गुरुनानक देव जी के सामाजिक समरसता सन्देश का विश्व प्रसार
सिख पंथ को हिन्दू धर्म की संत परम्परा से निकले पंथ के रूप में उल्लेखित किया जाता है. भारतीय संत परम्परा के महान संत गुरुनानक देव जी के अवतरणके साथ ही सिख पंथ सनातन धर्म प्रसार के उदय का प्रखर बिंदु माना गया है. उस समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करने के लिए महान संत गुरुनानक देव जी ने अपने अवतरण को सार्थक बनाया, यही कारण है की गुरुनानक देव जी के उपदेशों, शिक्षा व सुझावों से विश्व के अनेक धर्म लाभान्वित हुए हैं.
भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. यहां तक कि हमारी वैदिक संस्कृति के कई मंत्रों में ’गुरु परमब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ अर्थात् गुरु को साक्षात् परमात्मा परमब्रह्म का दर्जा दिया गया है. आध्यात्मिक गुरु न केवल हमारे जीवन की जटिलताओं को दूर करके जीवन की राह सुगम बनाते हैं, बल्कि हमारी बुराइयों को नष्ट करके हमें सही अर्थों में इंसान भी बनाते हैं्. सामाजिक भेदभाव को मिटाकर समाज में समरसता का पाठ पढ़ाने के साथ समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाले गुरु के कृतित्व से हर किसी का उद्धार होता आया है. एक ऐसे ही धर्मगुरु हुए गुरु नानक देव्. जिन्होंने मूर्ति पूजा को त्याग कर निर्गुण भक्ति का पक्ष लेकर आडंबर व प्रपंच का घोर विरोध किया. इनका जीवन पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक नियोजन की प्रेरणा देता है. गुरु नानक देव के व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु के समस्त गुण मिलते हैं्.
गुरु नानक देवजी ने विश्व भर में सामाजिक समरसता का मार्ग दिखाते हुए ऊंच नीच, भेद भाव , जाती पंथ की रूढ़िवादी दीवारों को तोडा. उन्होंने विश्व के अनेक कोनो में जाकर एक ओमकार ईश्वर के सिखाये मानवता पाठ को प्रसारित किया
गुरु नानक देव जी ने लाभपुरी, ऐमनाबाद, स्यालकोट, बदरिका आश्रम, छॉंगा – मॉंगा (महावन), चूनियॉं सतलुज नदी के पार मालवा भूमि पर मॉंझ नामक स्थान, पिहोवा, कुरुक्षेत्र, आगरा, मथुरा, अयोध्या, इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली), बक्सर, छपरा, श्रीकामाक्षी देवी, ब्रह्मपुत्र, कच्छार, लोशायी, कस्सूर देश, सतलुज नदी के पार भटिण्डा, शिरसा, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, अजमेर, पुस्कर, आबू, चम्बल, धारानगरी, उज्जयिनी, रामटेक, आवड़ा, विदर्भ, नारायणपुर, नरसीपुर, मुलतानपुर, कलनौर मथुरा, काशी, गया, जगन्नाथपुरी, राजपुताना, सिंघलद्वीप, कोडा राक्षस (मध्यप्रदेश इन्दौर के पास) हैदराबाद, गोलकुण्ड, मद्रास, पाण्डीचेरी, तन्जौर (लंका में) गढ़वाल, पश्चिमी तिब्बत, लोहारिया, मछन्दरनाथ, भंगरनाथ, हनीफा, चीन, लद्दाख, श्रीनगर, जम्बु, स्यालकोट, मक्का हड़प्पा, जालन्धर, अम्बाला हरिद्वार, मधुपुरी, डाका, गया, बंगलादेश, जगन्नाथपुरी, रुहेला, करतारपुर, धर्मकोट, सरसापुर, काबुल, आदि स्थानों का भ्रमण किया
हरिद्वार
