जेएनयू में लगी दीमक का इलाज हो !
जेएनयू को दो साल के लिए बंद कर दिया जाए, वहां पूरी सफाई हो और इसके बाद विश्वविद्यालय को नए नाम से खोलना चाहिए। सांसद डा. सुब्रमण्यम स्वामी का यह सुझाव भले अव्यावहारिक लगे लेकिन सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। स्वामी की प्रतिक्रिया जेएनयू में छात्र आंदोलन के नाम पर की जा रहीं शर्मनाक हरकतों पर आई है। 2016 में भी डा. स्वामी ने कुछ ऐसा ही सुझाव दिया था। जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगाये जाने की घटना के बाद उनकी राय थी कि इसे चार माह के लिए बंद कर दिया जाए। वहां पुन: हद पार की जा रही है। परिसर में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को ढांकने के लिए लगाया गया कपड़ा फाड़ दिया गया। किसी विकृत सोच वाले ने लिख दिया, भगवा जलेगा। कुलपति के कक्ष के बाहर लगी नेमप्लेट तोड़ दी गई। दीवारों और दरवाजे पर भद्दे नारे लिखे गए। डेढ़-दो साल पहले डीन स्टूडेंट के साथ दुव्र्यवहार की घटना हो चुकी है। जेएनयू में विवादास्पद घटनाओं की लिस्ट लंबी है। शिक्षकों तक को बंधक सा बना लेने जैसी घटनाएं सुनी जा चुकीं हैं। 2015 में भारतीय संस्कृति पर कोर्स का विरोध किया गया। 2010 में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों की मौत के बाद इंडिया मुर्दाबाद, माओवाद जिंदाबाद के नारे लगाये गए। 2000 में दो सैन्य अधिकारियों पर हमला कर उन्हें बुरी तरह पीटा गया। इन अधिकारियों ने एक पाकिस्तानी शायर की भारत विरोधी टिप्पणी का विरोध किया था।
जेएनयू में आंदोलन के नाम पर जैसा दिखाया जा रहा है वैसा है नहीं। मौजूदा आंदोलन के पीछे की कहानी कुछ और समझ आ रही है। कुछ छात्र दबी जुबान से स्वीकार करते हैं कि यहां एबीवीपी के बढ़ते प्रभाव से चार प्रमुख वाम छात्र संगठन बेचैन हंै। खाक हो रही पुरानी धाक बचाने के लिए बाहर बैठे आकाओं का भारी दबाव है। फीस वृद्धि का विरोध सहानुभूति बटोरने के लिए हथकंडा मात्र है। उनकी बौखलाहट की एक और वजह स्वच्छंदता पर अंकुश के लिए उठाये गए कदम हो सकते हैं। रात 11 बजे तक हॉस्टल में लौट आने, डाइनिंग हाल में ड्रेस कोड लागू करने और कुछ अन्य सख्तियों में आखिर बुराई क्या है? विश्वविद्यालय कार्यसमिति फीस वृद्धि और अन्य शर्तों में बड़ी वापसी की घोषणा कर चुकी है। इससे बात नहीं बनी। पूरी बढ़ी फीस वापस लेने की मांग की जा रही है। सवाल यह है कि आखिर ऐसी कितनी फीस बढ़ गई जो हंगामा किया जा रहा है। वृद्धि में शिक्षण शुल्क तो शामिल ही नहीं है। हॉस्टल रूम शुल्क, मैस की सिक्योरिटी राशि और बिजली बिल शुल्क आदि में बढ़ोत्तरी को फीस वृद्धि निरूपित कर भ्रामक प्रचार किया जा रहा है। दो बिस्तरों वाले कमरे का किराया पहले सिर्फ दस रुपये था जिसे तीन सौ रुपये किया गया। इस वृद्धि को घटा कर अब 100 रुपये कर दिया गया है। सिंगल बिस्तर वाले कमरे का किराया बीस रुपये से 600 रुपये किया गया था जो 200 रुपये कर दिया गया है। हॉस्टल में रहने के लिए कुछ नियम-कायदे तय किए गए थे। प्रशासन उन पर भी नरम पड़ गया। हंगामाई तत्वों ने खुद ही सच सामने ला दिया। जेएनयू में नगण्य सी हॉस्टल फीस की खबरें लोगों की आंखें आश्चर्य से चौड़ी कर रही हैं। सवाल उठ रहे हैं। निचोड़ यह है कि केवल आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को छूट दी जानी चाहिए। परिसर