नई दिल्ली ( तेजसमाचार संवाददाता ) – अटलजी के प्रेरक जीवन के अविस्मरणीय प्रसंगों को विभिन्न पुस्तकों और स्रोतों से अटलनामा के जरिए एक मीडिया मित्र ने सुन्दर संकलित किया है. हिन्दुस्तान को परमाणु संपन्न कर विश्व पटल पर स्थान दिलाने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री, राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक, पत्रकार, कवि, ओजस्वी वक्ता, करोड़ों भारतवासियों के आदर्श अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण करते हुए तेजसमाचार.कॉम की श्रध्दा सुमनों के साथ प्रस्तुति :- भाग 03
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चुनावी हवा का रुख मोड़ने वाले अटलजी के चुटीले तीक्ष्ण भाषण-
पहली कहानी : 1991 के लोकसभा चुनावों में अटल जी लखनऊ से उम्मीदवार थे. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी साथ ही होने थे I अटल जी के प्रतिद्वंदी भी मान रहे थे की अटल जी की जीत निश्चित थी I इसीलिए अन्य पार्टियों के विधानसभा वाले उम्मीदवार मतदाताओं से आग्रह कर रहे थे की आप ऊपरवाला (लोकसभा का) वोट अटल जी को भले ही दे देना लेकिन नीचे (विधानसभा) का वोट हमें देना I
अटल जी ने जब ये सुना तो एक आम सभा में बोले – ”अगर आप ऊपर का कुर्ता भाजपा को देंगे और नीचे की धोती किसी और को तो मेरी क्या दशा होगी?” फिर क्या था, बाजी ही पलट गई. यूपी में बीजेपी की पहली बहुमत की सरकार का रास्ता साफ हो गया.
दूसरी कहानी : 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद इंदिरा जी की लोकप्रियता बढ़ गयी…इसी का लाभ उठाकर इंदिरा जी ने चुनाव कराया …दिल्ली में जनसंघ पाँचों सीटें हार गयी. उसके तुरंत बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव थे. चुनाव प्रचार आरम्भ करते हुए वाजपयी जी ने कहा ”आप चाहते थे की कांग्रेस देश पर शासन करे आपने उसे वोट दिया…अब कम से कम झाडू मरने का मौका तो दे दीजिये”..
उनकी इस साफगोई से जनसंघ के पक्ष में हवा बंधी और लोगों ने जनसंघ को नगर निगम चुनाव में बहुमत दिलवाया. अटलजी किसी चुनावी हार से हताश होकर बैठ जाने वाले नेता नहीं थे.
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1977 के ऐतिहासिक चुनाव के बाद जब अटल जी की पार्टी यानी भारतीय जनसंघ के जनता पार्टी में विलय का प्रस्ताव आया तो जनसंघ के कार्यकर्ताओं को ये फैसला पसंद नहीं आया. ये बात कार्यकर्ताओं को पच नहीं रही थी की अपनी अलग विचारधारा वाली पार्टी अब विषम विचारधारा वाले दलों के साथ मिल जाए. हालांकि इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन से लोहा लेने में जनसंघ और इसके कार्यकर्ता सबसे आगे थे पर कार्यकर्ताओं को डर था जनता पार्टी में विलय से जनसंघ अपनी विशिष्ट छवि खो देगा और लोग जनसंघ की राष्ट्रवादी विचारधारा से उपजे राष्ट्रहित के कार्यों का श्रेय भी ले लेंगे……. लेकिन अटल जी ने लोकनायक जेपी को वचन दे रखा था पार्टी के विलय का.
अब अटल जी दुविधा में थे….एक तरफ जहां जेपी को दिए गए वचन की लाज रखनी थी वही दूसरी और पार्टी की आत्मा यानी कार्यकर्ताओं को मनाना था. ये काम कठिन था. पर जो माँ सरस्वती का पुत्र हो उसके लिए क्या मुश्किल ? अटल जी ने ये मुश्किल काम सिर्फ दो पंक्तियाँ बोल कर समाप्त कर दिया.
एक रैली में कुपित कार्यकर्ताओं से मुखातिब होकर अटल जी कहा की ……
”आपातकाल के घोर अँधेरे में जनसंघ का दीपक रोशनी का केंद्र था..
अब आपातकाल की काली रात्रि समाप्त हो चुकी है, अब सूर्योदय हो गया है, दीपक बुझाने का समय हो गया है”
ये सुनकर कार्यकर्ताओं ने सहर्ष पार्टी का फैसला स्वीकार कर लिया….माँ सरस्वती के पुत्र का जादू जो चल गया था. इन दो पंक्तियों में बड़ी सहजता से अटल जी ने एक सिरदर्द बन चुकी समस्या को हल कर दिया. ये जादू था अटल जी का….ये ”ह्यूमर” था अटल जी का…ये अंदाज़ था अटल जी का…ये कौशल था अटल जी का….
