मध्यप्रदेश के हरपालपुर जैसे छोटे कसबे में पली बढ़ी नीरा भसीन हैदराबाद में एक विद्यालय की प्रधानाचार्या रह चुकी हैं. लेखिका, अनुवादक, मोटिवेशनल स्पीकर के साथ साथ वह विवेकानंद केंद्र के लेखन कार्य से जुडी हुई हैं. उनके सामायिक विषयों के लेख देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशित होते हैं. सेवानिवृत्त होने के बाद भी अपने कार्य जूनून के चलते वह हैदराबाद के विद्यालय में अपनी सेवाएं दे रही हैं.
जुलाई 1947 की बात है …
भारत का विभाजन लग भग निश्चित था .देश भर में जाति वाद के नाम पर हाहाकार मचा हुआ था ,कुछ मुठी भर लोग अपने घर बार छोड़ कर पंजाब दिल्ली आदि क्षेत्रों में आ कर बस गए पर बाकी सब लोग यह मानने को यह तैयार ही नहीं थे की उन्हें उनके अपने घरों जमीनों और व्यापार को छोडना पड़ सकता है .ऐसे लोगों ने अंत तक अपनी जनम भूमि पर रहने की ठान ली थी पर धीरे धीरे हालात बहुत ही बिगड़ रहे थे .आगजनी और मारकाट की घटनाएँ जगह जगह हो रही थीं जिसके कारण वश पुलिस का पहरा बढता जा रहा था और जगह जगह पुलिस कर्फ्यू लगा रही थी .लोग अपने घरों में दुबके रहते थे फिर भी भय हमेशा बना रहता था .सबसे पहले अपनी जान की चिंता फिर भविष्य की चिंता –भाग कर कहाँ जायेगे .जन्म भूमि का मोह कितना भी बड़ा क्यों न हो यदि जीवन ही न बचा तो क्या कर पायंगे, खाली हाथ — जीवन सुरक्षा भी भारी पड़ रही थी . अब वे बहुत कम लोग बचे है जिन्हों ने विभाजन का विभीत्स रूप देखा है .पर आज भी जब उन्हें वो पल याद आते है तो उनकी आँखों मै दहशत छा जाती है .ऐसी ही आँखों देखी कुछ बातें मुझे कृष्णाजी और उनके पति लालचंद जी ने बताई .निम्न कहानी को मात्र आँखों देखी नहीं कह सकते ये आप बीती घटना है .
मात्र आँखों देखी नहीं-आप बीती घटना !!
श्रीमती कृष्णा जी और लालचंद जी लाहोर में बेंड- रथ रोड पर रामगली में रहते थे विभाजन के दस पंद्रह दिन पहले की है चारों तरफ मारकाट हो रही थी .कहना मुश्किल था की कौन किसको मार रहा था .ऐसे मै कृष्णा जी ने अपनी ससुराल डिंगी जाने का निश्चिय किया .ये जरुरी था की पूरा परिवार साथ मे रहे .लालचंद जी लाहोर मे मेडिकल कालेज मे एक कलर्क हेसियत से काम करते थे और उनका वहां जाना कठिन था .फिर भी वे कृष्णा जी को डिंगी छोड़ने चले गए .जिस गाड़ी से ये लोग जा रहे थे उसमे अधिकतर मुस्लमान लोग ही थे .सारा रास्ता देश के बटवारे को ले कर गाली गलोच चलता रहा .कभी कभी तो उन्हें लगा की अभी तलवारें चलने लगेंगी .किसी तरह इश्वर का नाम ले कर ख़ामोशी से सफर पूरा किया और जेसे तेसे घर पहुंचे .डर के मारे उनके प्राण कंठ मे अटक गए थे पर इन हालातों मे भी लालचंद जी को अपनी नौकरी पर जा कर हाजरी देनी थी.यह सम्भावना भी थी की उनका स्थानानतरण शायद नए भारत मे कहीं हो जाये इस लिए कार्यालय पहुंचना जरूरी था .
वेश बदल कर पहुंचे लाहौर !!