में अनुशासन के मामले में किसी प्रकार से समझौता नहीं किया जाए। साढ़े आठ हजार छात्रों के भविष्य से खेलने की इजाजत किसी को नहीं मिले। केन्द्र सरकार और जेएनयू प्रशासन को झुकना नहीं चाहिए। जरूरी है तो सख्ती की जाए। शांति निकेतन स्थित विश्व-भारती विश्वविद्यालय को ही लें। वहां कुलपति के अनुरोध पर सीआईएसएफ तैनाती को मंजूरी दे दी गई है। आए दिन छात्रों, कर्मचारियों और प्रशासन के बीच टकराव पैदा होता है। तनाव की वजह तृणमूल कांग्रेस के दादाओं दखल को बताया जाता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय भी सुरक्षा की मांग कर चुका है। उनके अनुरोध पर अभी फैसला नहीं लिया गया है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों पर सियासी उस्तादों के वरदहस्त की संभावना से इंकार नहीं कर सकते। कतिपय राजनीतिक दलों के लिए जेएनयू सियासी नर्सरी की तरह है। संदेह की पुष्टि के लिए छात्र आंदोलन के समर्थन में आई प्रतिक्रियाएं पर्याप्त हंै। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रतिक्रिया पर गौर करें। माकपा ने कहा है कि वहन-योग्य शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे छात्रों पर किए जा हमलों की हम निंदा करते हैं। छात्रों की मांगों को तत्काल पूरा किया जाए। हम छात्र समुदाय के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं। कांग्रेस की प्रतिक्रिया आग में घी डालने जैसी रही। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुष्मिता देव ने कहा कि मैं जेएनयू की भावना, वास्तविक मुद्दों पर निर्भयता और टकराव, से प्यार करती हूं। देव ने आगे कहा कि शिक्षा को चोक और मस्तिष्क का खत्म करने का आरएसएस का पुराना एजेण्डा रहा है। जेएनयू में जवाबी हमले से मैं खुश हूं। जेएनयू छात्र आंदोलन पर प्रतिक्रिया सपा नेता अखिलेश यादव ने भी व्यक्त की है। उनकी प्रतिक्रिया का मकसद बहती गंगा में हाथ धो लेने जैसा है।
जेएनयू में राजनीतिक दखल आज की बात नहीं है। यह इसकी स्थापना के साथ शुरू हो गया था। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद 520 सीटों वाली लोकसभा में कांग्रेस के सिर्फ 222 सदस्य रह गए थे। उस समय भाकपा(19) और माकपा(23) ने इंदिरा गांधी सरकार को सहारा दिया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आपातकाल का समर्थन किया था। इंदिरा गांधी जेएनयू में बढ़ते वाम संक्रमण पर अनजान बनी रहीं। नतीजा यह रहा कि जेएनयू वाम गुरुकुल बन गया। माकपा नेता सीताराम येचुरी जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष रह चुके हैं। 1977 के चुनावों में कांगे्रस की हार के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति डा. बीडी नागचौधरी और कुलाधिपति पद से इंदिरा गांधी को इस्तीफा देने पर विवश कर दिया था। बहरहाल, ए डबल प्लस जैसी शानदार नैक रेटिंग वाले जेएनयू में मची गंदगी को साफ करने की जरूरत है। वहां सरकारी सब्सिडी के कारण हर छात्र पर करदाताओं के लगभग चार लाख खर्च होते हैं। नि:संदेह इसके अच्छे परिणाम सामने आते रहे हैं। जेएनयू ने हजारों प्रतिभाएं दी हैं। कहा जाता है, जेएनयू में आने वाले छात्रों के सामने दो रास्ते होते है। एक-भविष्य बना लो और दूसरी-परिसर में मौजूद दीमकों की संगत में भविष्य चौपट कर लो। सरकार को उन छात्रों की मदद करनी है जो भविष्य बनाने आते हैं।