भावार्थ –दुखों में जिसका मन उद्ग्विन नहीं होता ,सुखों में जो स्पृहारहित है तथा जिसके राग , भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं। ऐसा मुनी स्थिर बुद्धि कहा जाता है।
पिछले श्लोक में भी श्री कृष्ण ने ‘स्थिर बुद्धि की बात कही थी। जितना अधिक हम ज्ञान प्राप्त करेंगे उतना ही हमारी मन ,बुद्धि और चेतना को सुख का अनुभव होगा। ज्ञान क्या है ,इसकी परिभाषा चंद शब्दों में नहीं बाँधी जा सकती। जो दीखता है हमें या किसी और को उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करना विषयक ज्ञान है -हमारे और आप के लिए एक जैसा। हम और आप यदि कुछ जान लेते हैं और वो यदि किसी तीसरे व्यक्ति को बताते हैं तो उसकी विषय वस्तु एक जैसी ही रहेगी। पर यहाँ बात आत्म ज्ञान की है जिसकी भौतिक ज्ञान की तरह कोई सीमा रेखा नहीं है। अर्जुन भी जानना चाहता है जिसे केवल ज्ञानी पुरुष ही समझ सकता है और समझ कर ज्ञान प्राप्त कर सकता है , वो ऐसा क्या है जिसे जान वह स्वयं को जान पायेगा। बहुत उलझी सी पहेली लगती है। यह उलझन तो ज्ञानी पुरुष के सामने छाई धुंद है। दुःख के परवाह की तुलना हम एक निरंतर बहती रहने वाली नदी के साथ कर सकते हैं। कहीं कुछ ऐसा होता रहे और निरंतर होता रहे तो कभी कभी वह घटना व्यक्ति विशेष के दुःख का कारण भी बन जाती है। उदाहरण के लिए निरंतर गरीबी या बिमारी से संघर्ष करते रहना -तब एक समय ऐसा भी आ सकता है जब अमुक व्यक्ति के धैर्य का बाँध टूट जाता है। उसका धैर्य टूटना लगता है इसे सुधारने का यदि प्रयत्न नहीं किया गया या अवसर नहीं मिल सका तो हो सकता है की ऐसे दुखों से पार पाने क्षमता ही ना बचे और वो अमुक व्यक्ति अपना धैर्य खोने लगे। अब कारण कुछ भी हो ,अधिक अधीरता के कारण मनुष्य क्रोधित हो उठता है और जाने अनजाने कुछ कठोर कदम उठाने को विवश हो जाता है। पर ज्ञानी मनुष्य ऐसी परिस्तिथि में अपनी कठिनाइयों का हल ढूँढ ही लेते हैं और दूसरी ओर अज्ञान वश परेशानियों से हार मान लेने वाले पलायन का मार्ग ढूंढ़ने लगते हैं। अधिकतर कष्टों से जिस तरह मनुष्य निरंतर दुखी होता रहता है वैसे ही आवश्यकता और ज्ञान से परे यदि कोई मोह में पड़ जाता है तो वह उसके प्रवाह में निरंतर बहता ही चला जाता है।
आदि शंकराचार्यजी ने कहा है —that a man of steady wisdom is not distressed by calamities ( 1 ) such as those that may arise from the disorder of the body ( adhyatmika ) (2 ) those arising from external objects such as tiger ,etc. ( adhibhoutik ); and (3 ) those arising from unseen causes such as the cosmik forces causing rains ,storms etc. (adhidevik) .Fire increases when fuel is added ,but the fire of desire in a perfect one does not when more pleasures are attained .Such person is called ” a man of steady knowledge ,” A silent sage .
श्लोक –57 , अध्याय 2
भावार्थ –जो व्यक्ति सर्वत्र (अर्थात सभी विषयों में ) आसक्तिरहित हुआ उस शुभ या अशुभ (वस्तु )को प्राप्त करके न आन्दित होता है और न द्वेष ही करता है ,उसकी बुद्धि स्थिर है।
इस समय हम देख रहे हैं श्री कृष्ण अपने शिष्य को कर्तव्य का आभास कराने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से अपनी बात को अर्जुन के समक्ष रख रहे हैं। यदि हम उक्त श्लोक पर जरा ध्यान दें तो समझ में आएगा की यहाँ आसक्ति रहित हो कर वैराग्य लेने की बात नहीं कही जा रही। सत्य तो यह है की जब कभी कोई मनुष्य किसी स्तिथि विशेष में फंस जाता है तो उसे कोई भी निर्णय लेने से पहले इस बात का ध्यान करना चाहिए की क्या जो वह करने जा रहा है उसके लिए यही एकमात्र उचित निर्णय है ,क्या इसे करने से अर्थात ऐसा ही करने से सब का प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा ,सब का उद्धार हो जायेगा ,क्या ऐसा करने से सबको प्रसन्नता मिलेगी –इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। जहाँ बात निज स्वार्थ से हट कर सर्वहित की हो तो कार्यवाहक के ऊपर यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है
की वह अब पूरे समाज को ध्यान में रख कर कर्म करे और ऐसे में मनुष्य का आसक्तिरहित होना बहुत जरुरी है –लेकिन इसका अर्थ सन्यासी हो जाना बिलकुल नहीं है। यदि कर्ता पुरुष मोह और अनुराग की भावनाओं से ऊपर उठ कर सोचेगा तो निश्चित रूप से वह सही निर्णय ले पायेगा।
