जिन्दगी : हे कृष्ण कुछ तो बोलो
श्लोक संख्या ८ अध्याय २ —–भावार्थ -क्योंकि पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य को तथा देवताओं के स्वामित्व को पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता जो की मेरी ईन्द्रिंयों को सूखने वाले इस शोक को दूर कर सके।
अपने को कृष्ण की शरण में समर्पित करते हुए अर्जुन बहुत अधीर हो उठा उससे अपने ह्रदय की पीड़ा कृष्ण से कही नहीं जा रही थी अर्जुन की यह मन स्तिथि कृष्ण से छुपी न थी। वे अर्जुन की पीड़ा का अनुभव कर पा रहे थे। उन्हें स्पष्ट दिख रहा था की उनके मित्र के ह्रदय की पीड़ा ने उसके हाथ पैर शिथिल कर दिए हैं ,उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया है और मन में करुणा वा अनुराग का जवालामुखी फूट पड़ा है। ऐसी परिस्तिथि में अर्जुन ने अपने को पूर्णरूप से कृष्ण को समर्पित कर दिया। कृष्ण को भी उसकी अधीरता का अनुमान है पर कृष्ण अब भी मौन हैं। अर्जुन ने अपने मन में उठ रहे प्रश्नों को, दुविधा आदि को एक के बाद एक कृष्ण को कह डाला और बड़ी अधीरता से कृष्ण की ओर निहारने लगा। धैर्य का बाँध मानो टूटा जा रहा था। अपने ही संदेहों का ,प्रश्नों का आप ही निवारण कर पाने में अर्जुन असमर्थ था। वैराग्य लेना उचित है या युद्ध करना ?
युद्ध करना उसका कर्तव्य था ,प्रजा व परिवार की भलाई के लिए किया जाने वाला उत्तरदायित्व था ,पर संस्कारों और अनुराग के वश कर्तव्य से विमुख हो वैराग्य लेना दूसरा विकल्प था ऐसा करने से उसे गुरुजनों के वद्ध का पाप नहीं लगेगा। युद्ध कर के उसे स्वर्ग या नरक जो भी मिले वो उसके परिजनों के सामने तुछ्य ही होगा।
” According to the tradition of Vedanta, Vyasa, the father of Vedant, has brought here in his masterpiece a disciple who is seeking a life of cultural perfection godly and divine (sreyas) with perfect and complete detachment from the sensuous urges natural to all undeveloped animal men. The urgency felt by Arjuna as is evident from his own words,may be considered as amounting to the burning aspiration for librating himself from the limitation of a mortal. All that he needed to make himself perfect is the right discrimination (Viveka) which the lord if Senses Hrishikesh, will be giving him throughout the length of the Divine Song .”
Swamy Chinmayenanda
कृष्णके कहे अनुसार यदि अर्जुन युद्ध कर विजय प्राप्त कर भी लेता है तो भी उसके मन में दुःख तो जीवन भर रहेगा। वह कभी न भूल सकेगा उसे या उसके भाइयों को जो प्राप्त होगा उसे पाने के लिए ही उसके पूज्य परिजनों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी है। जिनका तो कोई दोष भी नहीं था। दुःख मानो अर्जुनके ह्रदय को चीर कर बहार आ गया हो और कृष्ण के चरणों में समर्पित हो गया हो।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दुःख के भावों की ,क्रोध की ,इर्षा की ,भावनाओं का वर्णन कुछ इस तरह किया है ——-
“In fact ,only the sad become sad .No one suddenly becomes sad .Just as the angry become the angry ,the sad become sad .If you are already angry inside ,all that require is a reason to become angry .Similarly ,the jealous become jealous and lonely become lonely .,Therefore ,these feelings indicate that there is a problem already underneath .”