गुरु जी कुरुक्षेत्र से पानीपत तथा दिल्ली होते हुए हरिद्वार पहुँचे जहॉं गंगा स्नान करने आये लोगों पूर्व दिशा की तरफ मुख करके जल फेंक रहे थे. आप पश्चिम दिशाकी तरफ मुख करके पानी देने लगे. लोगों के पूछने पर आपने कहा कि तलवण्डी में अपने खेतों का पानी दे रहे हैं्. लोग हंसने लगे और कहा इतनी दूर पानी कैसे पहुँच सकता है तो गुरु जी ने कहा कि मेरे द्वारा दिया गया पानी धरती पर ही डेढ – दो सौ किलोमीटर की दूरी पर नहीं पहुंच सकता तो आप लोगों द्वारा सूर्य की तरफ मुख करके पितर लोक में फेंका जा रहा पानी, कैसे पहुंच सकता है, जिसकी दूरी का भी पता नहीं्. लोगों का वहम दूर हो गया तथा कई लोगों ने सिक्खी धारण की. कामरूप (आसाम) ___आप हरिद्वार से पीलीभीत, गोरख मता (वर्तमान में नानक मत्ता), मथुरा, काशी (बनारस) तथा गया आदि से गुजरते हुए पटना पहुँचे. वहॉं सालिस राय को जौहरी को सिक्ख बनाकर प्रचारक नियुक्त करके, आगे कामरूप (आसाम) पहुँच गये. वहॉं नूरशाह, जो जादू-टूने तथा अपनी सुन्दरता द्वारा लोगों को ठग रही थी, को बेटी बनाकर इस काम से बाहर निकाला तथा आगे ढाके की तरफ बढ़ गये.
नानक मत्ते में योगियों को उपदेश देना
गुरुजी मत्ते पहुँचकर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गये. ईश्वर का ऐसा चमत्कार हुआ कि उस पीपल का प्रत्येक पत्ता हरियाली से पूर्ण एवं सामान्य पत्तों की उपेक्षा अधिक मृदुल हो गया. गुरुजी ने मरदाने से वृक्ष के नीचे आग जलाने को कहा. मरदाना आग के लिए योगियों के पास गया किन्तु उन्होंने आग देने से मना कर दिया. मरदाना किसी और स्थान से आग ले आया. उस रात आँधी आई तथा सभी योगियों की आग बुझ गई्. परन्तु नानकजी द्वारा जलाई आग सारी रात जलती रही. सुबह गुरुजी ने मरदाना से पानी लाने के लिए कहा किन्तु योगियों ने पानी देने से भी इंकार कर दिया, तब गुरुजी ने मरदानो को उत्तर दिशा से पानी लाने को कहा. जब योगियो ने देखा कि गुरुजी को इतना परेशान करने पर भी वे विचलित नहीं हुए तो उन्होंने गुरुजी से उनका परिचय पूछना चाहा.
अयोध्या पहुँच कर वहॉं के लोगों को उपदेश देना
गुरुजी द्वारा अयोध्या पहुँचने पर अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों ने उनसे पूछा कि लोग यज्ञ क्यों कर रहे हैं, यज्ञ करके पुण्य दान करते हैं, घोर तपस्या करते हैं, नग्न अवस्था में रहते हैं, उलटे लटक जाते हैं, कुछ पूजा – पाठ में लगे रहते हैं और कुछ अपने शरीर को कष्ट देकर अपने आप को मार देते हैं, क्या इन लोगों की मुक्ति हो जाती है. कुछ देर मौन रहने के बाद गुरुजी ने कहा..
जगन होम पुन तप पूजा देह दुखी नित दुख सहै.
राम नाम बिन मुक्ति न पावसि मुक्ति नाम गुरमुखि लहै.
प्रयाग में साधु-संतों तथा अन्य लोगों को उपदेश
गुरुजी अयोध्या से प्रयाग गये. वहॉं से थोड़ी दूर निजामाबाद से होते हुए रास्ते में झुसी में ठहर गये. एक बार गुरुजी गंगा के तट पर अपने ध्यान में लीन थे. अनेक यात्री आकर गुरुजी के समीप बैठ गये और कहने लगे हम प्रतिदिन पूजा – पाठ करते हैं किन्तु उसका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता. गुरुजी ने समझाया काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी विकार जो देह में लगे हैं वो सात्त्विक अनुभूति नहीं होने देते.
