सवाल निराधार नहीं है। क्या एम. करुणानिधि के निधन के बाद द्रमुक में उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ सकती है? करुणानिधि एक दूरदर्शी राजनेता थे। भविष्य में उत्तराधिकार की लड़ाई छिडऩे की आशंकाओं के कारण उन्होंने अपने जीवन काल में ही छोटे पुत्र एम.के. स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इस फैसले के सकारात्मक परिणाम मिले। करुणानिधि की अस्वस्थता के कारण पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष स्टालिन अक्टूबर 2016 से पार्टी काम संभाल रहे हैं। लेकिन, बदले हालात में स्टालिन को चुनौती उनके भाई एम.के. अलागिरी से मिलने की आशंकाएं व्यक्त की जा रहीं हैं। कहते हैं, अलागिरी को पिता और भाई, दोनों से शिकायत रही है। उन्हें लगता है कि बरसों तक द्रमुक के लिए उन्होंने जो मेहनत की और पसीना बहाया, उसकी अनदेखी की गई। अलागिरी और स्टालिन के बीच तकरार और मतभेद न तो पार्टी के लोगों से छिप सके और न ही तमिलनाडु का आम आदमी इससे अनभिज्ञ रहा। अलागिरी केन्द्र में संप्रग सरकार में मंत्री रह चुके हैं। 2014 में अलागिरी को द्रमुक से बर्खास्त कर दिया गया। काफी मुखर लेकिन अस्थिर दिमाग के कहे जाने वाले अलागिरी का अपराध यह था कि उन्होंने उत्तराधिकारी संबंधी सवाल पर ऐसी टिप्पणी कर दी थी जो पिता करुणानिधि को पसंद नहीं आई। उनके बयान को स्टालिन के लिए सीधी चुनौती माना गया। अलागिरी ने कहा था, द्रमुक कोई मठ है जहां मुख्य पुजारी अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करेगा? उनके स्टालिन से व्यक्तिगत संबंध इस हद तक खराब हो चुके थे कि एक बार उन्होंने अपने भाई की तीन माह के अंदर मौत हो जाने जैसी अप्रिय टिप्पणी तक कर दी। अलागिरी की टिप्पणियों से करुणानिधि काफी आहत थे। उधर, करुणानिधि और स्टालिन के वफादार नेता मान रहे थे कि अलागिरी के बागी तेवरों से पार्टी की छवि मटियामेट हो सकती है। द्रमुक से बर्खास्त से किए जाने के बाद अलागिरी मदुरै में निर्वासित राजनीतिक जीवन जी रहे थे। पिता के स्वास्थ्य में गिरावट और उन्हें गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती किए जाने पर वह परिवार में वापस लौटे हंै। प्रथम दृष्टया दोनों भाइयों के बीच मेल-मिलाप दिख रहा है। द्रमुक के सूत्र भी उत्तराधिकार को लेकर दोनों भाइयों के बीच जंग छिडऩे आशंकाओं को खारिज करते हैं। द्रमुक के एक वरिष्ठ नेता और स्टालिन के करीबी का कहना है कि पिछले दस दिनों में अलागिरी और स्टालिन के बीच जिस तरह की समझदारी दिखी वह आशंकाओं को खारिज करने के लिए पर्याप्त है। वह दावा करते हैं कि द्रमुक में नेतृत्व को लेकर किसी विवाद की लेशमात्र आशंका नहीं है। स्टालिन पिछले कुछ सालों से पार्टी का कामकाज संंभाल रहे हैं। जहां जरूरी लगता,करुणानिधि की सलाह ले लेते थे। क्षमताओं को लेकर उनकी तुलना करुणानिधि से नहीं की जा सकती किन्तु यह सुनिश्चित मानिए स्टालिन की अगुआई में पार्टी एकजुट रहेगी और उसका जनाधार बढ़ेगा।
द्रमुक पर स्टालिन की पकड़ को देखते हुए पार्टी में स्टालिन के हितों के विरूद्ध जाने वाली टिप्पणी करने का साहस फिलहाल किसी में नहीं है। लेकिन फिर भी ऐसी बातों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जल्द ही स्थिति साफ होने की उम्मीद है। यह मानना जल्दबाजी होगी कि अलागिरी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का खुद ही गला घोंट दिया है। वह निर्वासित राजनीतिक जीवन से बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर अवश्य चलाएंगे। सबसे पहले उन्हें मदुरै छोड़ कर चैन्नई में डेरा डालना होगा। अपनी राजनीतिक सक्रियता के दौर में अलागिरी ने मैदानी कार्यकर्ताओं के बीच खासी पैठ बना ली थी। द्रमुक समर्थकों में उन्हें पसंद करने वालों की संख्या काफी हो गई थी। हालांकि पिता और भाई के संबंध में उनकी कथित टिप्पणियों को पसंद नहीं किया गया लेकिन अलागिरी को वाजिब हक मिलने की बात दबी जुबान से कही जाती थी। आज अहम सवाल यह है कि पिता के निधन के बाद अलागिरी उत्तराधिकार की लड़ाई छेड़ भी दें तो उन्हें पार्टी में कितना समर्थन मिल सकेगा? उनके अनेक कट्टर समर्थक अब द्रमुक में नहीं हैं। कुछ अपनी वफादारी स्टालिन के प्रति व्यक्त कर चुके हैं। तमिलनाडु की राजनीति की अच्छी समझ रखने वालों का मानना है कि अगर अलागिरी को अपनी ताकत का अहसास है तो वह स्टालिन के विरूद्ध कोई मोर्चा कम से कम इस समय नहीं खोलेंगे। चार साल लंबे निर्वासित राजनीतिक जीवन में वह कमजोर हुए हैं। दूसरी ओर, करुणानिधि कुनबा और पार्टी दोनों में स्टालिन की धाक जमी हुई है। