यदि हम हिन्दू धर्म के मर्म का गहराई से अध्यन करेंगे तो समझ सकेंगे की कोई कर्म या यज्ञादि यदि बिना किसी फल प्राप्ति के हेतु किया जाता है तो इससे आत्मा की ,विचारों की और कर्मों की शुद्धि होती है। यह विचार धारा वेदों से भी ऊपर उठ कर है ,क्योंकि वेदों में दिए गए विधि विधान या कर्मकांड किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विस्तार रूप में वर्णित हैं। प्रस्तुत श्लोक में एक बात बहुत ही सुन्दर रूप से वर्णित है की हमें धर्मानुसार अपने कर्मों को प्रधानता देनी चाहिए और तदानुसार अपने जीवन की दिशा निर्धारित करनी चाहिए और इसी कर्म के दूसरे भाग में कर्म को अपना धर्म समझ कर उसका निर्वाह करना चाहिए और पूरे सच्चे मन से श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए। ऐसे में मनुष्य को कर्त्तव्य का पालन करते हुए फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यदि किया जाने वाला कार्य किसी उपयुक्त विषय के आधार पर किया जा रहा है, अनिवार्य है ,लाभकारी है ,जनहित को ध्यान में रख कर किया जा रहा है अर्थात स्वार्थ में आ कर दूसरों को दुःख तो नहीं पहुंचेगा -इस बात पर विचार कर अपना कर्म सुनिश्चित किया गया है तो बस वो कार्य कर लेना चाहिए। परिणाम तो दो ही होते हैं हार या जीत। अब यदि फल की इच्छा को ध्यान में रख कर काम करते हैं तो हम अपना पूरा ध्यान काम पर नहीं लगा सकते क्योंकि विचार तो परिणाम के आस पास घूम रहे हैं। परिणाम से होने वाले लाभ को सोच सोच कर मन ख़ुशी से झूम रहा है या फिर कहीं असफल न हो जाएँ यही सोच सोच कर मन की घबराहट बढ़ती जा रही है ,जब मन काम पर पूरी तरह से केंद्रित नहीं होगा तो हो सकता है हम अपने लक्ष्य से भटक जाएँ और विचलित मन या भयभीत मन कभी भी अपने कर्तव्य को सही से नहीं निभा सकता।
सांख्य दर्शन -श्लोक 85 ,प्रथम अध्याय —- भावार्थ -कामना वाले कर्मों का अनुष्ठान करने पर अथवा निष्काम कर्म ( जिससे सांसारिक भोग की कामना ना हो ) करने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि कामना वाले कर्म तो भोगों की प्राप्ति के लिए होते ही हैं ,किन्तु कामना -रहित कर्म मोक्ष की प्राप्ति के लिए होने पर भी चेतन – अचेतन का जब तक ज्ञान नहीं हो जाता ,तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं करा सकते। इससे सिद्ध हुआ की निष्काम कर्म भी ज्ञान के बिना कुछ विशेषता नहीं रखते।
सांख्य दर्शन – श्लोक 86 , प्रथम अध्याय ——भावार्थ –जो स्वभाव से मुक्त है ,वह आत्मा है ,जड़ प्रकृति के संपर्क में आ कर ही बंधन में पड़ा माना जाता है। उस समय वह अपने स्वरुप को भूल कर स्वयं को ही अचेतन समझने लगता है। इसी को अविवेक कहते हैं। इस अविवेक का नाश तब होता है जब वह अपने स्वरुप के दर्शन करता है और चेतन -अचेतन का ज्ञान प्राप्त कर लेता है ,तब भोग उत्पन्न करने वाला ,प्रकृति का संबंध उससे छूट जाता है। यही स्थिति बंधन से निवृति कही जाती है और इसी का नाम मोक्ष है ,यही अत्यंत पुरुषार्थ माना गया है ,और प्रकृति से उत्पन्न फलरूपी भोगों में और इसमें बिलकुल भी समानता नहीं है।
प्रस्तुत परिस्तिथि में जो कुछ श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं वो सांख्य दर्शन की ही व्याख्या है। सांख्य दर्शन को ध्यान में रख कर यदि हम सोचने का प्रयास करें की क्यों श्री कृष्ण ने अर्जुन को फल की चिंता किये बिना युद्ध के लिए प्रेरित किया वो इसलिए की जब अर्जुन फल की चिंता से परे हो जायेगा तभी वो अपनी व्याकुलता का त्याग कर युद्ध के लिए उद्धत होगा। श्री कृष्ण अर्जुन से जो कह रहे हैं वह कोई आदेश नहीं था एक ‘सच ‘था और ‘सच ‘ का कोई विकल्प नहीं होता। इस श्लोक में श्री कृष्ण ने कर्म योग का महत्व अर्जुन को बताया।
