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जिन्दगी : योद्धा और ज्ञानी

Tez Samachar by Tez Samachar
June 28, 2020
in Featured, विविधा
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जिन्दगी : ये मेरे पूज्य हैं कृष्ण

      जिन्दगी : योद्धा और ज्ञानी

Neera Bhasinहम जो कोई भी कार्य करते हैं  अपने स्वार्थ के लिए करते  हैं और खुश भी होते हैं और कभी कभी तो कोई काम ऐसा भी कर जाते हैं जिससे सामने वाले को कष्ट होता है दुःख होता है पर हम उससे दुखी या विचलित नहीं होते ,मन के किसी कोने में यह भाव उठता है की वो इसी दंड का अधिकारी था। अधिकतर लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं की अपने लिए सुख बटोरने के चक्क्रर में वे दूसरों को बड़ी से बड़ी हानि पहुंचने में भी नहीं झिझकते पर कुछ ज्ञानी  और संवेदनशील  लोग ऐसा साहस नहीं जुटा पाते हैं। कुरुक्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही दृश्य था यहाँ संवेदना और कर्तव्य के बीच तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। जन साधारण के लिए समाज के लिए और एक शासक के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है —यह प्रश्न धर्म के अंतर्गत आ खड़ा हुआ था।
  “At every level of our personality, we view life and come to our own conclusions over things. The imperfections that I can see in a physical object can fail to give me misery if I successfully gild the object with my emotional appreciation of it. Similarly, an object which is physically abhorrent and mentally shameful can still provide me with sorrow if I can appreciate it from my intellectual level.
                             Swamy Chinmaynanda …….
  परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हम इसे स्वाभाविक रूप से ग्रहण करें या दुखी हो कर यह हमारी बुद्धि के विकास  निर्भर है ,हमारे ज्ञान पर निर्भर है ,हमारी मान्यताओं पर निर्भर है ,उन परिस्तिथियों पर निर्भर है जिनमें हम रहते हैं उन विचारों पर निर्भर है जो हमारे पूर्वजों ने संस्कृति के रूप में  हमारे लिए निर्धारित किये हैं।  यह सब एक साधारण इंसान की एक साधारण सोच कही जा सकती है पर ज्ञानी पुरुष ऐसी परिस्तिथि में भी भिन्न रूप से सोचता है।
”  Wise men who understand life do not moan for things exist nor for things that deport .”
                             Swamy Chinmaynanda 
       इसलिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा था की एक तरफ तुम मोह जाल में फंस कर अपने कर्तव्य से मुहं मोड़ लेते हो और दूसरी तरफ पाप पुण्य की सोच कर ज्ञान की बातें कर रहे जो जो युद्ध भूमि में खड़े एक योद्धा के लिए उचित नहीं है ,यह उसके कर्म की अवहेलना है। तुम भ्रम में पड़े जान पड़ते हो। विचलित मनुष्य के विचारों की यहाँ पर एक बार फिर से विवेचना करनी पड़ सकती है ,फिर से सोचना पड़ सकता है की क्या अर्जुन का प्रलाप और वेदना अर्थ हीन  है ,इसी लिए कृष्ण ने कहा था की जब हमें ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो फिर दुःख का कोई कारण ही नहीं रह जाता।  श्लोक १२ —भावार्थ
     वास्तव में ऐसा नहीं है की किसी समय मैं नहीं था ,तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे ,और न ऐसा ही है की इसके आगे हम सब नहीं रहेंगे। आदि शंकराचार्य ने इसी बात को बहुत सुन्दर  शब्दों में कहा है “कृष्ण कहते हैं की मृत्यु तो केवल शरीर शांत कर सकती है ,आत्मा तो अमर है। ” श्री कृष्ण ने  जब यह कहा की ऐसा तो कोई समय नहीं था जब मैंनहींथा या तुम नहीं थे (ये बात किसी व्यक्ति विशेष से संबंध नहीं रखती -यह बीते हुए युगों और काल से संबंध रखती है )और ऐसा भी नहीं है की