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अटलजी ने जब लड़ा था एक साथ तीन लोकसभा चुनाव-
1957 में दूसरे लोकसभा चुनावों में अटल जी ने 3 जगहों से नामांकन भरा था. पहला लखनऊ,दूसरा मथुरा और तीसरा बलरामपुर….
चुनाव बाद जब नतीजे आये तो अटल जी बलरामपुर से लोकसभा चुनाव जीत गए. कुल 482800 मतदाताओं में से 226948 ने वोटिंग में हिस्सा लिया था जिसमे अटल जी को 118380 वोट मिले और उन्होंने कांग्रेस के हैदर हुसैन को लगभग 10 हज़ार वोटों से हराया. किन्तु बाकी दो जगह अटल जी को हार का सामना करना पड़ा.
मथुरा में तो अटल जी की बुरी हार हुयी. उनकी जमानत ही जब्त हो गयी. बात ये थी की ऐन वक़्त पर कांग्रेस को हराने के लिए जनसंघ के मतदाता भी निर्दलीय उम्मीदवार राजा महेंद्र प्रताप के साथ चले गए. राजा साहब के लिए लोगों के दिल में बड़ा आदर था. वो स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले चुके थे…और तो और विदेश में गठित स्वतंत्र भारत की सरकार में वो प्रथम राष्ट्रपति चुने गए थे. उनके द्वारा स्थापित ”प्रेम आश्रम” भी शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम आकर रहा था.उनका जाट होना भी लाभदायक सिद्ध हुआ. अटल जी को खुद लगा की ऐसे देशभक्त के खिलाफ लड़वाने के लिए उनकी पार्टी इकाई को उन्हें मज़बूर नहीं किया जाना चाहिए था.पर पार्टी को भी अपना विस्तार करना था और उसमे मथुरा अच्छी जगह साबित हो सकती थी.
लखनऊ में भी अटल जी चुनाव हारे पर दूसरे नम्बर पर रहे.कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार श्री पुलिन बनर्जी को 69519 वोट मिला जबकि अटल जी को 57034 वोट मिले थे.यदि कम्युनिस्ट उम्मीदवार कुछ और वोट ले जाते तो कांग्रेस का उम्मीदवार हार जाता.पर जनसंघ को हराने के लिए वामपंथी मतदाताओं ने भी अंतिम समय कांग्रेस को वोट कर दिया.
अब आतें है इनसाइड स्टोरी पर कि क्यों अटल जी को 3 जगहों से चुनाव लड़ना पड़ा ?
1957 के काफी पूर्व श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे देवपुरुष की छाया उठ चुकी थी. चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार मिलना मुश्किल था. कौन गाँठ से खर्च कर के जमानत जब्त करवाये? फिर भी चुनाव तो लड़ना ही था. पार्टी के सन्देश को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने का इससे अच्छा अवसर कब आएगा ! अटल जी को यही सोच कर 3 जगहों से लड़ने का फैसला किया गया. अटल जी लखनऊ से लोकसभा उपचुनाव लड़ चुके थे.वहां से जीतना थोड़ा सा मुश्किल था. हाँ पर अटल जी को उस उपचुनाव में भी अच्छे वोट मिले थे जिससे पार्टी का हौसला बढ़ा था. मथुरा में लोकसभा का कोई उम्मीदवार नहीं मिल रहा था,सभी विधानसभा का टिकट चाहते थे (तब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ में होते थे) क्यूंकि विधानसभा लड़ने में पूँजी भी कम लगती. जमानत भी बचायी जा सकती थी. अटल जी पर पार्टी की नज़र पड़ी…अटल जी का थोड़ा बहुत नाम हो गया था..भाषण सुनने लोग आने लगे थे और पार्टी ने सोचा की अगर अटल को चुनाव में लड़ाया जाये तो पार्टी को धन भी मिल सकता था. यही सोचकर अटल जी ने पार्टी हित के लिए तीन तीन जगहों से चुनाव लड़ा.
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ग्वालियर में जब अटलजी हुए कांग्रेस के धोखे का शिकार
उन दिनों ग्वालियर का प्रतिनिधित्व श्री शेज़वालकर करते थे. वे पुनः चुनाव लड़ने के उत्सुक नहीं थे. पूर्व महाराजा (सिंधिया जी) गुना क्षेत्र से चुनकर आये थे. एक दिन अटल जी ने उनसे लॉबी में पूछा की क्या वे ग्वालियर से लड़ने का विचार कर रहे हैं? उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया. किन्तु ऐन वक्त पर उन्होंने ग्वालियर से नामांकन भर दिया. अटल जी के पास इतना वक़्त नहीं था की चुनाव शुरू होने से ठीक पहले वो किसी और क्षेत्र से नामांकन भर पाते.अटल जी को ग्वालियर में बांधे रखने रखने की योजना जिस चतुरता के साथ बनी थी उसकी कहानी जनता दल के गठन के बाद अटल जी को पता चल गयी.
