जीवन दो विपरीत भावों के आधार पर चलता है -दोनों भाव समांतर तो हो सकते हैं पर साथ साथ मिल कर चल नहीं सकते क्योंकि दोनों की नियति विपरीत है ,फल विपरीत हैं ,भाव विपरीत हैं ,संवेदनाएं विपरीत हैं। ये भाव अर्थात दुःख -सुख , ख़ुशी -गम ,अँधेरा -उजाला ,आदि एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यदि इनमें से हमें कुछ भी प्रभावित करता है और हम उस दशा को पूर्णरूप से स्वीकार नहीं कर सकते तो हम सदा द्वन्द में ही फँसे रहेंगे। निर्दवन्द होने के लिए और शांति पाने के लिए , कर्तव्य निभाने के लिए हमें एक राह पकड़नी होगी। उस ओर बिना किसी शंका के चलना होगा -हो सकता है राह कठिन हो ,हो सकता है कोई पथ प्रदर्शक ना मिले ,हो सकता है लोग मुर्ख समझें पर कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे बढ़ने से मंजिल मिल ही जाती है।
इस लिए श्री कृष्ण द्व्न्द छोड़ अर्जुन को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करते हैं। रणभूमि में भी विपरीत परिस्तिथियाँ आती हैं ,हार या जीत ,यश या अपयश आदि और प्रत्येक परिस्तिथि या सोच संवेदनाओं को प्रभावित करती है। ऐसे में उचित यही है की इंसान दोनों ही परिस्तिथियों से ऊपर उठे और फल की चिंता न करते हुए अपने कर्तव्य
का पालन करे। जब मनुष्य ऐसी अवस्था को प्राप्त हो जाता है उसमे सत्व गुण प्रधान हो जाता है। उपरोक्त श्लोक में इन तीन गुणों -रज, तम, सत से भी ऊपर उठने की बात श्री कृष्ण ने अर्जुन से कही है।
और ऐसा तभी संभव है जब अर्जुन अपने मन में उठते द्वन्द को साध लेंगे। दृढ़ निश्चयी हो कर सभी विपरीत भावों से मुक्त हो जायेंगे।
श्लोक -46 अध्याय २ ,
भावार्थ -एक ओर से धरती के जल मग्न होने पर छोटे छोटे जलाशयों में (मनुष्य का )जितना प्रयोजन रहता है ,अच्छी तरह ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का सारे वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है (अर्थात प्रकार बड़े जलाशय को प्राप्त हो जाने पर जल के लिए छोटे जलाशयों की आवश्यकता नहीं रह जाती ,उसी प्रकार ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाने पर आनंद के लिए वेदों की आवश्यकता नहीं रह जाती। )
उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए और समझाने के लिए अलग अलग भाष्य कर्ताओं ने अलग अलग विचार प्रकट किये हैं। भाषा के आधार पर देखें तो बात अधूरी सी जान पड़ती है परन्तु यदि भाव के आधार पर देखें तो बात गहरी आवश्य है पर समझने की कोशिश करने से समझी न जा सके ऐसा भी नहीं है। यहाँ पर श्री कृष्ण ने
अर्जुन को जल का उदाहरण दिया है जल सर्वत्र है और सबके जीवन के लिए अनिवार्य है। तरह तरह के जल स्त्रोत जो अपने अपने उदगम स्थान पर देखे और पाए जाते हैं, वो मिटटी और नदी के कूल किनारों से किसी एक सीमा रेखा में बंधे हैं। समय समय पर जीव जंतु इनका प्रयोग भी करते हैं। पर इसके लिए उन्हें श्रम कर जलाशयों तक पहुंचना पड़ता है। लेकिन यदि पूरी धरती जल से ढंक जाये तो किसी को कहीं जाने की जरूरत ही नहीं वैसे ही ब्रह्म ज्ञान सर्वत्र है पर छोटे छोटे जलाषयों की तरह समय कर्म और व्यवहार से प्रतिबंधित है ,जिस दिन यह ज्ञान मनुष्य को पूरी तरह से ढांप लेगा ,अर्थात ज्ञान का जल जीवन को ओत प्रोत कर देगा , उस दिन से जलाशयों के स्त्रोत ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं होगी। पूरा जीवन ही ज्ञान मग्न हो जायेगा।
वेदों के ज्ञान की छाया तो सर्वत्र है उपलब्ध भिन्न भिन्न रूप में सीमित सीमा रेखा में है। इसका अनुसरण कर तदानुसार कर्म कांड कर हमें जो अनुभूति होती है और जो प्रसन्नता मिलती है वह
भी शाश्वत नहीं होती। लेकिन इन सब ज्ञान स्रोत्रों को मिला कर हमें जो ज्ञान मिलता है या अनुभूति होती है उसे परम् ज्ञान या परमब्रह्म की प्राप्ति कह सकते हैं। यही ‘परमान्द ‘कहा जाता है अर्थात ज्ञान का घड़ा भर चूका है। उसमें से बून्द भर पानी निकाल दिया जाये या डाल दिया जाये , कोई अंतर् नहीं पड़ेगा। घड़ा जल से भरा है -ज्ञान ब्रह्म ज्ञान की सीमा तक पहुंच चूका है अब उसके साथ किये गए व्यवहार से कोई अंतर् नहीं पड़ता।
श्लोक -47 —अध्याय , 2