लाहौर में दूनीचन्द का उद्धार
नानक जी ने लाहौर में दूनीचन्द का उद्धार किया. दूनीचन्द धन एकत्रित करने में लगा रहता था. उसने अपने घर के दरवाजे के ऊपर सात सुन्दर कपड़े के टुकड़े बांध रखे थे. एक टुकड़ा एक लाख का संकेत करता था. सात टुकड़ों से मालूम पड़ता होता था कि वह सात लाख का स्वामी था. गुरुजी को उसके अभिमानी होने का बोध हो गया तथा उन्होंने उसे एक सूई देते हुए कहा कि वे मरणोपरान्त उससे वापिस लेंगे. दूनीचन्द की पत्नी ने उसे कहा कोई भी वस्तु मरणोपरान्त साथ नहीं जाती. दूनी चन्द नानक जी के पास सूई वापस ले आया और कहने लगा कि मरने के बाद यह उसके साथ नहीं जायेगी. अत: वह अगले लोक में आपको नहीं दे सकता. तत्पश्चात् गुरुजी ने कहा तो यह धन दौलत कैसे साथ ले जाओगे. गुरुजी ने कहा कि नाम सिमरन, उपकार और नेकनामी ही मानव के साथ जाती है.
बीकानेर
यहॉं से आप बीकानेर पहुँच गये. बीकानेर में जैनियों का बहुत प्रभाव था. ये लोग वहमों की हद तक जीवों को न मारने तथा असीमता तक उनकी रक्षा करना अपना कर्तव्य मानते थे. वहॉं लोग स्नान नहीं करते थे इस कारण जूएँ पड़ जाती थी किन्तु जुओं को भी नहीं मारते थे क्योंकि जीव हत्या होती थी. पानी को छान – छान कर पीते थे. सांस लेने के लिए मुँह पर पट्टी बांधकर रखते थे. आपने गुरबाणी में लिखा है :
फोलि फदीहत मुहि लैन भड़ासा पाणी देख सगाही.
गुरुजी ने कहा कि गदे रहना धर्म नहीं है. उन्होंने तन तथा मन की सफाई द्वारा परमात्मा को प्रसन्न करने का मार्ग बताया.
गया में पितर-पूजा का खण्डन करते हुए उपदेश
लोग गया जी जाकर दीपक जलाकर एवं चावलों के पिण्ड दान देकर अपने पूर्वजों की मुक्ति करवाते हैं्. जब नानक जी वहॉं गये तो उन्हें पण्डितों ने अपने पितरों की मुक्ति करवाने के लिए कहा. गुरुजी ने इसका खण्डन करते हुए कहा कि उन्होंने अपने पितरों की मुक्ति के लिए ऐसा दीपक जलाया है जिससे अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाए क्योंकि नरक और स्वर्ग अपनी अज्ञानता में है. जिन्होंने परमेश्वर रूपी दीपक जलाया है उन्हीं का उद्धार होता है.
कामरूप नामक स्थान में लोगों को ‘बसते रहो उजड़ जाओ’ का आशीर्वाद देना
गुरुजी की एक गांव के लोगों द्वारा सेवा की गई्. गुरुजी उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि ’उजड़ जाओ’. यह सुनकर आश्चर्यचकित मरदाना ने गुरुजी से ऐसा करने का कारण पूछा. गुरुजी ने कहा यदि अच्छे लोग दूसरे गांव में चले जायेंगे तो उनकी संगति से बुरे लोग भी सुधर जायेंगे. यदि बुरे लोग दूसरे नगरों में जायेंगे तो उनकी संगति के कुप्रभाव से अन्य लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.
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जगन्नाथ मन्दिर उपदेश
जगन्नाथ मन्दिर में जब आरती हो रही थी तब सभी पण्डित आरती कर रहे थे लेकिन गुरुजी वहॉं मौन धारण करके बैठ गये. आरती के पश्चात् जब पण्डितों ने पूछा कि आरती करने क्यों नहीं उठे तो गुरुजी ने उत्तर दिया सभी तारे उस अकाल पुरुष (परमात्मा) की आरती कर रहे हैं, यही सच्ची आरती है. आरती का उल्लेख श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब में भी प्राप्त होता है.
