जिन्दगी : “आत्मा नित्य है “
हम दिन प्रति दिन हो रहे छोटे -मोटे कार्यों से प्राप्त सुख या दुःख में उलझे रहते हैं –जीवन में कई बार ऐसे भी पल आते हैं जब किसी के कर्मों से दूसरे शब्दों में कहें तो महत्वकांक्षाओं की पूर्ति हेतु किये गए या लिए गए निर्णय से या कार्य से पूरा समाज या देश भी प्रभावित हो सकता है। प्रस्तुत दृश्य का ही उदाहरण लेते हैं अर्जुन अपने भाइयों सहित लाखों सैनिकों के साथ कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर खड़ा है जब की यही पाण्डु परिवार सदा ही धर्म की राह पर चल कर जीवन यापन करता रहा था।
दूसरी ओर दुर्योधन अपने सौ भाइयों समेत कुरुक्षेत्र में युद के लिए तैयार खड़ा हैऔर यह महत्वकांक्षाओं के ,अहंकार के और राज्य के लोभ के हेतु लिए गए एक निर्णय के फलस्वरूप उत्प्पन हुई परिस्तिथि है। जब महत्वकाक्षाएं सीमा के बाहर हो जाती हैं तो अहंकार और अराजकता को फैलते देर नहीं लगती। आज इसी के चलते राजा शांतनु का पूरा परिवार दो हिस्सों में बंट चुका था और एक दूसरे के सामने शत्रु बन खड़ा था। अनाचार और अत्याचार जब वाक् कुशलता से नहीं सुलझाए जा सके तो बात युद्ध तक आ पहुंची क्योंकि अब यही एक मात्र पर्याय था। अर्जुन का हृदय मोहपाश में फंसता जा रहा था और उसे उसके कर्तव्य से विमुख कर रहा था। अर्जुन की यह अवस्था देख कर कृष्ण ने कहा की अर्जुन कोई साधारण या सामान्य व्यक्ति नहीं है अपनी योग्यताओं के आधार पर उसका स्थान साधारण व्यक्तियों से कहीं ऊपर है। अर्जुन की विशेषताओं की तरफ उसका ध्यान आकर्षित करना आवश्यक था जिसे अर्जुन मोह वश भूल बैठा था। इस समय जो कुछ श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा वो मनो वैज्ञानिक रूप से बिल्कुल उचित था। एक छोटे बालक से यदि मिठाई धूल में गिर जाती है तो वो जोर जोर
से रोने लगता है और उसके अभिभावक उसे यह कह कर उसके मिठाई खो जाने के दुःख से बाहर निकाल लेते हैं की तुम तो बहुत अच्छे और बहादुर बच्चे हो। ऐसी छोटी छोटी बातों पर रोते नहीं। ऐसे में बालक मिठाई भूल जाता है ,उसका ध्यान मिठाई से हट कर अपने ऊपर आ जाता है। उसे वो हानि अपनी क्षमता के आगे छोटी लगने लगती है। गालों पर बहते आँसू पलक झपकते सूख जाते हैं और वो भाग कर दूसरी मिठाई लेने चला जाता है दुःख का आना या अपनी संज्ञा में लौटना सब कुछ मन के विचारों की देन है। उदाहरण बहुत छोटा और साधारण सा है हर रोज आँखों के सामने घटित होता रहता है लेकिन मनोविज्ञान के आधार पर यह एक सत्य है। कृष्ण ने भी अर्जुन से कहा की तुम कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो अपने विशेष और उत्तम गुणों के कारण यहाँ उपस्थित लोगों में सबसे अग्रणीय हो। तुम्हारा आत्म बल दृढ़ है
और ऐसे व्यक्ति के लिए भावनाओं में बह कर कर्तव्य से मुंह मोड़ लेना उचित नहीं।
स्वामी चिन्मयनन्द जी ने कहा है –
“Based upon that fact, here Lord Krishna explains that one who has found in himself a mental equipoise, where he is not affected or disturbed by circumstances of pain and pleasure alone is fit for attaining Immortality .”