वे रात के समय डिंगी शहर से अपना वेश बदल कर निकले .उन्हों ने लुंगी पहन ली सर पर बहुत सा तेल लगा सर के बीचों बीच मांग निकाल ली .किसी तरह बचते बचाते वे लाहोर पहुँच गए .यहाँ आ कर वे अपनी ससुराल मे रहने लगे .उनके ससुर जी भी मेडिकल कालेज मे हेड कलर्क थे शायद १२ या १३ अगस्त (स्वतंत्रता से दो तीन दिन पहले )की बात है डर की वजह से लालचंद जी ने अपने ससुराल वालों के साथ घर छोड़ दिया और यूनिवर्सिटी हाल के पीछे सरकारी सिविल डिस्पेंसरी के इंचार्ज डॉक्टर सबरवाल के पास रहने चले गए. वहां डिस्पेंसरी के नल पर हाथ मुंह धोने या नहाने के लिए कुछ मिलटरी वाले आते रहते थे और आपस में बात करते थे “मैंने आज २० आदमियों को मारा दूसरा कहता मैंने २५ को मारा ” मानो मानव हत्या न हुई कोई तमाशा हो गया .इनकी बहादुरी के किस्से सुन सुन कर लालचंद जी ने एक मिलटरी वाले से उनकी बहादुरी के किस्से सुनाने का अनुरोध किया..
मिलटरी वालों ने बताया की हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही मिलटरी वाले मिल कर गश्त पे जाते है अगर मुस्लमान सिपाही को कोई हिन्दू या सिख दिख जाता है तो वो उसे गोली मार देता है और यदि हिन्दू सिपाही को कोई मुस्लमान दिख गया तो वो उसे गोली मार देता है .बस इसी तरह हम अपनी ड्यूटी पूरी करते है ,शाम को यहीं इकठे हो कर विश्राम करते है .उधर मारकाट के बाद लाशें उठा कर मेडिकल कालेज के मुर्दा घर मे रख दी जाती थीं .. यहाँ भी यदि कोई हिन्दू सेवा समिति वाली टोली आ जाती तो उसे सामने से उठा कर १० लाशें दे दी जातीं.बिना पहचान किये की वो हिन्दुओं की लाशे थी या फिर मुसलमानों की वे लाशें ले जाते और उनका दह संस्कार कर देते . .इसी तरह जब मुसलमानों की कोई समिति या फिर खाकसार पार्टी के लोग आते तो उन्हें भी सामने से १० लाशें उठा कर दे दी जाती और वे जा कर दफना देते .शायद लाशों की कोई जाति नहीं होती .
आख़िरकार लाहौर छोड़ने का किया फ़ैसला !!
१५ अगस्त को लालचंद जी ने अपनी ससुराल वालों के साथ मिल कर लाहोर छोड़ने का निश्चय कर लिया .१५ अगस्त को जब ये सब लोग लाहोर स्टेशन पर बेठे तो पूरा स्टेशन और आस पास के सारे इलाके को खाक सार पार्टी के हथियारबंद लोगों ने घेर रखा था ——कारण की जेसे ही पाकिस्तान बनने की घोषणा होगी वेसे ही स्टेशन पर बेठी हिंदुयों की भीड़ की कतल कर दी जाएगी.शाम को जब पाकिस्तान बनने की घोषणा हुई तो चारों तरफ भाग दौड़ मच गई .समाचार ये मिला था की लाहोर शहर पाकिस्तान मे आ गया है पर लाहोर छावनी स्टेशन भारत की सीमा मे चला गया है .पलक झपकते ही खाकसार पार्टी के लोग वहां से भाग गए और स्टेशन पर खड़े हिंदुयों की जान बच गई .रात १२ बजे भटिंडा जाने वाली गाड़ी आई और लालचंद जी अपने परिवार के साथ उसमे सवार हो गए —–पर आगे जाना कहाँ है वो किसी को पता न था .
सुबह होने से पहले वे भारत की सीमा मे प्रवेश कर चुके थे .जेतो मण्डी कोई दूर के रिश्ते दर रहते सब लोग यहीं उतर गए और ३–४ दिन बाद फिरोजपुर जालंधर होते हुए अमृतसर आ गए और यहीं पर लालचंद जी पोस्टिंग मेडिकल मे हो गई.कुछ समय बाद कृष्णा जी भी अपने बचे खुचे परिवर के साथ अमृतसर पहुँच गई.परिवार के चार लोग विभाजन की भेंट चढ़ चुके थे.अमृतसर मे पुतलीघर इलाके मे १२ नंबर माकन मे आ कर रहने लगे .यहाँ रहने वाले मुस्लमान अपने घर बार छोड़ कर पाकिस्तान जा चुके थे —और अब ये मोहल्ला पूरी तरह सुनसान था जहाँ पाकिस्तान से आये हिन्दू अपने सर छुपाने की जगह ढूंड रहे थे इसी मकान मे लालचंद जी को हीर राँझा की एक पुरानी पुस्तक मिली
पहली पंक्ति जो उनहोंने पड़ी वो कुछ इस तरह थी ..
“की होया जे भज गया ठुठा
सातों कीमत ले लवे मठ दी” …