मरदाने की भूख प्यास को शांत करना
यात्रा के दौरान अनरा धपुरा के मैमर के पास मरदाना को प्यास लगने पर गुरुजी ने देखा कि कुछ प्यासे गीदड़ जंगल के तरफ जा रहे हैं्. गुरुजी तथा मरदाना भी उनके साथ चल पड़े. गीदड़ एक तालाब के पास पहुँच गये. मरदाना ने अपनी प्यासबुझाई्. इसके पश्चात् मरदाना भूख से पीड़ित था. गुरुजी स्नान के लिए तालाब में उतरे तथा काफी समय तक बाहर नहीं आये. मरदाना घबरा गया. गुरुजी तैरकर तालाब के दूसरे किनारे पर पहुँच गये तथा समीप के गांव से कुछ खाने के लिए लेकर आये तथा मरदाना की भूख को शान्त किया.
दिल्ली में ’मजनू का टिला’ पर बैठकर लोगों को उपदेश देना
कुछ फकीर दिल्ली में गुरुजी के पास आए तथा पूछने लगे निर्धनों को दान देना सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना जाता है और यदि बादशाह दान करे तो वह मुक्ति प्राप्त कर सकता है अथवा नहीं्. उस समय दिल्ली में सिकन्दर लोदी की अत्यधिक प्रसिद्धि थी. मुस्लिम फकीर उसका अत्यधिक गुणगान कर रहे थे. उसने हिन्दुओं के अनेक मन्दिरों को ध्वस्त किया था. गुरुजी ने उत्तर देते हुए कहा कि जो लोग मन के अन्धे और पक्षपाती है और लोगों पर अत्याचार करते हैं, उनका दिया दान तो समुद्र के आगे बांध बनाने के समान है.
पंजा साहिब में वली कन्धारी नामक फकीर को उपदेश
हसन अबदाल पंजा साहिब में वली कन्धारी नाम का एक मुसलमान फकीर रहता था. उसने पास आने पर उसने गुरुजी का स्वागत नहीं किया. गुरुजी पर्वत के नीचे आकर एक स्रोत के पास बैठ गये. वली कन्धारी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई्. उसने एक पत्थर उठाकर गुरुजी पर फेंक दिया. इस पर्वत पर कोई वृक्ष न होने के कारण पत्थर लुढ़ककर गुरुजी के ऊपर आ गया. गुरुजी ने पत्थर को पंजे से रोक दिया. नानक जी ने अपने कीर्तन द्वारा वली कन्धारी के मन की मैल को दूर किया.
मक्का में उपदेश
नानकजी ने मक्के में रहते हुए एक दिन काहबे की ओर पांव करके सो गये. सुबह उठे हाजियों में से एक हाजी ने गुरुजी के पास जाकर उनका पांव हिलाया और कहा कि आपने खुदा के घर की ओर पाव किये हैं्. नानकजी ने उत्तर देते हुए कहा मेरे पांव उस तरफ कर दो जिस तरफ खुदा का घर नहीं है. जब उसने गुरुजी को चरणों से पकड़ कर घसीटना प्रारम्भ किया तो उसे काबा घूमता हुआ दिखाई दिया. अनेक हाजी वहॉं एकत्रित हो गये और उन्होंने गुरुजी से उपदेश ग्रहण किया.
कड़वे रीठे को मीठा करना
गुरुजी एक बार योगियों के मठ पर पहुँचे जो कि नेपाल की दक्षिण सीमा पर स्थित है. मरदाना को भूख सता रही थी. गुरुजी ने मरदाने से कहा कि योगियों से कुछ खाने के लिए मांग लाओ लेकिन उन लोगों ने देने से इन्कार कर दिया. गुरुजी ने मरदाने से कहा कि जिस वृक्ष के नीचे हम बैठे थे उसके फल तोड़कर खा लो. वह वृक्ष रीठे का था. रीठा कड़वा होता है किन्तु गुरुजी के प्रभाव से रीठे मीठे हो गये थे.
