अहंकार का अन्धकार
Swami Dyanand Sarswati explains “When you are in sorrow, you are present as a whole person. In fact, sorrow can not come unless you are there as a whole. Some people have a feeling of deadness due to some emotional problem and in order to relieve it, to feel alive, they work themselves into sorrow. Only then do they feel that they exist. Only then there is some reality for them. Artists sometimes have a problem . They feel dull and think they should be either ecstatic or in pain. It is because the whole person comes out of the pain and then something is produced .”Similarly, Arjun became a whole person because a storm had occurred .”
इधर अर्जुन और कृष्ण के बीच कुरुक्षेत्र में हो रहे वार्तालाप को ज्ञ्यों का त्यों संजय धृतराष्ट्र को सुना रहा था .वो जानता था की यदि कृष्ण ने एक बार अर्जुन को ‘धर्म ‘का पालन करने का अर्थ समझा दिया तो निश्चित ही युद्ध होगा और विनाश भी होगा। सम्भावना तो कुछ भी हो सकती है ऐसे में यदि कौरव पराजित हो गए तो धृतराष्ट्र द्वारा युद्ध का आवाहन करना व्यर्थ हो जायेगा और ऊपर से नरसंहार -भयानक नरसंहार होगा। संजय का धृतराष्ट्र को बार बार
समझाने का अर्थ यही था की सम्राट किसी तरह इस युद्ध को रोक लें। पर ऐसा हुआ नहीं -पुत्र के प्रति प्रेम ,अंधविश्वास और अहंकार के गहरे अन्धकार ने ध्रितराष्ट्र के विवेक को भी अँधा कर रखा था। संजय चिंतित था धृतराष्ट्र अंधविश्वासी मोहग्रस्त महत्वाकांक्षी पिता जो चाहता था की पुत्रों को वो सब मिले जो वे चाहते हैं फिर वो चाहे जैसे मिले।
संजय ने बताया की अर्जुन ने जब पूरी तरह अपने को कृष्ण के चरणों में समर्पित और उसे अपना शिष्य स्वीकार करने की प्रार्थना की और इस संकट की घड़ी में उचित राह दिखाने को कहा तो कृष्ण के चेहरे पर बहुत ही शांत भाव के साथ एक मुस्कराहट दिखाई दी। संजय ने ध्रितराष्ट्र को इस समय’ भारता ‘कह कर सम्बोधित किया ऐसा करने में संजय का उद्देश्य धृतराष्ट्र को उनके पूर्वजों की
महानता की ओर ध्यान आकर्षित करना था। या संभव है की संजय ने यह कहने का प्रयास किया की वे अपने वंश की परम्परा का पालन करें और युद्ध को रोक लें। ( ‘भारत ‘शब्द का प्रयोग भगवत कथा में अर्जुन और उसके भाइयों के लिए भी किया गया है , क्न्योकि ये सभी सम्राट भारत के वंशज थे। ) कृष्ण अब उत्तर देने को उद्दात थे (तैयार )
थे। पर इसके लिए वे अर्जुन को युद्ध भूमि से दूर नहीं ले गए। वे वहीँ दोनों सेनाओं के मध्य में ही खड़े रहे। उनके मुख पर उभर आई हास्य की रेखाएं अहंकार की नहीं थी की अर्जुन ने उन्हें बहुत बड़ा ज्ञानी मान लिया है या दुविधा के निवारण के लिए उनकी शरण में आ गया है।
ये हास्य रेखायें तो कृष्ण के मित्र अर्जुन के लिए उस मृत्यु तुल्य घड़ी में
अमृत के सामान थीं। इसका तातपर्य यह भी था की अर्जुन ने जो कुछ भी कहा वो सब कृष्ण ने बहुत धैर्य पूर्वक सुना और समझा। जिसस्थान पर कृष्ण और अर्जुन खड़े थे हम कह सकते हैं की वह स्थान किसी भी तरह के उपदेश देने के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। पर यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की प्रार्थना किसने किस कारण
वश की और उसका समाधान कौन -कैसे करने जा रहा था। यह दो मित्रों के बीच की बात थी या गुरु और शिष्य के बीच ,या दो सम्बन्धियों के बीच या फिर भक्त और भगवान् के बीच की बात थी। शरणागत हो कर हो कर पूरी तरह से अपने को समर्पित करने के भाव निश्चित रूप से भक्त और भगवान् के बीच के संबंधों की चर्म सीमा है।
श्लोक -११
भावार्थ —श्री भगवान् बोले –तू शोक न करने योग्य लोगों के लिए शोक कर रहा है और पड़ितों के जैसे वचन कह रहा है। ज्ञानीजन जिनके प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी शोक नहीं करते।
इस श्लोक का यदि हम शाब्दिक अर्थ लें तो कह सकते हैं की अर्जुन की पूरी बात सुनाने समझने के बाद श्री कृष्ण ने कहा की हे अर्जुन तुम उन सब के लिए दुखी हो रहे हो जिनके लिए दुखी होने की आवश्यकता ही नहीं है ,साथ ही तुम ज्ञान की बातें भी कर रहे हो। बुद्धिमान लोग वही होते हैं, जो न तो जीवित लोगों के लिए दुखी होते हैं और न ही उनके लिए जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।
To quote Shankrachrya “Now finding no means after than self knowledge for the deliverance of Arjun ,who was confounded as to his duty and was deeply plunged into the mighty ocean of grief Lord Vasudeva ,who wished
to help his friend out of it ,introduced him to Self -Knowledge in the above shloka .”
अब तक हमने जो गीता में पड़ा और जाना वह ‘गीता उपदेश ‘की भूमिका थी। ज्ञान प्राप्त करना अपने आप में एक बहुत बड़ा शब्द है और जिसकी थाह (गहराई )धरती पर उपलब्ध सभी सागरों की गहराई से भी अधिक है। यहाँ हम एक विषय की ओर उन्मुख हैं और यह भली भांति समझते हैं की प्रस्तुत रिस्तिथियाँ अहंकार लालसा और इर्षा द्वेष आदि भावनाओं के कारण उत्पन्न हुई हैं। वैदिक धरम के अनुसार मान्यता प्राप्त नीतियों का उलंघन कर कौरवों ने पांडवों की अवहेलना की और परिस्तिथियों ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। ऐसे में अर्जुन के ह्रदय में अपने परिजनों के लिए अनुराग उतपन्न होने से उसका मन व्याकुल हो उठा। अर्जुन ने कृष्ण से कहा की इस परिस्तिथि में श्री कृष्ण उसे उचित और अनुचित का ज्ञान दें क्योंकि अर्जुन की विचार शक्ति ने उसका साथ छोड़ दिया है और शरीर संज्ञाविहीन हो गया है।
जब इच्छाएं बढ़ती है तो वो मनोमस्तिष्क पर छा जाती हैं ,भौतिक सुख अहंकार का विषय बन जाता है और सुख सुविधाएँ गर्व का विषय तो ऐसे में विचारों से अच्छे बुरे का ज्ञान दूर हो जाता है। धर्म अधरम की चिंता नहीं रहती। अहंकार अज्ञान का एक पर्दा है जिसका काम ही है विवेक को ढक लेना। अहंकारी पुरुष को दूसरों की चिंता तो दूर की बात है अपने अंदर निहित ज्ञान और विवेक भी दिखाई नहीं देता। दुर्योधन के विचारों पर भी अहंकार और अविवेक और लालच का पर्दा पड़ा था और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह युद्ध को तत्पर खड़ा था तो दूसरी ओर धर्म की रक्षा के लिए और अपने बड़े भाई के अधिकारों की रक्षा के लिए अर्जुन अपने भाइयों सहित सेना का नेतृत्व कर रहा था। जहाँ एक ओर दुर्योधन को अहंकार ने विचलित कर रखा था वहीँ दूसरी ओर अनुराग ने अर्जुन को शिथिल कर दिया था।
एक ओर दुर्योधन अपने महारथियों के सहित युद्ध की यलगार कर रहा था तो दूसरी ओर निढाल अर्जुन अपने शस्त्रों का त्याग कर कृष्ण की शरण में जा बैठा था। एक ओर दुर्योधन अपने परिवार के प्रियजनों गुरुजनों और वयोवृद्ध सदस्यों की जान को दांव पर लगा कर राज्य प्राप्त करने को अधीर हो रहा था तो दूसरी ओर अर्जुन उन सब का वद्ध कर पाप का भागी नहीं बनना चाहता था। दुर्योधन धरती का राज चाहता था पर उसकी कीमत देख करअर्जुन स्वर्ग का सुख भी नहीं चाहता था। भीष्म और द्रोण कर्तव्य के बस में थे और अर्जुन नियति के बस में था। दुर्योधन की आँखों में वैभव की चमक थी और अर्जुन की आँखों में करुणा। धृतराष्ट्र और दुर्योधन बिना विलम्ब युद्ध चाहते थे और अर्जुन अपने परिवार की रक्षा हेतु युद्ध से पलायन चाहता था। दुर्योधन ने अपने उद्देश्यों की रक्षा हेतु अपने परिवार को दांव पर लगा दिया था और उसी परिवार की रक्षा हेतु अर्जुन ने शस्त्रों को त्याग दिया था। धृतराष्ट्र चाहते तो युद्ध को रोक सकते थे पर वे ऐसा कर नहीं रहे थे। उन पर
पुत्र मोह के जाल के बंधन बहुत कठोर थे। कृष्ण युद्ध को इस लिए अनिवार्य मान रहे थे की इस मोह जाल को काट कर धर्म की संस्थापना हो सके, दुर्योधन की भुजायें युद्ध के लिए फड़क रही थी और अर्जुन निढाल बैठा था। शांति स्थापित करने के सारे प्रयत्न विफल हो चूका थे और धर्म अराजकता के अन्धकार में डूब चूका था।