जो भी जीव जिसमे मानव जाती भी गिनी जाएगी उसमें जीने की लालसा प्राकृतिक रूप से होती है। जीना खाना और प्रजनन ये क्रियांए तो प्रत्येक प्रजाति में पाई जाती हैं। जीव जंतु भी तो अपने को खतरों से बचा कर रखते हैं। आस पास कहीं सिंह का आगमन हो चूका है इसकी भनक लगते ही उस क्षेत्र के सभी जानवर सतर्क हो जाते हैं ,इधर उधर भाग कर छुपने का स्थान ढूंढ़ने लगते हैं की किसी तरह से प्राणों की रक्षा हो सके फिर मानव तो एक विकसित बुद्धि का प्राणी है तरह तरह के उपायों से अपने प्राणों की रक्षा हेतु दुश्मन को चकमा दे सकता है ,पर कभी कभी कुछ ऐसे भी पल आते हैं जहाँ मृत्यु से बच निकलना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है ऐसे समय में अच्छे अच्छे धैर्यवान और
बुद्धिमान लोगों के भी हाथ पैर ढीले पड़ जाते हैं यहाँ कुरुक्षेत्र में खड़े वीरों की मृत्यु निश्चित थी इस बात का अर्जुन को पूरा आभास था क्योंकि उसे अपने बल पर विशवास था। पर अपने ही परिजनों की मृत्यु उसके अपने ही हाथों होगी यह सोच कर अर्जुन का बल शिथिल हो गया था ,जब की कृष्ण का कहना था की अर्जुन का इस तरह शोकाकुल हो जाना उचित नहीं था क्योंकि यह अर्जुन के स्वाभाविक गुणों के विपरीत सोच थी।यह एक वीर पुरुष के स्वाभाव के विपरीत था। उन्होंने अर्जुन को समझते हुए कहा की हे वीरों में अग्रणीय वीर ,कठिन परिस्तिथियों के आने पर वही मनुष्य अपने कर्तव्य पर अडिग रह सकता है जो दुःख और सुख में भेद भाव नहीं करता जिस तरह तरह गायों की भीड़ में बैल अपनी कद काठी के कारण दूर से ही पहचाना जा सकता है ,उसी तरह अर्जुन भी वीरों के समूह में परमवीर है। ऐसे तेजस्वी पुरुष भीड़ में रह कर भी अपना आस्तित्व ऊँचा बनाये रखते हैं वैसे ही एक वीर और धैर्यवान व्यक्ति हर तरह की परिस्तिथि में अपने को सम बनाये रखता है। आदि शंकरचर्य के भाष्य में कहा गया है –
एक बुद्धिमान जो स्वयं को शरीर रूप में ना देख कर ‘आत्मा’रूप में देखता है वो अनुकूल प्रतिकूल किसी भी परिस्तिथियाँ हों उत्तेजित नहीं होता। ऐसे व्यक्ति नित्य आत्मा में शवास रखते
हैं। प्रत्येक अवस्था में सम रहने वाले व्यक्ति धीर कहलाते हैं। ऐसे ही लोग मोक्ष के अधिकारी होते हैं ,दूसरे शब्दों में कहें तो मृत्यु का अर्थ है ‘अंत ‘हो जाना लेकिन अमृत्व का अर्थ है मोक्ष को प्राप्त होना। दोनों ही अवस्थाओं में परिस्तिथि एक सामान है। पर प्रथम अवस्था में मनुष्य मृत्यु के साथ ‘सब कुछ समाप्त हो गया ‘इस डर से भयभीत हो जाता है और ज्ञानी पुरुष ‘आत्मा के अमर ‘होने पर विशवास कर हताश और निराश नहीं होता और ‘आत्मा नित्य है ‘जान कर मोक्ष प्राप्त करता है। आने वाली परिस्तिथियों का सामना मनुष्य को बहुत धैर्य पूर्वक करना चाहिए और उसके परिणाम को सोच सोच कर अधीर या प्रसन्न होना उसे कर्तव्य विमुख भी कर सकता है।
एक बात और भी ध्यान देने योग्य है जब किसी का शरीर शेष हो जाता है तब उसके साथ उसके विचारों का ,आचरण का ,मान्यताओं का ,और भोग्य उपभोग्य सभी तरह की शरीर से संबंधित क्रियायों का भी अंत हो जाता है। पर आत्मा का कर्मों का संबंध नहीं छूटता। पर सच तो यह है की साधारण मनुष्य अपने दैहिक दुःख से प्रभावित होता है और तदनुसार कार्य करता रहता है। दिन प्रतिदिन के व्यवहार में आत्मा का स्वरुप तो सामने आता ही नहीं बस आज आत्मा प्रसन्न है ,अमुक कार्य से आत्मा पर बोझ जान पड़ता है ,या फलां फलां काम करने को आत्मा नहीं मानती आदि आदि ये सब तरह की चेतावनियां हमें आत्मा से मिलती रहती हैं ,क्योंकि अंतर् आत्मा में हमें अच्छे बुरे का ज्ञान है –और यह एक सच बहुत बड़ा सा सच्चा सच है की किसी भी गलत काम करने से पहले ‘सावधान ‘का संकेत आत्मा से मिलता है ,वो आत्मा जो नित्य है ,जीवित है और जीव में वास करती है ,लेकिन बुद्धि में तो अहंकार ,क्रोध और मोह का वास है इस लिए सुन कर भी हम इस चेतावनी को सुन नहीं पाते,सुने भी तो अनसुना कर देते हैं ,जिसका असर कभी कभी बहुत ही भयानक होता है और हम खुद को कुरुक्षेत्र में खड़ा पाते हैं –दुविधा की इस आंधी में विनाश का एक संकेत सदा छुपा रहता है।