भारतीय राजनीति एक बार फिर परिवारवाद के शिकंजे में है. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव, मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री और ‘बंगाल टाइगर’ कहलाने वाले कैलाश विजयवर्गीय का ‘बल्लेबाज बेटा’ और इंदौर का बीजेपी विधायक आकाश विजयवर्गीय का कारनामा सुर्खियों में है. भाजपा अक्सर कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के वंशवाद-परिवारवाद को कोसती रहती है, लेकिन आकाश के ‘बैट-कांड’ से अब वह खुद घिरी हुई है. भाजपा के तमाम नेता-प्रवक्ता और सांसद-विधायक आकाश के उक्त कारनामे (निगम अधिकारी की क्रिकेट-बैट से पिटाई) पर कुछ भी कहने से बच रहे हैं. साफ है कि सत्ता का नशा भाजपाइयों पर चढ़ने लगा है. इंदौर ‘बैट-कांड’ इसी की परिणति है.
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इंदौर में गुंडई करने वाला विधायक आकाश, अगर भाजपा के दबंग नेता कैलाश विजयवर्गीय का बेटा नहीं होता, तो भाजपा अब तक उसे निलंबित कर चुकी होती. फिर भाजपा ही क्यों सभी दलों के भाई-भतीजे-बेटे ऐसे कारनामे करते हैं, तो आलाकमान उन्हें बचा ही लेता है. क्योंकि पार्टी में उनके ही ‘बाप का राज’ चलता है. एक रिपोर्ट के अनुसार 2004 से 2014 तक एक चौथाई (25 प्रतिशत) सांसद परिवारवाद की राजनीति से आए थे. 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 30 फीसदी हो गया है. कांग्रेस के 31 प्रश और भाजपा के 22 प्रश सांसद परिवारवाद से जुड़े होने के कारण टिकट पाए और जीते हैं. वहीं सपा, डीएमके, टीडीपी और टीआरसी जैसी पार्टियों की 100 प्रश महिलाएं सिर्फ राज-परिवार से जुड़ी होने के कारण चुनाव जीतती रही हैं.
तात्पर्य यह कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद ही महत्वपूर्ण हो गया है. निस्संदेह इस वंशवादी राजनीति की जनक कांग्रेस पार्टी रही है, लेकिन वही अब वंशवाद के कारण संकट में फंसी हुई है. हालांकि कांग्रेस का यही ‘वंशवादी-वायरस’ क्षेत्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर फैल चुका है. जैसे बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान का परिवार, उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अजीत सिंह का कुनबा, कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा का परिवार, आंध्रप्रदेश में एनटीआर-नायडू खानदान, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव का परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि-कुनबा जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार, पंजाब में बादल परिवार और महाराष्ट्र में पवार व ठाकरे परिवार आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो लोकतंत्र में भी राजतंत्र की याद दिलाते हैं. उक्त सभी पार्टियां एक ही परिवार की जागीर या ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ बनी हुई हैं. भारतीय राजनीति में ऐसे 34 शक्तिशाली वंशवादी परिवार हैं.
मजा यह है कि परिवारवाद की इस दलदली राह पर अब मायावती की बसपा और ममता बनर्जी की टीएमसी भी चल पड़ी है. इन दोनों धांसू नेत्रियों ने अपने-अपने भाई-भतीजे को राजनीति में आगे बढ़ाना शुरू किया है. मायावती ने हाल ही में अपने भाई आनंद कुमार को जहां पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया, वहीं, नकली भतीजे अखिलेश यादव से गठबंधन तोड़कर असली भतीजे आकाश आनंद को बसपा का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया है. यानि मायावती भविष्य में अपने भतीजे को ही बसपा की कमान सौंपने वाली है. ममता बनर्जी भी अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को आगे बढ़ा चुकी है. महाराष्ट्र में राकांपा सुप्रीमो शरद पवार भी अपनी पुत्री सुप्रिया सुले और भतीजे अजीत पवार को विरासत सौंप रहे हैं. इसी पार्टी के छगन भुजबल भी अपने भतीजे समीर को आगे बढ़ा रहे हैं.
मतलब साफ है कि राजनीति का वर्तमान दौर भी परिवारवाद के घने अंधेरे से बाहर आने को तैयार नहीं है, लेकिन इसी परिवारवाद की जनक कांग्रेस अब खुद इसके विपरीत चलना चाहती है. सोनिया गांधी ने एक समय अपने पुत्र राहुल से कहा था, ‘सत्ता जहर है!’ जिसे राहुल गांधी ने 2019 की करारी हार के बाद समझ लिया है. इसीलिए वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर ही नहीं बने रहना चाहते. यहां सोनिया को सुझाव दिया जा सकता है कि जब सारे नेता अपने भाई-भतीजे पर दांव लगा रहे हैं, तो वे भी अपने भतीजे को आगे क्यों नहीं बढ़ा देती? उनका क्रांतिकारी भतीजा है ‘वरुण गांधी!’ भले ही वह फिलहाल भाजपा में हैं, लेकिन कांग्रेस को भविष्य के लिए ऐसे ही डायनॉमिक लीडर की जरूरत है.
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