“अरे! भाई बुढापे का कोई ईलाज नहीं होता . अस्सी पार हाे चुके हैं . अब बस सेवा कीजिये .”
डाक्टर पिता जी को देखते हुए बोला .
“डॉक्टर साहब! कोई तो तरीका होगा. साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है .”
“शंकर बाबू ! मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ . बस आप इन्हें खुश रखिये. इससे बेहतर और कोई दवा नहीं है और इन्हें लिक्विड पिलाते रहिये जो इन्हें पसंद है .” डाक्टर अपना बैग सम्हालते हुए मुस्कुराया और बाहर निकल गया.
शंकर के चेहरे से बैचेनी साफ झलक रही थी. उसे ऐसा लग रहा था, मानो वह जीवन का सबसे अनमोल व्यक्ति खोने जा रहा है. और ठीक भी था, आज भले ही वह खूब पैसा कमाता है, घर है, गाड़ी है, सब कुछ हे, लेकिन पिता के साए में उसे सदैव ही एक सुरक्षा महसूस होती रहती थी. अपने सिर पर एक छत्र का एहसास होता था. लेकिन आज ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे सिर से वह साया अब दूर होने जा रहा हैं, ऊपर विशाल अनंत आसमान दिखने लगा था. इसी आसमान के नीचे वह अब तक अपने पिता के आश्रय में ही रहता आया था. भले ही शंकर आज घर का कर्ता हो, लेकिन हर मुसीबत, बुरे समय में पिता के शब्द, पिता की उपस्थिति उसे एक मजबूत सहारा देती थी और पिता के वहीं शब्द, वहीं सहारा उसे हर संकट, हर दौर से उबरने की ताकत देते थे.
शंकर पिता को लेकर बहुत चिंतित था. उसे लगता ही नहीं था कि पिता के बिना भी कोई जीवन हो सकता है. माँ के जाने के बाद अब एकमात्र आशीर्वाद उन्हीं का बचा था. उसे अपने बचपन और जवानी के सारे दिन याद आ रहे थे. कैसे पिता हर रोज कुछ न कुछ लेकर ही घर घुसते थे. बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी. ऐसा लगता था जैसे आसमान भी रो रहा हो.
शंकर ने खुद को किसी तरह समेटा और पत्नी से बोला – “शुभांगी ! आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े, हरी चटनी बनाओ. मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ .”
शुभांगी ने दाल पहले ही भिगो रखी थी. वह भी अपने काम में लग गई. कुछ ही देर में रसोई से मूंग के दाल के पकौड़ों की महक आने लगी. शंकर भी जलेबियां ले आया था. उसने जलेबियां रसोई में रखी और आ कर पिता के पास बैठ गया. उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उन्हें निहारते हुए बोला – “बाबा ! आज आपकी पसंद की चीज लाया हूँ. थोड़ी जलेबी खायेंगे? .”
पिता ने आँखे झपकाईं और हल्का सा मुस्कुरा दिए. वह अस्फुट आवाज में बोले – “पकौड़े बन रहे हैं क्या?”
“हाँ, बाबा ! आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है. अरे! शुभांगी जरा पकौड़े और जलेबी तो लाओ.” शंकर ने आवाज लगाईं .
शुभांगी तुरंत ही एक थाली में सजा कर पकौड़े ले आई और एक प्लेट में शंकर की लाई जलेबियां भी. वह भी वहीं शंकर और बाबा के पास बैठ गई. उसकी भी आंखें आज उदास थी. सास के जाने के बाद, इस घर में उसे बाबा का ही सहारा था. बाबा अपने जीवन के न जाने कितने अनुभव और कितने किस्से सुनाते रहते और बाबा की बातों को सुनते-सुनते उसका दिन कैसे गुजर जाता, उसे पता ही नहीं चलता.
“लीजिये बाबू जी एक और. ” शंकर ने बाबा को पकौड़ा हाथ में देते हुए कहा.
“बस … अब पूरा हो गया. पेट भर गया. जरा सी जलेबी दे .” पिता बोले .
शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा हाथ में लेकर अपने हाथों से ही बाबा के मुंह में डाल दिया. पिता उसे प्यार से देखते रहे.
“शंकर ! सदा खुश रहो बेटा. मेरा दाना-पानी इस संसार से अब पूरा हुआ .” पिता बोले.
“बाबा ! आपको तो सेंचुरी लगानी है. आप मेरे तेंदुलकर हो.” आँखों में आंसू बहने लगे थे.
वह मुस्कुराए और बोले – “तेरी मां पेवेलियन में मेरा इंतज़ार कर रही है. अगला मैच खेलना है. तेरा पोता बनकर आऊंगा, तब खूब खाऊंगा बेटा.”
पिता उसे देखते रहे. शंकर ने प्लेट उठाकर एक तरफ रख दी. मगर पिता उसे लगातार देखे जा रहे थे. आँख भी नहीं झपक रही थी. शंकर समझ गया कि बाबा की यात्रा पूर्ण हो चुकी है. वे उसे छोड़ कर अपनी अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर चुके है. एक गुबार सा सीने में उठा और शंकर फफक कर रो दिया.
तभी उसे ख्याल आया , पिता कहा करते थे – “श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे .”