प्रख्यात बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के शिष्य एवं प्रतिभावान बाँसुरी वादक संतोष संत को संगीत विरासत में ही मिला. ग्वालियर घराने में प्रसिद्ध गायक रहे वसंतराव संत के घर जन्मे संतोष संत ने बांसुरी को प्रकृति की देन के रूप में चुना. अपनी लगन व मेहनत के दम पर संतोष संत ने मैहर घराने के बांसुरी वादक की पहचान रखते हुए आज प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के चहेते शिष्यों में खुद को शुमार कर लिया.
संतोष संत ने बताया कि उनके पिताजी श्री वसंतराव संत की कक्षा में गायन सीखने काफी बच्चे आते थे. वह सभी एक स्वर में सा-रे-गा-मा गाते थे. तब मुझे लगता था कि मैं कुछ हटकर करूंगा. संतोष संत ने भगवान श्री कृष्ण से प्रेरित होते हुए बांसुरी को चुना. मात्र आठ वर्ष की आयु में संतोष अपने पिताजी के गायन को बांसुरी पर सुरों में निकालना सीखने लगे. एक दिन पिता वसंतराव ने संतोष के कच्चे बांसुरी वादन को देखकर समझाया कि यदि यह वाद्य ही सीखना है, तो तुम्हे जीवन में पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के पास ही जाना होगा. संतोष ने तब पहली बार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की तस्वीर देखी थी. पिता के कथन को आदेश मानकर संतोष संत ने जीवन में पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का ही शिष्य बनना ठान लिया.
संतोष संत बताते हैं कि वर्ष 1991 में जब वह बांसुरी वादन के लिए शिष्य बनने हेतु पंडित हरिप्रसाद चौरसिया से मिले तब उन्होंने संतोष संत के बांसुरी वादन का तरीका देखकर शिष्य बनाने से मना कर दिया. पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने अपना शिष्य बनाने के लिए शर्त रखी कि यदि बांसुरी पकड़ने का तरीका बदलोगे, तब ही शिष्य बन सकते हो. संतोष का कहना है कि उस समय वह किसी भी शर्त को मानकर पंडित जी का शिष्य बनना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 4 साल तक बांसुरी वादन के साथ बांसुरी पकड़ने का अभ्यास किया, तब जाकर वह पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के शिष्य बन सके. संतोष आज भी पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का शिष्य बनने को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पल मानते हैं. उन्होंने बताया कि मैंने गुरुजी ( पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ) के कहने पर बचपन से बांसुरी पकड़ने की परम्परा को बदलना प्रारंभ किया. उन दिनों मैंने गुरुजी की एक जीवनी पढ़ी थी. उसमें पढ़ कर पता चला कि गुरुजी ने अन्नपूर्णा जी से बांसुरी सीखने के लिए पूरी साइड ही बदल ली. फिर मुझे लगा कि मैं सिर्फ बांसुरी पकड़ने की शैली नहीं बदल सकता. बस फिर क्या था मैंने पूरी लगन से अपना प्रयास प्रारंभ कर दिया.
ग्वालियर से मुंबई आने से पहले संतोष संत ग्वालियर में सितार वादक श्रीराम उमडेकर से बांसुरी वादन व संगीत की शिक्षा ले रहे थे.
संतोष संत को मध्यप्रदेश सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा अभिनव कला सम्मान, आल इंडिया रेडिओ व भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित हो चुके हैं.
बांसुरी को विश्व में मिली पहचान के लिए संतोष सिर्फ और सिर्फ पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को श्रेय देते हैं. गुरु जी से जुडी बातों को सांझा करते हुए संतोष संत ने बताया जब उस वर्ष गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर गुरुजी (आदरणीय गुरुजी पं.हरिप्रसाद चौरसिया जी ) विदेश में थे और उन्होंने मुझे दूरभाष पर गुरूजी की ओर से पूजा की थाली लेकर माँ जी (“अन्नपूर्णा” गुरु माँ ) के घर जाने का आदेश दिया. गुरुजी की आज्ञा का पालन करते हुए मैं गुरुजी के घर से पूजा की थाली लेकर परमगुरु माँ जी के निवास पर पहुँच गया. वहाँ पर मौजूद आदरणीय ऋषिकुमार जी ने द्वार खोला. बैठक में माँ जी लेटी हुईं थीं, उन्हें बहुत तेज़ बुखार था. मैने प्रणाम करते हुए थाली उनके (“अन्नपूर्णा” गुरु माँ ) चरणों में रखी और चुपचाप बाहर आ गया. बाहर आते ही मैंने हॉलैंड में गुरुजी को फोन लगा कर बताया कि माँ जी को तो तेज़ बुखार है, जिसके चलते वह लेटी ही रहीं, कुछ बोली ही नहीं. तब इसके जवाब में गुरुजी मुझसे बोले कि “कोई बात नहीं, जहाँ तुम अभी खड़े हो यह वह चौखट है, जहाँ पर पैर रखते ही हर संगीत-साधक का जीवन सफल हो जाता है..!!” बाँसुरी शिक्षा के साथ-साथ गुरुजी के यह वाक्य मुझे “गुरु-भक्ति” के उच्चतम स्तर का दर्शन करा गए..!!! धन्य है उनके जैसा शिष्य और धन्य हैं “अन्नपूर्णा” जैसीं गुरु माँ. संतोष संत कहते है कि इतने समर्पित गुरु पं. हरिप्रसाद चौरसिया जी का शिष्य होना भी एक बड़ा भाग्य है.