पट्टी के जमींदारों को उपदेश
जब गुरुजी पट्टी नगर के पास से निकल रहे थे तो जमींदार लोग गुरुजी के पास आकर वचन विलास करने लगे. वार्तालाप करते हुए गुरुजी ने उनसे पूछा जो खेती करवाते हो और करते हो इसका क्या लाभ होगा. वे अहम् में आकर कहने लगे कि इसके द्वारा आप जैसे महात्माओं को खाना खिलाते हैं, परिवार का पालन पोषण करते हैं, सम्बन्धियों को पूजते हैं्. यही कृषि हमारे जीवन निर्वाह का मुख्य साधन है. गुरुजी ने जमींदार का उत्तर ध्यानपूर्वक सुनकर उनसे पूछा कि आत्मा के उद्धार के लिए क्या करते हो. वह अन्य प्रकार की कृषि है जिससे आत्मा का उद्धार होता है. कृषकों ने उनसे वह कृषि बतलाने के लिए कहा. गुरुजी ने इन शब्दों में व्याख्या की..
इह तन धरती बीज करमा करो सलिल आमाऊ सारिंग पानी.
मन किरसाण हरिरिदै जन्महि लै इऊ पावसि पद् निरबाणी.
स्यालकोट में मरदाना को सच और झूठ खरीद कर लाने के लिए कहना
स्यालकोट में मरदाना को एक पैसे का सच्चा तथा एक पैसे का झूठ लाने को कहा. मरदाना सभी दुकानों पर गया लेकिन उसे कोई उत्तर न मिला. एक दुकानदार मुल्ला ने कागज पर लिख दिया. ‘मरना सच’ और ’जीना झूठ’. मरदाना कागज़ का टुकड़ा लेकर गुरुजी के पास आ गया तब नानकजी ये सब देखकर बहुत प्रभावित हुए और उस मुल्ला से जाकर मिले. मुल्ला ने कहा कि उसे जीवन की वास्तविकता का बोध हो गया है. वह गुरुजी की वाणी से इतना प्रभावित हुआ कि घर त्यागकर गुरुजी के साथ चल पड़ा.
मरदाना की नरभक्षी कौडा से रक्षा
अपनी प्रथम यात्रा के अनन्तर गुरुजी ने कुछ समय अपने घर सुलतानपुर में व्यतीत किया. इसके बाद वे यात्रा करते करते करतारपुर, धर्मकोट, बठिण्डा, सिरसा, काबुलनगर, नर्मदा के किनारे से होते हुए नासिक से पञ्चमड़ी के दुर्गम वनों से गुजर रहे थे. भयभीत होकर मरदाना ने गुरुजी से वापस जाने का निवेदन किया. गुरु जी के समझाने पर भी वह इनके वाक्य का उल्लंघन कर घर की ओर वापस चला गया. रास्ते में उसने कौडा नामक नरभक्षी को देखा. जो गर्म तेल के कड़ाहे में मनुष्यों को पकाने की तैयारी कर रहा था. मरदाना अपनी मृत्यु को समक्ष देखकर गुरुजी को याद करता हुआ अचेत हो गया. शिष्य द्वारा स्मरण करने पर योगी श्री गुरुनानक जी अपने योगबल से सब कुछ जान गये और तत्क्षण वहॉं पहुँच कर अपने योग से गर्म तेल को ठण्डा कर दिया. वह राक्षस गुरुजी की ओजस्विता को देखकर उनकी शरण में आ गया. गुरुजी ने मरदाना से उसके लक्ष्य के विषय में पूछा तो उसमें कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा आप मुझे जहॉं ले जाना चाहेंगे, मैं आपकी शरण में ही रहूँगा. क्योंकि आपने मुझे नवजीवन प्रदान किया है. मैं मर की परीक्षा कर वह राजा श्रद्धापूर्वक उनके दर्शनों के लिए आया. उन्होंने अपने पास बैठा कर राज्य का कुशलक्षेम पूछा. राजा ने अपने द्वारा ली गई परीक्षा के लिए क्षमा मांगी. गुरुजी ने उसे अज्ञानता का कारण बताया तथा दूसरी ओर इसे उचित बताते हुए कहा कि अनजान व्यक्ति की परीक्षा अवश्य की जानी चाहिए सन्त इसे बुरा नहीं मानते. कुरुक्षेत्र गमन दक्षिण प्रदेश की यात्रा के पश्चात् पंजाब आते समय गुरु जी कुरुक्षेत्र में रुके. वहॉं उन्होंने जातिगत ब्राह्मण के अहंकार का खण्डन किया तथा उसे उपदेश देते हुए कहा कि सदाचार का पालन करने से मनुष्य कुलीन बनता है न कि कुलीन वंश में जन्म लेकर्. गुरु जी के वचनों से लज्जित ब्राह्मण ने उन्हें प्रणाम करके स्तुति की. श्रीगुरुनानकदेवजी ने शिष्यों को उपदेश दिया तथा रात्रि वहीं व्यतीत की.
