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जिन्दगी : संवेदना से उभरी वेदना

Tez Samachar by Tez Samachar
February 29, 2020
in Featured, विविधा
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जिन्दगी : संवेदना से उभरी वेदना

Neera Bhasinश्लोक २५,२६ —–कृष्ण रथ को अर्जुन के कहेनुसार युद्ध भूमि में ले आये और  कहा  “हे पार्थ यहां तुम्हारे समक्ष सभी 

कौरव वीर खड़े हैं ” इस अध्याय में कृष्ण द्वार कहे  गए ये पहले शब्द हैं  और ये शब्द ही  अर्जुन की   आत्मा को झकझोर के रख  देते हैं 
पक्ष और विपक्ष दोनों ही सेनाओं में खड़े वीर  अर्जुन के अपने निकट संबंधी थे , मित्र और उत्तम प्रकृति के लोग थे। जिस तरफ  अर्जुन की नजर पड़ती उसे अपने संबंधी ही दिखाई पड़ते। अधिकतर निकट संबंधी एक ही पक्ष में होते हैं पर इस युद्ध भूमि में दोनों पक्ष के 
वीर एक ही परिवार के थे। यह दृश्य कोई साधारण दृश्य ना था। इसे देख कर अर्जुन का ह्रदय भयभीत हो उठा ,करुणा से भर गया। किसी भी कार्य को शब्दों  ढाल कर उसकी कल्पना करना एक बात है और उस कार्य को समक्ष कार्यविंत होते देखना दूसरी -जिसके समक्ष अर्जुन खड़ा था। 
                     श्लोक ,२७ ,२८,२९ —–अर्जुन का भावविभोर होना स्वाभाविक था ,पर यह युद्ध का मैदान था ,यहाँ भावनाओं का कोई काम नहीं होता ,यहाँ एक वीर का कर्तव्य और पौरुष प्रधान होता है। युद्ध के मैदान में भावुकता और दया की कोई गुंजाईश नहीं होती। पर अर्जुन कुरुक्षेत्र में अपने ही सगे सम्बन्धियों को दोनों पक्षों में देख कर भावुक हुआ —-और इससे जन्म हुआ “गीता ” का। 
                        अर्जुन ने कृष्ण से कहा “अपने ही लोगों को युद्ध भूमि में युद्ध के लिए तत्पर देख कर मेरे शरीर की सारी  शक्ति ने मेरा साथ छोड़ दिया है ,मेरा मुहं सूख गया है शरीर काँप रहा है और रोंगटे खड़े हो गए हैं। “यह स्थिति तभी आती है जब मनुष्य बहुत जयादा भावुक हो 
उठता है और विनाश सामने दिखाई देने लगता है। 
                       यहाँ अपनों को मार कर अपना भला कर लेने से 
क्या मन को संतोष की प्राप्ति हो जाएगी ,कौन सा सुख मिलेगा। अर्जुन ने अपने मन के सारे संशय कृष्ण को कह दिए। कृष्ण जो अब तक अपने मित्र के रथ की रास संभाले बैठे थे उन्हों ने पीछे पलट कर अर्जुन की ओर देखा। 
                      गीता के इन श्लोकों में मनुष्य के अंदर स्तिथ “देव “
भावनाओं का प्रमाण देखने को मिलता है। पहले हमने देखा की सच्चाई को और युद्ध के परिणाम को जानते हुए भी  दुर्योधन किस तरह से अपने वीरों को युद्ध के लिए उकसाता है। यहाँ उसका भय उसके ह्रदय में छुपी मानवता का प्रतीक है पर अहंकार के चलते वो उन्हें दबा देता है और युद्ध के लिए तत्पर हो जाता है दूसरी ओर अर्जुन का उद्देश्य भी दुर्योधन की तरह राज्य का अधिकार पाना है पर मन में करुणा और अनुराग 
होने से युद्ध का परिणाम सोच कर उसके हाथ से शस्त्र छूट जाते हैं। 
उद्देश्य युद्ध का एक ही है ,परिणाम भी युद्ध का एक ही के पक्ष में होगा  ;पर