हम अपने जीवन भर दिन प्रति दिन कई छोटे बड़े कर्म अपनी दिनचर्या हेतु करते हैं पर ये तो अंततः न किसी फल की ओर ले जाते हैं और न ही मोक्ष की ओर। ये कर्म तो दिनचर्या का एक भाग हैं।
दूसरी ओर वे कर्म हैं जो किसी विशेष समय पर किसी वशेष कार्य सिद्धि के लिए किये जाते हैं। राग द्वेष ,अनुराग और श्रद्धा इसका कारण हो सकते हैं और ऐसे में हम फल की इच्छा को भी नकार नहीं सकते। ऐसी परिस्तिथि में किये गए कार्य में यदि मनोवंछित फल प्राप्त हो भी गया तो दूसरा पक्ष द्वेष का शिकार हो जायेगा। मान लें की इसमें कोई विपक्ष है ही नहीं मात्र अपना ही स्वार्थ है तो भी सफलता ना मिलने पर निराश हो जाना स्वाभाविक है। याद रहे यह कार्य मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए ही किया गया था। भविष्य में क्या है कोई नहीं जानता और यदि असफलता के भय से हम कर्म ही ना करें तो —ना इधर के रहे ना उधर के। पर फल की चिंता का त्याग कर यदि हम कर्म करते हैं तो पराजय हमें निराश या हतोत्साहित नहीं करती -मन इसे स्वीकार करता है और यदि जीत भी गए तो भी मन अपार प्रसन्नता से अभिभूत नहीं होता। अपने कर्तव्य का पालन कर संतोष का अनुभव करता है। राग द्वेष से परे हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। कह सकते हैं की हम संसार रह कर और सांसारिक कर्मों का निर्वाह करते हुए भी अपना जीवन कमल के पुष्प की भांति सूंदर वा निर्लिप्त रख सकते हैं।
वेदों के निर्देशों के अनुसार कर्म एक सीमित परिधि में रह कर किये जाते हैं और प्रत्येक कर्म या यज्ञ आदि किसी ना किसी उदेश्य को ले कर किया जाता है। पर यहाँ कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण अपने मित्र अर्जुन को उस परिधि से बाहर आने को कहते हैं और निर्लिप्त भाव से अपने कर्म को पूरा करने का उपदेश देते हैं। फिर सोचने वाली बात यह है की हमें अमुक कार्य करना है और अमुक कार्य करने में मेरी रूचि नहीं। यहाँ तक तो ठीक है की आपकी जिस कार्य में रूचि थी आपने वो किया क्योंकि यह आपके अधिकार में था ,पर आपको मनोवांछित फल नहीं मिला -कार्य पूर्ति में अनेक बाधाएं थीं जिनके बारे में आपको पहले से अनुमान था ,पर आपके पूरे प्रयत्न के बावजूद भी परिणाम आपकी इच्छानुकूल नहीं निकला ,यह कर्म दोष नहीं है न ही यह कोई पिछले जन्म का लेन देन है –कार्य करते समय हमारी सक्रीय सोच हमें विचलित बना देती है इसलिए फल कभी इच्छानुसार मिल जाता है तो कभी नहीं। कहने का तातपर्य यह है की ध्यान तो एक ही है या तो उसे हम फल में स्थापित कर लें या कर्म में। इसलिए श्री कृष्ण जी कहना है अच्छा होगा की फल को नियति पर छोड़ दो। हमारा भविष्य हमारे आज के किये गए कर्मों पर निर्धारित होता है और कर्म विचारों पर निर्धारित होते हैं —जय पराजय का यही आधार है। कर्तव्य या धर्म या फिर लोक हित को ध्यान में रख कर किये गए कार्यों से संतुष्टि प्राप्त होती है।
अर्जुन ने यहाँ अपनी शंका प्रगट करते हुए श्री कृष्ण से पूछा “यदि फल की कामना को ध्यान में ना रखें तो कर्म करने का उत्साह या प्रेरणा कैसे मिलेगी। “
(यह चर्चा आगे जारी रहेगी )