
कई बार बिना आग के धुआं तब उठता है जब कोई ‘फिल्मी सीन’ फिल्माया जाता है. जबकि कई बार आग लगने पर भी धुएं का गुबार उड़ते हुए देखा जाता है. पुणे पुलिस द्वारा देश के जिन पांच वामपंथी विचारकों (लेखक, कवि, पत्रकार, वकील और सामाजिक कार्यकर्ताओं) की गिरफ्तारी मोदी-शाह-राजनाथ की हत्या के कथित षड्यंत्र के आरोप में की गई है, उससे यही सवाल उठ रहा है कि यह वास्तविक आग का धुआं है या ‘कृत्रिम क्रिएशन?’ पुलिस का आरोप है कि इन लोगों के नक्सलवादियों से संबंध हैं और ये देश के खिलाफ बड़ी साजिश करके मोदी सरकार के ‘तख्तापलट’ की योजना बना रहे थे. पुलिस ने अपने पास इनके खिलाफ पुख्ता सबूत होने का दावा भी किया है, लेकिन इनके समर्थकों का कहना है कि यह ‘स्टेट टेररिज्म’ है… यानी ‘सरकारी आतंक’!
वामपंथी विचारक कवि व लेखक वरवरा राव, वकील व प्रोफेसर सुधा भारद्वाज, वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा, गोल्ड मेडलिस्ट चिंतक वेरनॉन गोंजाल्विस सहित वकील व मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अपने ही घर में नजरबंद हैं. ये सभी लोग मानवाधिकार और अन्य मुद्दों को लेकर मोदी सरकार के घोर आलोचक हैं. वैसे मानवाधिकार के बहुत सारे ‘खरे-खोटे मुखौटे’ देश भर में मौजूद हैं, लेकिन इन पर आरोप है कि ये लोग हिंसा को बौद्धिक रूप से पोषित करते हैं. दूसरी ओर, देश के दिग्गज नेता और मराठा क्षत्रप शरद पवार कहते हैं कि वे इनमें से कुछ को जानते हैं और ये लोग वैसे नहीं हैं, जैसा कि पुलिस का आरोप है. वैसे पवार साहब हमेशा ही ‘सच’ बोलते हैं, ऐसा मानने वाले भी आपस में बंटे हुए हैं. माओवाद के समर्थकों का आरोप है कि मोदी सरकार के ‘फासीवादी दांत’ अब खुले में निकल आए हैं. वह एक-एक कर अपने तमाम विरोधियों और आलोचकों का मुंह बंद करने में जुटी है. मगर देश तो सच जानना चाहता है और दूध का दूध व पानी का पानी तो अदालत में ही होना है.

सवाल है कि कोई भी सरकार या संस्था, विपक्ष या आलोचकों की आवाज कैसे दबा सकती है? अभिव्यक्ति की आजादी के तहत सरकार के विरोध में अपनी बात रखना सबका अधिकार है. गरीबों, किसानों, पिछड़ों, आदिवासियों और सर्वहारा वर्ग के पक्ष में हम जैसे कई लेखकों की कलम निर्भीकता से चलती है. इसका मतलब यह नहीं कि हम सब (लेखक) ‘नक्सली’ हैं. वैसे सुप्रीम कोर्ट के अनुसार जेल में बंद किसी नक्सली से मिलना कोई ‘देशद्रोह’ नहीं है. नक्सल-नीतियों से नफरत सब करते हैं. प्रधानमंत्री रहते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने भी नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था, किन्तु उन्हीं की कांग्रेस पार्टी और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी इन वामपंथी विचारकों के समर्थन में हैं. यूं भी राहुल गांधी की फितरत है कि वे मोदी विरोधियों के पक्ष में खड़े हो ही जाते हैं. यह उनका अपना राजनीतिक तरीका है, लेकिन वर्तमान प्रकरण को राजनीतिक व मानवाधिकार के चश्मे से नहीं, बल्कि कानूनी नजरिए से ही देखने और गहराई से इसकी जांच करने की जरूरत है.
इन पांचों चर्चित वामपंथी बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी पर सियासत होना ही गलत है. पीएम के जीवन की सुरक्षा से जुड़े किसी भी मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए. क्योंकि देश ने ऐसे ही षड्यंत्रों के कारण दो-दो प्रधानमंत्री खो दिए हैं. कानून को पहले अपना काम करने दीजिए. तभी यह साफ होगा कि मानवाधिकार का ‘मुखौटा’ लगाने वाले ये लोग खरे हैं ….या खोटे? या फिर इनका भी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित और स्वामी असीमानंद जैसा हाल हो जाएगा? अगर राज्य या केंद्र सरकार जानबूझकर अन्य समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए उनका उत्पीड़न कर रही है, तो उसे भी 2019 में इस पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा, किंतु अगर ये ‘शहरी नक्सली’ वाकई मोदी-शाह की संभावित हत्या के षड्यंत्रकारी साबित हुए, तो देश इन्हें कभी माफ नहीं करेगा. मोदी सरकार की गलत नीतियों का विरोध हर भारतीय नागरिक कर सकता है, लेकिन किसी की हत्या करने की इजाजत इस देश का कानून और संविधान कभी नहीं देता!
“संविधान बड़ा है, जिस पर देश खड़ा है।
उतरता वही है, जो नजरों पर चढ़ा है।।”
सुदर्शन चक्रधर 96899 26102