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए स्टालिन ने लोगों को करीब से जाना और समझा है। उन्होंने पिता से पार्टी कार्यकर्ताओं और आम लोगों को जोड़े रखने की कला सीखी है। द्रमुक के लोग मानते हैं कि स्टालिन का धीर-गंभीर स्वभाव और विषयों को समझने की ललक उनकी छवि को मजबूत बनाती है। कम से कम स्टालिन के संबंध में नहीं कह सकते कि वह सिर्फ वंशवाद की बेल के सहारे ऊपर उठे हैं। करुणानिधि ने अपने दोनों बेटों को बारीकी परखा था। उन्हें निश्चित रूप से स्टालिन में अपना उत्तराधिकारी बनने की योग्यता दिखी होगी। यही कारण है कि स्टालिन को चरणबद्ध तरीके से राजनीतिक प्रशिक्षण दिया गया। उन्होंने पहले पार्टी के साधारण कार्यकर्ता के रूप में काम किया। स्टालिन ने द्रमुक यूथ विंग कमान संभाली थी। वह पार्टी के कोषाध्यक्ष बनाए गए। इसके बाद कार्यकारी अध्यक्ष रूप में काम कर स्टालिन ने नेतृत्व के गुर सीखे। दूसरी ओर करुणानिधि के करीबी रिश्तेदार दयानिधि मारन और अलागिरी को लोकसभा के लिए पहली बार निर्वाचित होते ही केन्द्रीय मंत्री बनवा दिया गया। जाहिर है कि करुणानिधि ने स्टालिन को प्रशिक्षण की भट्टी में तपा कर तैयार किया है। उद्देश्य साफ था कि समय आने पर स्टालिन खरे साबित हों। स्टालिन के समक्ष बड़ी चुनौती पार्टी में विरोध और बगावत के स्वर नहीं पनपने देने की होगी। स्टालिन ने पूर्व मुख्यमंत्री जयराम जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक में नेतृत्व को लेकर मची खींचतान को करीब से देखा है। वह जानते हैं कि द्रमुक में बगावत और उसके विभाजन से पार्टी को नुकसान होगा। पिता की तरह वह स्वयं को तमिलनाडु की राजनीति तक सीमित रख सकते हैं। इससे वह पार्टी पर अपना नियंत्रण मजबूत रख सकेंगे। द्रमुक के कमजोर होने पर स्टालिन केन्द्र में सत्ताधारी दल या गठबंधन से अधिक मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं होंगे। स्टालिन ने अपने पिता से यह बात अवश्य सीखी होगी कि परिवार और पार्टी मेंं अनुशासन के मामले में किसी प्रकार की नरमी नहीं बरतनी चाहिए।
तमिलनाडु में राजनीति नए मोड़ पर आ गई है। जयललिता के निधन के बाद सत्ताधारी अन्नाद्रमुक को विभाजन का सामना करना पड़ा। उत्सुकता का विषय यह है कि अगले चुनावों में करिश्माई चेहरे के अभाव में अन्नाद्रमुक कितनी सफल हो पाती है। तमिलनाडु में कांग्रेस की जस की तस है। उससे किसी करिश्मा की आशा नहीं की जा सकती। करुणानिधि ने 1967 में कांगे्रस को सत्ता से बाहर किया था। तब से वह राज्य की सत्ता में वापस नही कर पाई। फिल्म अभिनेता कमलहासन राजनीति में उतर चुके हैं। तमिलनाडु की राजनीति में फिल्मी हस्तियों का काफी प्रभाव रहा है किन्तु कमलहासन ने राजनीतिक को कॅरियर आप्शन के रूप में चुनने में काफी विलम्ब कर दिया। अत: उनकी सफलता को लेकर कोई दावा करना संभव नहीं लग रहा। तमिलनाडु में भाजपा पैर जमाने का प्रयास कर रही। वहां उसका व्यापक आधार नहीं है। मौजूदा परिदृश्य से स्पष्ट है कि तमिलनाडु में द्रमुक सबसे अधिक ताकतवर पार्टी है। उसके पास अनुभव है। स्टालिन जैसा एक चेहरा है। करुणानिधि समर्थकों और वफादारों के लिए इतना ही काफी है कि नेता की मृत्यु के बाद उनकी हालत राजनीतिक अनाथों जैसी नहीं है। द्रमुक में उत्तराधिकार की लड़ाई की आशंकाएं निर्मूल साबित होने के ही आसार हैं। स्टालिन के लिए रास्ता साफ है। उन्हें तमिलनाडु में सबसे शक्तिशाली राजनेता के रूप में स्थापित होने से रोक पाना किसी के लिए संभव होगा।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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