मन में उठ रहे विचार अलग अलग प्रकृति के हैं दुर्योधन को अपनी विजय निश्चित जान पड़ती थी इसलिए सत्ता के अतिरिक्त उसे और 
कुछ सूझ ही नहीं रहा था ,दूसरी और अर्जुन को भी यह पूर्ण विशवास
था की पांडव ही विजयी होंगे पर यह विजय उन्हें महाविनाश के बाद प्राप्त होगी एक ओर दुर्योधन का उन्माद में मद मस्त होना और दूसरी 
ओर अर्जुन का करुणा में शिथिल होना -दोनों ही मनुष्य की भावनाओं 
का एक ठोस उदाहरण हैं और वो भी एक ही परिस्थिति में “गीता “
का शेष भाग समझने के लिए पहले मानव सुलभविचारों का जान लेना भी आवश्यक है। (बाकी हम सब जानते हैं की क्यों इतने बड़े युद्ध को करना अनिवार्य हो गया था )
                     श्लोक ३०,३१ ,३२ — 
               अर्जुन ने कृष्ण से कहा ” युद्ध करना तो दूर की बात है मेरे 
शरीर में तो खड़े होने की भी शक्ति नहीं है। मेरे हाथों से गांडीव (धनुष )
गिर गया है और पूरा शरीर मानों  जल रहा है ,मैं हर तरफ से दुविधा में घिर गया हूँ  इस युद्ध में अपने ही परिजनों को मार कर क्या मिलने 
वाला है। “अर्जुन को प्रतीत हो रहा था की इस युद्ध में सभी का मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार से संहार होने वाला था। पर यदि हम दूसरी तरह से देखें तो पांडवों को जीवन में सदा  तिरस्कार ही मिला था वो भी अपने भाइयों से अर्थात कौरवों से। दूसरी बात अर्जुन एक श्रेष्ठ धनुर्धारी 
था और तीसरी बात पांडव सदा धर्म का पालन करते थे परिवार से 
स्नेह करते थे और उनका आदर करते थे। अर्जुन युद्ध के परिणाम से भली भांति परिचित था पर अपने ही लोगों का वध करने की कल्पना 
से ही उसका हृदय काँप रहा था।  युद्ध तो निश्चित था। सर्वश्रेष्ठ योद्धा होने के कारण भी और अपने बड़े भाई के प्रति अपने कर्तव्य व निष्ठां 
के कारण  भी वह युद्ध करने को तत्पर  था। अर्जुन  को अपने वीर योद्धा होने पर गर्व था पर मानवता के चलते मन में करुणा उमड़ रही थी। 
                       स्वामी चिन्मयनन्दा ने कहा है —
” In this state of mental confusion, when his emotions have been totally
divorced from his intellect, the “objective-mind”, without the guidance of its “subjective – aspect” runs wild and comes to some unintelligent conclusions. He says,”I desire neither victory nor empire, not even pleasure.”It is a recognized fact that a patient of hysteria, when allowed to talk, will, in a negative way, express the very cause for the attack .”
                        अर्जुन ने कृष्ण से कहा की ” हे श्री कृष्ण हम जिन लोगों की ख़ुशी के लिए ,सुख के लिए यहाँ युद्ध भूमि में युद्ध करने को तत्पर खड़े हैं वे सब भी तो अपना राज पाट त्याग कर यहाँ आये हैं ,मेरा मन नहीं मानता की मैं  इनसे युद्ध कर इनका वध करूँ ,पर मैं  यह भी जानता  हूँ की वे मेरा वध अवश्य करेंगे। फिर भी मैं  इस भूखंड के लिए तो क्या पूरा  संसार भी मिले तो भी इन पर वार नहीं करूँगा। “
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