योजना के पीछे दोहरी चाल थी.पहली यह की अटल जी ग्वालियर से ही बंध जाएँ और किसी अन्य क्षेत्र में पार्टी का प्रचार ना कर सकें. दूसरी यह की चुनाव का परिणाम कुछ भी होता उससे कांग्रेस के एक गुट का राजनीतिक उद्देश्य पूरा हो जाता.क्योंकि यदि अटल जी हारते तो प्रतिपक्ष दुर्बल होता और अगर माधव राव सिंधिया हारते (जिसकी सम्भावना बहुत कम थी) तो भी कांग्रेस के एक खेमे का सीमित स्वार्थ पूरा होता. किन्तु श्री सिंधिया के चुनाव हारने की सम्भावना बिल्कुल नहीं थी. वो गुना छोड़ कर ग्वालियर आये थे चुनाव लड़ने. ग्वालियर राज परिवार के लोगों के लिए जनता में बहुत आदर था और सिंधिया जी अपने पिता के एकलौते पुत्र थे तो इसका लाभ मिलना भी स्वाभाविक था. राजमाता विजयराजे सिंधिया का भी प्रभाव कहीं से कम नहीं था.राजमाता के महिमामयी व्यक्तित्व और सिद्धांतों के प्रति उनकी निष्ठां ने लोगों को पार्टी (राजमाता भाजपा में थी) के प्रति आकृष्ट किया था.पुराने जनसंघ और नई भाजपा को ग्वालियर में जो भी सफलता मिलती थी उसमे राजमाता का अहम योगदान था.
अटल जी लिखते हैं की —-
”मैं नहीं जनता की उस चुनाव में मेरी जगह राजमाता अगर चुनाव लड़ती तो उनमें और उनके बेटे की टक्कर में कौन जीतता पर इस तरह की कोई भी टक्कर मैं और मेरी पार्टी टालना चाह रही थी. माँ बेटे के बीच जो खाई उत्पन्न हो गयी थी वो कम से कम मुझे तो अच्छी नहीं लग रही थी.राजनीतिक मतभेद होना एक अलग बात है किन्तु उसकी वजह से माँ और पुत्र के सहज,स्वाभाविक और ममतापूर्ण संबंधों में कटुता आ जाना बिलकुल दूसरी बात है.
यह ठीक है की राजमाता ने मुझसे कहा की मैं नामांकन भरने ग्वालियर अकेले ना जाऊं,वह भी मेरे साथ चलना चाहेंगी. किन्तु मैंने इसके लिए उन्हें कष्ट देना उचित न समझा और उन्हें नामांकन में सम्मिलित होने से दूर रखा गया.
बाद में जब मेरे कुछ मित्रों ने माधव राव सिंधियां से पूछा की वो मेरे खिलाफ चुनाव लड़ने को अचानक क्यों तैयार हो गए तो सिंधिया जी ने जवाब दिया की अटल ने लोकसभा का परचा भरने के बाद चुनौती दी थी कि मेरे खिलाफ चुनाव लड़कर सिंधिया देख लें उन्हें भी अपनी औकात का पता चल जायेगा.
यह बिलकुल मनगढंत कहानी है.कांग्रेसियों ने सिंधिया जी से झूठ बोला था.राजनीतिक विरोधियों के प्रति अशिष्टता का व्यवहार करना मेरे स्वाभाव में नहीं है.श्री सिंधिया के प्रति तो मेरा सहज स्नेह और सम्मान का भाव रहा है,उन्हें जनसंघ का सदस्य भी मैंने ही बनाया था.
यह स्पष्ट है की श्री सिंधिया को ग्वालियर से लड़ने के लिए दबाव डाला गया था. ऐन वक्त पर नामजदगी परचा भर कर मेरे साथ जो व्यवहार किया उसे मैं वचन भंग की संज्ञा तो नहीं दूंगा पर उस आचरण को पारस्परिक संबंधों की कसौटी पर कसने पर उचित भी नहीं ठहरा पाउँगा.सहानुभूति की लहर और श्री सिंधिया का प्रभाव दोनों के कारण मेरी पराजय सुनिश्चित थी. यदि राजा दरवाजे पर आकर वोट की याचना करे तो ना कहना कठिन होता है.किन्तु अगर इंदिरा जी की मौत के प्रति सहानुभूति की लहर ना होती तो भी राजा के चुनाव लड़ते हुए भी भाजपा को व्यापक समर्थन मिलता इसमें कोई शक नहीं है क्यूंकि जम्मू में डