इस बात का ज्ञान होने पर भी वह दूसरों को सावधान नहीं करता यह सोच कर की कहीं लोग उसे मुर्ख न समझ
बैठें। यह एक झूठे अहंकार की ,कमजोर मनोस्तिथि की , भौतिक कामनाओं की बिना लगाम वाली दौड़ है ,यह मृग तृष्णा है।
यहाँ पर श्री कृष्ण भी अर्जुन को यही समझाने का प्रयास कर रहे हैं की निःसंदेह यह एक कठिन परिस्तिथि है पर ऐसे समय में भी मनुष्य को अपने विवेक का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इसका एक कारण यह भी है की जब इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं होती तो विवेक भी क्षीण हो जाता है। यहां ‘ आयुक्त ‘ मनुष्य के बारे में कहा जा रहा है जो सदा प्रस्न्नचित्त नहीं है ,कहने का तातपर्य की जो विवेकी मनुष्य होते हैं और धैर्य पूर्वक समस्याओं का निवारण कर सकते हैं ,जिन्हें अपने विवेक से उचितऔर अनुचित को परखने का विशवास होता है वे कठिन परिस्तिथियों में विचलित नहीं होते। वे शांतिपूर्वक प्रसन्न चित्त रह कर समस्या का निवारण करते हैं। उनका निर्णय अधिकतर सही होता है ,
क्योंकि ऐसे व्यक्ति स्वार्थी भी नहीं होते। कई बार ऐसा भी देखा गया है
की कुछ लोग बिना कोई प्रयत्न किये ही हार स्वीकार कर लेते हैं ,
हो सकता है परिस्तिथिवश , या हो सकता है मोह वश। ऐसे में बिना लड़े
हार मान लेना या स्वयं को अयोग्य मान लेना विवेकी मनुष्य का काम नहीं। जब मनुष्य एकाग्रचित्त हो कर अपने को समस्या से दूर (भावनाओं से परे ) पर अपने सामने रख कर उस पर विचार करेगा तो
निश्चित ही फल शुभ और लाभदायक होंगे। इन में स्वार्थ कतई न होगा —
यह मन के सम व्यवहार की और प्रसन्नचित्त रहने की शक्ति है।
स्वंय चिन्मयानंद जी ने कहा है
One who has no philosophical goal of life strive and yearn for, will not know what peace is in mind, and to one who is restless “where is happiness? “
इस श्लोक में बात बहुत ही उचित और साधारण ढंग से कही गई है –भावना से रहित व्यक्ति को शांति नहीं मिलती ,और अशांत व्यक्ति को सुख नहीं मिल सकता और ऐसे में मेरा मानना है की बुद्धि और विवेक भी साथ छोड़ दते हैं। मन से शांत और प्रसन्न रहना और कठिन परिस्तिथियों में मन में उद्वेग को वश में करना ही विवेकी
पुरुष के लक्षण हैं। युद्ध भूमि में अर्जुन का बुद्धि युक्त होना बहुत अनिवार्य है और कृष्ण इसी प्रयत्न में लगे हैं।
श्लोक -67 , अध्याय — 2 ,
भावार्थ — क्योंकि (अपने अपने विषयों में ) विचरने वाली इन्द्रियों में से मन ( किसी भी इंद्रिय ) का अनुसरण करता है , वह ( एक ही इंद्रिय )
इस ( आयुक्त पुरुष ) की बुद्धि को वैसे ही हर लेती है जैसे वाशु जल में चलने वाली नाव को।
श्लोक –68 , अध्याय –2 ,
भावार्थ –इस लिए हे महा बाहो ! जिसकी इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषय से
सब प्रकार वश में की हुई होती हैं -उसी की बुद्धि स्थिर है।
इस श्लोक में एक साधारण आदमी के स्वभाव का विश्लेषण किया गया है। यह हम आज की सामाजिक व्यवहार की रूप रेखा में देखने का प्रयास करते हैं जिससे ऊपर कही गई बात सरलता
से समझी जा सकती है। कहा जाता है की मन बड़े चंचल स्वभाव वाला
होता है और विचारों की गति को तो कोई पकड़ ही नहीं सकता ,उसके साथ चलना तो दूर भाग भी नहीं सकते। एक पल हम अपने पास होते हैं
और दूसरे पल दुनिया घूम आते हैं। पर यदि विचारों में ऐसी इच्छाएँ आनी शुरू हो जाएँ जो भौतिकता से संबंध रखती हैं ,और बार बार यह इच्छाएं अमुक व्यक्ति के सामर्थ्य से अधिक प्रबल होती जाती
हैं तो ये निश्चित ही मन में अशांति पैदा कर देती हैं। तब यही इच्छाएं एक के पूरे होने पर या दो के पूरे होने पर शांत नहीं होती ,एक के बाद एक ये सिलसिला चलता ही रहता है। आँख अपना सुख ढूंढ़ती है ,कान अपना रस ,जिव्हा
अपना स्वाद आदि –और मनुष्य उसे पूरा करने में प्राप्त करने में
जीवन भर लगा रहता है। विज्ञान द्वारा निर्मित जितने भी उपकरण हैं वो
मानव जाति के जीवन में सुख चैन भरने की कोशिश है और मनुष्य के प्रयत्न उसे प्राप्त करने की कोशिश है ,इस लिए ही मनुष्य
वासनाओं और अहंकार को पूरा करने की कोशिश में , सदा कार्यरत है। यह दोनों ही ऐसी प्रक्रियाएं हैं जो मनुष्य को मानसिक और शारीरिक यातनाएं देती हैं। इससे मन की चंचलता को नहीं रोका जा सकता। आत्मज्ञान के आभाव में मनुष्य भौतिकता में ही उलझा रहता है। संचय के कारण आपस में राग द्वेष बहुत बढ़ जाता है , अहंकार अपने से अपनों को दूर कर देता है।
हमें तो अपना नित प्रतिदिन का जीवन जीने के लिए भी उचित अनुचित का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। पर आँखों पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हमें कुछ देखने ही नहीं देता। तर्क कुतर्क भी स्वार्थी हो जाते हैं और मानव ही मानवता का हनन करने लग जाते हैं। एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है की अच्छे और बुरे का ज्ञान विचारों में होता है ,उसे क्रियान्वित इन्द्रियां करती हैं ,पर आत्मा निर्लिप्त रहती है ,ये आत्मा के कर्म नहीं हैं ,जिस दिन हम आत्म सत्य को जान लेंगे तब यह सब होगा ही नहीं। उस सत्य को जानने
के लिए लोभ मोह अहंकार आदि को त्यगना होगा। हमारी इन्द्रियाँ इनके अधीन हैं। अनुचित काम या संग्रह करने पर अंतरात्मा से सच की आहट जरूर मिलती है पर मोह का ,स्वार्थ का लोभ दंश उसे दबा देता है। ऐसे में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा की जब मनुष्य की इन्द्रियों पर मनुष्य का कोई वश नहीं रहता तो वह किनारे से भटकी एक नाव के समान हो जाता है जिसे हवा अपनी ही दिशा में ले जाती है। इसलिए हे अर्जुन तुम एक आयुक्त पुरुष की तरह अपनी जीवन नैय्या को हवा के हवाले मत करो। कहने का तात्पर्य यह है की जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है उसी को स्थिर बुद्धि होने में सफलता प्राप्त
होती है। युद्ध भूमि में श्री कृष्ण चाहते हैं की अर्जुन अपने मोह जाल से बाहर निकले और अपने कर्त्तव्य का पालन करे। हमें भी अपने जीवन में ऐसे ही सुधार लाने होंगे।