कृष्ण- क्रोध इर्षा द्वेष आदि भावनाओं से बहुत परे थे। इस लिए युद्ध भूमि में शांत चित्त थे। अर्जुन अपने परिवार सहित बरसों से शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित होने के कारण दुखी थे। कुरुक्षेत्र में उनका दुःख उभर कर सामने आ गया। इस परिस्तिथि को हम आत्मा और परमात्मा के बीच की कड़ी भी मान सकते हैं। यहाँ आत्मा का परमात्मा के समक्ष प्रत्यक्ष समर्पण देखा जा सकता है। यह युद्ध अहंकार और धर्म के बीच देखा जा सकता है और न्याय एवं अन्याय के के बीच भी देखा जा सकता है। जब परिस्तिथियाँ विपरीत हो जाती हैं और समझौते की भावना नहीं रहती तो फिर युद्ध जैसे कठोर निर्णय लेने पड़ जाते हैं। कृष्णने भी निष्पक्ष रह कर इस युद्ध को रोकने का भरकस प्रयास किया पर अहंकार का अन्धकार बहुत गहरा होता है। कोई आँख से अँधा था ,किसी ने आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी तो कोई अहंकार में अँधा था। युद्ध करूँ या न करूँ अर्जुन के मन में दुविधा थी। जब मन में
ऐसी स्तिथि उत्पन्न हो जाती है तो विवेक का सहारा लेना बहुत आवश्यक हो जाता है ,पर अर्जुन के मन की दुविधा साधारण नहीं है। एक ओर धर्म की रक्षा करनी है ,तिल तिल कर बिखरते राज्य को समाज को अधरम की आड़ में हो रही यातनाओं से बचाना है ,बढ़ते हुए आतंक को ,स्वार्थ को फैलने से रोकना है। पर अपने इस लक्ष को प्राप्त करने के लिए जिन महानुभावों को मार कर आगे बढ़ना है वे तो दोषी भी नहीं हैं। युद्ध के समर्थक भी नहीं हैं। बुराई का अंत करने के लिए क्या यह आवश्यक है की वो उन लोगों का भी वध कर दे जो उसके ही विचारों के पक्ष धर हैं। पर प्रत्यक्षरूप में वे कर्तव्य बद्द हो विपक्ष में खड़े हैं। यदि हम भी कभी ऐसे हालातों में फंस जाएँ तो शायद हम भी ऐसा ही सोचने लगें और हो सकता है हमारा विवेक भी हमारा साथ न दे। हो सकता है हमें जो चाहिए हम उसे पाने के लिए उसी का हनन करने लगें। यहाँ उचित और अनुचित ये दोनों ही एक समस्या बन कर सामने खड़े हैं ऐसी ही परिस्तिथियों में विवेक साथ छोड़ देता है। सोचने की शक्ति शून्य हो जाती है। इस लिए हम स्पष्ट देख पा रहे हैं की अर्जुन का विवेक भी शून्य हो गया है। वो मधुसूदन के समक्ष निःशस्त्र हो घुटने तक देता है। अर्जुन की प्रार्थना उसके मन की अंतर्ध्वनि है। वह पूर्णरूप से कृष्ण को समर्पित है। कृष्ण ही अब उसका एक मात्र सहारा हैं। वे ही है जो उसे उचित और अनुचित का भेद बता सकते हैं। मोह और अनुराग में फंसे कृष्ण के हृदय की वेदना को अब कृष्ण ही समझ सकते हैं। अर्जुन श्री कृष्ण से अनुरोध करता ही प्रार्थना करता है की वे उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करें।
यहां एक बात बहुत ध्यान देने योग्य है —वो है अर्जुन और कृष्ण के बीच का रिश्ता -क्या ये पारिवारिक है ,एक वीर का दूसरे वीर का प्रति मोह है ,या कोई दो पवित्र आत्मायों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण है। फिर अज्ञान और ज्ञान के बीच ,विवेक और दुविधा के बीच ,या दो मित्रों के बीच सच्चे अनुराग का प्रतीक या फिर धर्म और अधर्म के बीच फंसे काल चक्र को सही दिशा दिखाने का कारण मात्र है –ये है क्या। और यहाँ कुरुक्षेत्र में कृष्ण अर्जुन के सारथि बने खड़े हैं। ऐसे में जब अर्जुन अपने को कृष्ण के चरणों में समर्पित कर और कृष्ण भी उसकी मनोव्यथा को भली भांति समझ
परख रहे हैं। वो यह कह कर अपना पीछा नहीं छुड़ाते की वो तो इस युद्ध में एक सारथि की भूमिका निभाने आये हैं ,उन्हें गुरु कयों बनाया जा रहा है। यहाँ एक बात और भी स्पष्ट हो जाती है की विवेक और ज्ञान या समयानुसार वयवहारकुशलता का किसी वयक्ति में होना ये कुछ ऐसे गुण हैं जो सदैव कठिनाई के समय काम आते हैं सहायक होते हैं। गुण तो गुण हैं इसलिए एक सारथि के सामने घुटने टेक कर उसे अपना गुरु मान लेने में अर्जुन को रत्ती भर भी संकोच नहीं हुआ। कृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को अपना शिष्य बनाने में एक पल की भी देर नहीं की। यह अज्ञान के अन्धकार में ज्ञान के दीपकके समान है। जब विवेक हमारा साथ छोड़ दे और कोई निर्णय लेने का सहस न हो तो हमें ऐसे समय में शून्य बुद्धि का साथ छोड़ किसी ज्ञानी महा पुरुष की शरण में जाना ही उचित निर्णय है। जो अर्जुन ने किया। कृष्ण ने रथ की बाग़ डोर के साथ साथ अर्जुन की बाग़ डोर भी संभल ली।
यह प्रसंग भगवन और भक्त के बीच का संबंध है और यही गुरु और शिष्य के बीच का भी संबंध है। यही माता -पिता और संतान के बीच का संबंध है और यही एक मित्र और दूसरे मित्र के बीच का भी संबंध है ,जहाँ एक दूसरे की अंतरात्मा की आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता ,जहाँ धैर्य की चरमसीमा देखने को मिलती है ,जहाँ जीवन एक दूसरे के लिए निछावर कर देने में कोई दुविधा नहीं होती।
यहाँ भी शरणागत मित्र का दुःख कृष्ण भली भांति समझ रहें हैं।