सिंघलद्वीप (लंका)
दक्षिण की तरफ हैदराबाद, गोलकुण्डा, मद्रास, पाण्डीचरी, तंजौर आदि से होते हुए सिंघलद्वीप (लंका) पहुँच गये. यहॉं का राजा शिवनाभ था. वह भाई मनसुख से गुरुजी के बारे में जान चुका था उसके मन में गुरुजी के दर्शनों की इच्छा थी. गुरुजी के प्रति उसकी श्रद्धा को देख अनेक साधु उसे अपना शिष्य बनाने आते. वह उन्हें परखने के लिए अच्छा खाना-पीना, सुन्दर स्त्रियों से उनकी सेवा करवा, धन आदि उनकी सेवा में भेंट करता तथा अपने बाग में उनका डेरा लगवा देता. वे लोग उसके द्वारा दिये रसभोग में फंस जाते तथा मौज मस्ती करते हुए धन एकत्रित करते. इस प्रकार राजा उनके पारखण्ड को समझ जाता. सिंघलद्वीप पहुँच कर गुरुजी ने खुद ही उसके बाग में डेरा लगा लिया. राजा ने उनकी परीक्षा लेने हेतु सुन्दर नारियॉं भेजीं्. किन्तु गुरुजी ने राजा द्वारा भेजी सुन्दर लड़कियों को सम्बोधित किया – ‘गाछहु पुतरी राज कुआरि. नामु भणहु सचु दोतु सुआरि. भाग जाओ बच्चियों, करतार में मन लगाओ्. ईश्वर का सिमरन करो तथा सच्चे शृंगार वाली बनो. सुन्दरियों के मुख से ये वार्ता सुनकर हैरान रह गया. वह गुरुजी के चरणों में गिर गया तथा उनके दर्शन करके बहुत खुश हुआ्. राजा तथा उसकी प्रजा ने गुरुजी से सिक्खी धारण की. गुरुजी काफी समय तक वहीं प्रचार करते रहे. फिर राजा शिवनाभ को प्रचार का काम सौंपकर वापस चले गये.
कजली-वन
सिंघलद्वीप से वापस आते हुए आप कजली वन में पहुँच गये. जहॉं सिद्ध तथा योगी सिद्धियॉं तथा करामातों द्वारा लोगों से भेंट लेते तथा अपनी मन्नत करवाते थे. परन्तु वे स्वयं शराब का सेवन करते हुए ईश्वर योग का भ्रम पाल रहे थे. गुरुजी ने उनके मन को करतार की तरफ लगाकर तथा हथ किरत का उपदेश देते हुए मायाजाल से बाहर निकाला. सिद्ध लोगों ने सिर झुकाते हुए गुरुजी द्वारा बताये मार्ग पर चलने का प्रण लिया.
मटन डेरा
करतारपुर साहिब से चलकर आप जम्मू के रास्ते में कश्मीर तथा फिर मटन डेरा पहुँच गये. यहॉं आपने मारतण्ड सरोवर के पास डेरा लगाया. यहॉं ब्रह्मदास नामक एक बहुत बड़ा विद्वान् था जो बहुत अहंकारी था. साधुओं को अपनी विचार – चर्चा में पराजित करके वह बहुत खुश होता था. गुरुजी के आने का समाचार सुनकर, वह अपने ग्रन्थों को लेकर गुरुजी के पास पहुँच गया शास्त्रार्थ करने के लिए्. गुरुजी के समक्ष उसकी एक न चली. उसने गुरुजी के चरणों में माथा टेका. सिक्खी धारण की तथा आगे से किरत करने तथा वंड के छकने का प्रण लिया. यहीं पर मुसलमान फकीर कमाल को गुरुजी ने सिक्ख बनाया था तथा कुरम घाटी में प्रचारक का काम सौंपा.