श्री कृष्ण भी अर्जुन को यही समझा रहे हैं। जो मनुष्य मोह -अनुराग से ऊपर उठ कर सोचते हैं वे अपने कर्तव्य का निर्वाह निष्पक्ष हो कर कर सकते हैं और वे किसी भी तरह के राग द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं।
सांख्य दर्शन के दूसरे अध्याय की श्लोक संख्या 26 की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री राम शर्मा जी ने कहा है की मन का पांचों ज्ञानेन्द्रियों और पांचों कर्मेन्द्रियों से संबंध रहता है ,क्योंकि मन का सहयोग प्राप्त किये बिना इन्द्रियाँ अपने काम में नहीं लगती। किसी भी विषय को ग्रहण करना ,अर्थात पुस्तक उठाना ,लिखना बोलना और चलना आदि सभी कार्य मन के सहयोग से ही हो सकते हैं। जब मन निश्चय करता है की पुस्तक उठानी तो हाथ इस कार्य के लिए मन की प्रेरणा से ही उठेगा। इससे सिद्ध होता है की मन दोनों प्रकार की इन्द्रियों से संबंधित है। इस लिए हम स्पष्ट देख पा रहे हैं की यहाँ अर्जुन के मन ने जब शस्त्रों का
त्याग कर दिया तो उसके हाथ से शस्त्र से छूट गए। कहने का मतलब की अर्जुन की ज्ञानिन्द्रियों और कर्मइन्द्रियों दोनों में ताल मेल स्थापित हो गया।
श्लोक 58 — अध्याय 2 ,
भावार्थ -जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है ,वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को इन्द्रियों के (रंग , रूप, रस आदि ) विषयों से सब तरह से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित अर्थात स्थिर हो जाती है।
इस श्लोक में कहा गया है की जब कोई मनुष्य अर्जुन की तरह किसी स्तिथि में फंस जाता है तो उसके लिए यह बहुत आवश्यक है की ज्ञान इन्द्रियों को एकत्र कर बाहरी मोह बंधन का त्याग कर दे। उसके विचार केवल लक्ष्य को प्राप्ति की तरफ ही होने चाहिए
न की हार जीत मोह ,अनुराग की भावनाओं पर ,जो उसके लक्ष्य प्राप्ति
में बाधक सकती हैं ,उसे पथ भ्रष्ट सकती हैं। मनुष्य जितना अधिक मोह ग्रस्त जायेगा उतना अधिक वो भौतिक इच्छाओं का गुलाम होता जायेगा। समयानुसार प्रस्सन होना ,दुःख सुख में अपनी बुद्धि को स्थिर रखना ,ये ज्ञानी पुरुष के लक्षण हैं। धीरे धीरे जब मनुष्य क्रोध का त्याग कर देता है तो स्वतः ही उसे सुख की अनुभूति होने लगती है ,कठिन काल में भी स्थिर बुद्धि रहने की क्षमता बड़ जाती है।
प्रत्येक मनुष्य के पास या कहें की जीव मात्र के पास
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं जो विषय विशेष का आभास कराती हैं। वे अनुभूति प्राप्त करने का साधन हैं पर उस अनुभूति को प्राप्त कर समझने वाला उसका मन या आत्मा है ,जीव स्वयं नहीं। ऑंखें देखने का साधन हो सकती हैं पर वस्तु विशेष को मन ,भाव ,चित्त ही ग्रहण करता है। जब हम अपनी सब इन्द्रयों को एकाग्र कर अपने अंदर ही समेट लेते हैं तो इसे योग शास्त्र में प्रत्याहार कहते हैं ,जिसे योग या प्रणायाम द्वारा जाना जा सकता है। इन्द्रियां हमें बहरी जगत से जोड़ती हैं और
जब कभी कोई ‘रस ‘ किसी व्यक्ति को कुछ अधिक ही प्रभावित कर देता है तो वह बाकी सब कुछ भुला कर उसके पीछे भागने लगता है। अभी भी उसके पास सब इन्द्रियां हैं ,काम कर रही हैं ज्ञान दे सकती हैं और दे भी रही हैं पर उस व्यक्ति की आसक्ति तो किसी एक बिंदु पर जा कर रुक गई है। तो ऐसे में बाकी कुछ शेष नहीं रह जाता। यहाँ कुरुक्षेत्र में अर्जुन धर्म क्या ,अधर्म क्या और कर्म क्या वो सब भूल चुका है।
स्वामी दयानद जी ने कहा है ” If the mind is taken away
by fancies what can the senses do .”
अपने जीवन की राह में हम अनगिनत वस्तुओं का ,लोगों का और परिस्तिथियों का सामना करते हैं पर उसमें से कितना कुछ है जो हम साथ ले कर चलते हैं ,किस किस पर हमारी आसक्ति आ कर ठहर
जाती है ,समय परिवर्तन शील है और सोच भी परिवर्तन शील है और मनुष्य भी। जब किसी वस्तु , भाव , या क्रिया को आवश्यकता से अधिक अपना लिया जाता है या उसको पाने के लिए हर सीमा पार कर ली जाती है तो हम उसे न भाषा में पागलपन या जुनुन कहते हैं ,और जिसका अंत सुखद नहीं हो सकता। मनुष्य में इतना ज्ञान तो है की
वो समयानुसार अपनी अनावश्यक भावनाओं को अपने वश में कर ले ,
अपने अंदर समेट ले ठीक कछुए की भाँति। आवश्यकता है तो मन और इच्छाओं के बीच ताल मेल बिठाने की। इस युद्ध का आवाहन भी किसी कारण वश ही हुआ है और अर्जुन का मन मोह और पाप के बीच फंसा
है। श्री कृष्ण का कहना है की अर्जुन के पास युद्ध के अतिरिक्त एवं कर्तव्य के अतिरिक्त कुछ और सोचने का समय ही नहीं है। इस समय अर्जुन की सारी इन्द्रियां कछुए की भांति मन के कठोर कवच में सिमट जानी चाहिए |