“बहुत सारे लड़के बेकवूफ बने हुए हैं। वो बीवी के रूप में एक वर्जिन लड़की को लेकर जागरूक नहीं हैं। वर्जिन लड़की एक सील बंद बोतल या सील बंद पैकेट की तरह है। क्या तुम सील टूटी कोल्ड ड्रिंक की बोतल या सील खुले बिस्किट के पैकेट को खरीदना पसंद करोगे? इसी तरह तुम्हारी बीवी का केस है”।
यह बयान कॉमरेड कनक सरकार ने दिया है। जादवपुर विवि के इस प्रोफेसर के बयान बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन इस कॉमरेड सरकार का नाम हाल में ही मीटू के अन्तर्गत आया था। उसके बाद इस संभावित बलात्कारी कम्यूनिस्ट प्रोफेसर के बचाव में कॉमरेड समुदाय की वूमेन ब्रिगेड सामने आई और उन लोगों ने एक लंबा पत्र जारी किया। किस्सा कुछ यूं है—
#मीटू अभियान पिछले साल रेया सरकार नाम की कानून की छात्रा ने शुरू किया। रेया ने उस वक्त दर्जनों प्रोफेसरों का नाम सार्वजनिक करने का साहस दिखाया था। पिछले साल इन पंक्तियों के लेखक को लगा था कि रेया का साथ कोई दे या ना दे इस देश के कम्युनिस्ट जरूर देंगे लेकिन जवाहर लाल नेहरू विवि में पढ़ाने वाली कॉमरेड निवेदिता मेनन की अगुवायी में कम्युनिस्टों ने साबित किया कि कथित बलात्कारी कम्युनिस्टों का ‘ना कोऊ दोष गोसाई’। गौरतलब है कि रेया सरकार ने जो सूचि जारी की थी, उनमें अधिकांश कम्यूनिस्ट प्राध्यापक थे।
रेया सरकार ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए जिन नामों का खुलासा किया, उनमें जादवपुर विवि से कनक सरकार, दीपेश चक्रवर्ती, प्रोदोष भट्टाचार्य, कौशिक राय, सुमित कुमार बरूआ, अभिजीत गुप्ता, मृदुल बोस, रबीन्द्र सेन, विश्वजीत चटर्जी, मिहिर भट्टाचार्य का नाम शामिल था। संत जेवियर कॉलेज, कोलकाता से पार्थ मुखर्जी, खालीद वसीम, टिस, तुल्जापुर से, जेएनयू से सुरिन्दर एस जोधका, दिल्ली विवि के रामजस कॉलेज से बीएन राय का नाम प्रमुख रूप से लिया गया था।
रेया सरकार की सूचि अकादेमिक दुनिया से संबंधित थी। सोशल मीडिया पर उनके लोशा (लिस्ट आॅफ सेक्सुअल हरासर इन अकादेमिया) को भरपूर सहयोग मिला। उनके पास शिकायतें आई। इन शिकायतों के बाद रेया सरकार की सूचि 75 तक पहुंच गई। 30 कॉलेज और विश्वविद्यालयों से ताल्लूक रखने वाले ये प्राध्यापक भारत, यूके और यूएस से थे। पिछले साल यह सूचि जारी होते ही अकादेमिक जगत में हाहाकार मचा और देखते ही देखते इस सूचि को 1000 से अधिक लोगों ने शेयर किया। अचानक फेसबुक ने रेया सरकार के पेज को ही ब्लॉक कर दिया।
निवेदिता मेनन द्वारा उस दौरान कम्यूनिस्ट प्रोफेसरों को #मीटू से बचाने के लिए जारी किए एक पत्र में लिखा गया था कि ऐसे नाम लेकर किसी को बदनाम नहीं किया जा सकता। बिना जवाबदेही के नाम दिया जाएगा तो इस तरह कोई भी किसी का नाम लिख सकता। निवेदिता मेनन के बयान के साथ सहमति में कविता कृष्णन, आयशा कीदवई, ब्रिन्दा बोस, नंदिनी राव, जानकी नायर, ब्रिन्दा ग्रोवर जैसे कई कम्यूनिस्ट एक्टिविस्टों के नाम शामिल थे। दूसरी तरफ दुनियाभर में चला #मीटू का अभियान सोशल मीडिया ट्रायल का ही था। एमजे अकबर पर जो आरोप लगे, उसका कोई सबूत आरोप लगाने वालों के पास नहीं था लेकिन अकबर के मामले में पूरे कम्यूनिस्ट गिरोह का स्वर ही बदला हुआ था। वे सब अकबर के खिलाफ बयान दे रहे थे। लेख लिख रहे थे। इसी दौरान मीटू में विनोद दुआ,जतिन दास, सिद्धार्थ भाटिया जैसे कम्यूनिस्टों के नाम सामने आए। इन नामों के सामने आते ही मीटू इस तरह गायब हुआ जैसे कम्यूनिस्टों ने ऐसा कोई अभियान भारत में कभी प्रारम्भ ही नहीं किया था।
कम्यूनिस्ट के बीच आंदोलन संस्कृति का एक स्याह पक्ष है कि वे अपने बीच के अपराधी को बचाने के लिए किसी हद तक गिरने को तैयार होते हैं। इस तरह वे एक गिरोह की तरह काम करते हैं। यह गिरोह अफवाह फैलाने से लेकर, अपराधियों के महिमामंडन तक का प्रशिक्षण अपने वरिष्ठ साथियों से पाता है और उस परंपरा की तरह आगे बढ़ाता भी है।