कैलाश पर्वत ( सुमेर पर पहुँचना)
इतनी ऊँचाई (१९००० फीट) पर गुरुजी तथा उसके साथी को देखकर गोरखनाथ, लोहारीपा, मच्छन्दर नाथ, भंगर नाथ तथा हनीफा आदि सिद्ध हैरान रह गये. जब गोपी चन्द ने गुरुजी से पूछा कि सुमेरु पर आने का उद्देश्य क्या है तथा पृथ्वीलोक पर क्या घटित हो रहा है तो गुरुजी ने कहा कि ’निरोल मंतव तुहानूं, लोकां दे दुरवां विच शामल करना है. मातलोक दी गल पुछदे हो, उथे तां सच रूप चन्द्रमा दिखाई नहीं दे रहा हर स्थान ते कूड़ दा अधियारा है.’
सिद्धों ने गुरुनानकदेव जी को अपने चुंगल में फंसाने के लिए बहुत आडम्बर किये किन्तु आपके विचारों ने योगियों तथा सिद्धों में हलचल मचा दी. आपने उन्हें समझाया कि आप लोग वास्तविक धर्म गंवा चुके हो. परोपकार आप नहीं कर रहे. सिद्धियों एवं रिद्धियों द्वारा प्रभु को प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसमें न तो आत्मिक सुख है न ही जीवन मुक्ति. आप का ये ज्ञान योगियों को सही रास्ते पर लाने में सफल राह्. वे मान गये कि गुरुजी के सिद्धान्त और विचार सही हैं्. कई सिद्ध गुरुजी के सिक्ख बन गये. इनमें से भतृहरि सबसे ऊँचा योगी भी एक था. यहॉं से आप चीन, लद्दाख, श्रीनगर, जम्मू तथा स्यालकोट के रास्ते से वापस करतारपुर आ गये.
सज्जन ठग
जब आप पाकपटन से तुलम्भे पहुँचे, वहॉं सज्जन नामक ठग साधु रूप बनाकर लोगों के साथ ठगी करता था. देखने में भोला भाला, मधुर वाणी बोलने वाला था. अनेकों की इज्जत तथा माल असबाब लूट चुका था. गुरुजी उसके पास गये तथा शब्द के प्रहार द्वारा उसकी ठगी एवं कमज़ोरी सज्जन ठग को दिखा दी. सज्जन ने ठगी छोड़ दी तथा सिक्खी धारण की. उसने एक गुरुद्वारे का भी निर्माण करवाया. तुर्की मक्के से आप मिसर, सूडान होते हुए तुर्की पहुँच गये. वहॉं ज़ालिम तथा क्रूर बादशाह से निर्भीकता पूर्वक मिले तथा उसे प्रजा पर अन्याय तथा अत्याचार न करने का उपदेश दिया.
बगदाद
बगदाद में बहुत बड़ा केन्द्र था. बगदाद शहर के बाहर ठहर गये तथा ब्रह्मवेला (अमृतसमय) में उठकर सत्गुरु की सुरीली तथा आकर्षक राग का गायन किया. लोग उन्हें अनदेखा करते रहे क्योंकि इसलाम में राग की आज्ञा नहीं थी. किन्तु रब्बी बाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि सारा नगर शांत हो गया. गुरुजी ने लाखों पाताल तथा लाखों आसमान कहे. ये इसलाम धर्म के सात आसमानों वाले धार्मिक विचार पर तीक्षण प्रहार था. उनके पीर दसतगीरी ने पत्थरों से मारने का हुक्म दिया. किन्तु गुरुजी की शख्सीयत का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सभी के हाथ रुक गये. गुरुजी ने उन्हें लाखों पाताल तथा लाखों आकाश की बातें समझाई्. यहीं एक फकीर शाह बहिलोल भी मिला. यहॉं एक शिलालेख पर अंकित अक्षरों को पढ़ने से पता चलता है कि गुरुजी सन् संवत् ९२७ अनुसार सन् १५२०-२१ ईसवी में बगदाद में ठहरे थे.