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन , मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि। 47 |
भावार्थ — कर्म में ही तेरा अधिकार है ,और फलों में कभी नहीं ;(अतः ) तू कर्मफल का हेतु (अर्थात कर्म फल की इच्छा रखने वाला ) मत हो , तथा कर्म ना करने में भी तेरी आसक्ति ना हो।
वर्षों से उक्त श्लोक गीता का महानायक बना हुआ है। जब भी कभी कोई ऊंच नीच होती है या किसी ने अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है ,कोई काम निकलवाना हो ,या कुछ बुद्धि जीवी एक स्थान पर एकत्र हो ज्ञान की चर्चा कर रहे हों ,अच्छे कर्मों पर अपने विचार प्रगट कर रहे हों या तो फिर महिलाओं ने अपनी तथागतित सीमा लांघने का सोचा हो —– ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जहाँ इस श्लोक को एक हथियार की तरह प्रयोग किया जाता है। क्योंकि यह बात स्वयं भगवान् के श्री मुख से निकली है तो इसका प्रभाव भी गहरा होता है और परिणाम भी अधकतर वक्त के अनुरूप होता है। साधु संतों के कथा वाचन समारोह में जहाँ हजारों की संख्या में लोग अपना कीमती समय निकाल कर घंटों बैठे रहते हैं वहाँ भी उनको प्रस्तुत श्लोक का उदाहरण कई कई बार सुनाने को मिल जाता है। कथा कोई भी हो उसे रुचिकर बनाने में ,प्रभावशाली बनाने के लिए यह श्लोक दाल में घी की तरह काम करता है। इस उपरोक्त चर्चा को भी लोग दो भागों में बाँट लेते हैं ——
कुछ लोग इस कथन को ले कर बहुत ही संवेदनशील हैं तो दूसरी ओर कुछ लोग इसी बात को आधार बना कर अच्छे बुरे का विचार ही भूल बैठे हैं। जब फल की इच्छा या कामना ही नहीं करनी तो कार्य करने का क्या मतलब।धन -वैभव की प्राप्ति ,शत्रु के विनाश की कामना या फिर अच्छे व्यापार लाभ को आशा रखना यदि ये सब व्यर्थ है तो ऐसे कर्म करने का क्या लाभ। आम लोगों की धारणा यहीं से शुरू हो कर यहीं पर समाप्त हो जाती है -ऐसे लोगों की दृष्टि में ‘गीता ‘में लिखी गई किसी बात का कोई औचित्य नहीं रह जाता। उपरोक्त श्लोक को मात्र इसमें लिखी एक बात “फल की चिंता ना करते हुए कर्म करो ” से नहीं आँका जा सकता। हमें इस श्लोक की गहराई तक पहुँचने के लिए उस युग की सभ्यता और संस्कृति को जानना बहुत आवश्यक है। जिन घटनाओं के चलते ये परिस्तिथियाँ आयीं उनको भी जानना होगा और युद्ध किस हेतु किया जा रहा था यह भी समझना होगा। युद्ध क्यों अनिवार्य था -क्यों कृष्ण अर्जुन को बार बार युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे थे -क्यों अर्जुन शस्त्र नहीं उठा पा रहा था -क्यों उसके मन को दुविधा ने घेर रखा था। बात को गहराई तक समझने के लिए हमें आज की परिस्तिथि में हो रहे
उतार चढ़ाव को ,सामाजिक परिवर्तनों से झुझते लोगों की तुलना कर के भी देखना चाहिए की ये कैसी समस्यांएं थीं और हैं जिस कारण समाज तब भी क्षत -विक्षत था और आज भी वैसा ही क्यों है। इन सब परिस्तिथियों को जान कर ही हम श्री कृष्ण के उपदेश का मर्म जान सकते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए गीता के मर्म को समझना आवश्यक है ,तभी हम जान पाएंगे की कृष्ण ने क्यों कहा –“तुम अपना
कर्म करो ,फल की चिंता ना करो। “
यदि अर्जुन ने युद्ध के लिए इंकार किया था तो इसका कारण उसका अपने परिवार के प्रति मोह ही था। उसका भय निराधार नहीं था ,वो जनता था की विपक्ष में उपस्तिथ सब लोग मारे जायेंगे ,ये बात श्री कृष्ण भी जानते थे और इस कारण अर्जुन के मन की दुविधा भी समझ रहे थे जो युद्ध के फल की चिंता कर के शिथिल हो रहा था। इस लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा की वो फल की चिंता छोड़ कर शस्त्र धारण करे ,युद्ध के लिए सज्ज हो जाये ..अर्जुन के लिए यह एक भावनात्मक द्व्न्द था और श्री कृष्ण यह जानते थे। पक्ष विपक्ष अर्जुन के तो दोनों ही अपने भाई बंधु थे , एक ही परिवार के थे -अर्जुन का भावुक होना स्वाभाविक था ,पर ये एक धर्म युद्ध था ,अर्जुन को लोभ मोह अहंकार का त्याग कर समाज में फ़ैल रही अराजकता को मिटाना
ही होगा। अर्जुन की भावुकता धर्म की संस्थापना के लिए घातक हो जाएगी यदि वह फल की चिंता कर युद्ध से इंकार कर देता है तो। किसी भी कार्य के दो ही फल होते हैं विजय या पराजय | कुरुक्षेत्र में कर्म करना ही धर्म था।