आज के बाद हम कभी नहीं मिलेंगे क्न्योकि आत्मा कभी मरती नहीं है। पर मोहग्रस्त अर्जुन का सबसे बड़ा शोक का कारण एक ही था की यदि युद्ध भूमि में वह शस्त्र उठा लेता है तो विपक्ष में खड़े अपने ही परिवार
के लोगों की मृत्यु का कारण बनेगा। किसी भी तरह का युद्ध हो उसका परिणाम तो एक ही होता है मानव जाति का विनाश। यहाँ पर तो सम्पूर्ण भारत भूमि के राजा महाराजा  और योद्धा कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए सज्ज खड़े थे। जब हथियारों के प्रहार होते हैं तो दोनों तरफ से होते है और मनुष्य जो मृत्यु को प्राप्त होते है वे भी दोनों पक्षों के होते हैं। कभी भी किसी भी कारणवश कोई भी जीव धारी आगे बढ़ कर स्वेछा से मृत्यु को गले नहीं लगाता न ही कोई का  मृत्यु का आवाहन करता है।  चिरकाल तक जीवित रहना ,भोग्य वस्तुओं का उपभोग करना ,धन धान्य और सम्पदा का संचय करना ,सुखी जीवन की परिभाषा कही जाती है जब जब कोई शरीरिक रोग आ घेरता है तो उसका भरसक उपचार कर उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न किया जाता है ,और यदि कोई उपचार  न मिले तो ईश्वर की इच्छा मान  कर धैर्य धारण कर लिया जाता है। पर युद्ध भूमि यह न तो कोई प्रकृतिक आपदा है न असाध्य रोग न जन जन के हित का कारण है –यहाँ तो निजी स्वार्थ के लिए या किसी कारण को ध्येय मान कर भारी संख्या में मानव जाति को युद्ध में झोंक दिया जाता है। कल्पना करना भी कठिन लगता है की युद्ध में हथियार चलाता सैनिक क्या सोचता होगा की अधिक से अधिक दुश्मनों के   सैनिक मार गिरायुं ,अपने स्वामी की इच्छा पूर्ति के लिए अपने प्राण निछावर कर दूँ ,यही तो मेरा कर्तव्य है या फिर आज मैं  देश के लिए अपने प्राण निछावर कर स्वर्ग का सुख प्राप्त कर लूँ तो यह मेरे लिए बड़ा सौभाग्य होगा (इसी लिए तो उसे वेतन मिलता है )पर भावनाएं कुछ भी हों यह कदापि आसान नहीं है अपनी मृत्यु को आगे बढ़  कर गले लगाना। इतिहास में बलिदान की कहानियों की कमी नहीं है पर उनके उद्देश्य भी भिन्न थे और उनकी धारणाएं भी भिन्न थीं। अपने बलिदान के द्वारा राष्ट्रीयता को जागरूक कर वे अमर हो गए। आम लोगों का रक्त न बहा कर निशाना उन पर लगाया जो अत्याचारी थे।
                             पर यहाँ तो कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि है और उदेश्य अहंकार को बचाने  और राज्य प्राप्त कर पांडवों को पराजित करने का है। अर्जुन एक योद्धा वीर और ज्ञानी पुरुष थे ,एक क्षत्रिय के कर्म भूमि
युद्ध का मैदान होती है -वे इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं थे ,वे शोकाकुल थे तो इस कारण की विपक्ष में उनके कोई शत्रु नहीं खड़े थे ,आज अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए अपनेही लोगों को मारने  की परिस्तिथि आ गई है निःसंदेह यह युद्ध धर्म का युद्ध था पर था अपनों के साथ ही। युद्ध में जय हो पराजय वो मात्र उन लोगों की होती है जिन्होंने युद्ध का आवाहन किया पर सैनिक किसी भी पक्ष का हो उसकी तो मृत्यु ही होती है ,यह वो सत्य है जो सब को प्रत्यक्ष दिखाई देता है। सभी जानते हैं की युद्ध के परिणाम क्या होते हैं ,फिर भी युद्ध होते हैं और कभी कभी तो युद्ध के बिना कोई दूसरा विकल्प बचता ही नहीं और ऐसी एक परिस्तिथि में ‘महाभारत ‘का आवाहन कुरुक्षेत्र में हुआ पर विडंबना ये थी की पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ एक ही परिवार के लोग खड़े थे। यहाँ अर्जुन के हृदय में अनुराग उत्पन्न हो गया ,ऐसे में अर्जुन ने अपने मित्र को मार्ग दर्शन की शरण ली जिसे कृष्ण ने भी गुरु और मित्र का दायित्व पूर्ण रूप से निभाया।
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