अचल वटाला का रहस्य्मयी संत संवाद
अपने जीवन के अंतिम वर्ष (१५३९ ईसवी में) में आप अचल वटाला जो बटाला शहर से तीन मील की दूरी पर पश्चिम की तरफ है, सिद्धों के मेले पर गये. भाई गुरदास जी के अनुसार मेले में समस्त जन गुरुजी के दर्शनों के अभिलाषी हो गये. गुरुनानकदेव जी तथा सिद्धों के बीच बहुत विवाद हुआ्. योगी, सिद्ध संसार का त्याग ही सर्वोत्तम मार्ग मानते थे. गुरुजी ने उन्हें यह कहकर चुप कराया, ’होइ अतीत ग्रहिसत तक फिर उनहूं के घर मंगन जाई्.’ सिद्धों ने पूछा कि आपमें इतनी शक्ति कहॉं से आई तो गुरुजी ने कहा ’गुर संगत ते बाणी’ ही इस ताकत की बख्शिश करती हैं्. मुलतान में अचल वटाले से गुरुजी वापस करतारपुर न जाकर मुलतान चले गये. मुलतान में उस समय पीरों और फकीरों का प्रभाव था. सभी गुरुजी को देखकर घबरा गये. उन्होंने दूध से भरा बर्तन गुरुजी के पास भेजा. गुरुजी ने चमेली का फूल दूध पर रखकर उसमें केसर मिलाकर वापस भेज दिया. सारखीकारों के अनुसार, ‘पतासे पा उपर फूल रख मोड़ भेजिआ’. पीरों द्वारा दूध से भरा पात्र भेजने का अर्थ था कि मुलतान में पहले से ही बहुत फकीर हैं गुरुजी ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि तीन वस्तुएँ आपके पास नहीं हैं, ’सुगन्धि, मिठास तथा प्रचार’. दूसरे मैं यहॉं ऐसे रहूँगा जैसे फूल दूध पर्. जब पीरों ने आपसे कुछ मांगने के लिए कहा तो आपने गरीबी ही मांगी. पीर मखदूम को भी आपने ही जीवन-मार्ग बताया.अचल वटाला के इस रहस्य्मयी संत संवाद से गुरु नानक देव जी के ईश्वरीय अवतार होने की व्याख्या मिलती है
ज्योति विलीन होने का बोध व गुरु अंगददेव जी को गुरुवाणी सौंपना
सिक्ख साहित्य में जब गुरुजी को अपने ज्योति विलीन होने का बोध हुआ तो उन्होंने परिवार के सदस्य एवं गॉंव वालों को बुलाकर द्वितीय गुरु अंगददेव जी के समक्ष पॉंच पैसे रखकर माथा टेका और साथ ही अपने द्वारा रचित सम्पूर्ण वाणी अंगदजी को प्रदान कर दी. तत्पश्चात् ७० वर्ष की आयु में २२सितम्बर १६३९ ई. को गुरुजी ज्योति विलीन हो गये.
नानक साँचा तेरा नाम
श्री गुरु नानक देव जी को १० से ज्यादा देशों में १४ नामों से पुकारा जाता है. उन्होंने आज के पाकिस्तान , तन्जौर (लंका में) , पश्चिमी तिब्बत, लोहारिया, मछन्दरनाथ, भंगरनाथ, हनीफा, चीन, लद्दाख, श्रीनगर, जम्बु, स्यालकोट, मक्का आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए मानवता के सन्देश के साथ कुरीतियों को नष्ट करने का मन्त्र भी दिया. यही कारण है की श्री गुरुनानक देव को पाकिस्तानी नानकशाह कहते हैं, तो तिब्बत में उन्हें नानकलामा पुकारा जाता है. रूस में नानक कमदार के तौर पर विख्यात हुए, वहीँ उन्हें नेपाल में नानक ऋषि कहा गया. भूटान और सिक्किम में नानक रिपोचिया, श्रीलंका में नानकचार्या, चीन में बाबा फूसा, ईराक में नानक पीर, मिस्त्र में नानकवली तो सऊदी अरब में प्रथम पातशाही वली हिंद के नाम से जाना जाता है.
नीरा भसीन
( लेखिका हैदराबाद में
एक विद्यालय की
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्या हैं.
मुक्त लेखिका, ब्लोगेर , अनुवादक
के रूप में कार्य करते हुए वह
विवेकानद केंद्र के
अनुवाद कार्य से जुडी हैं. )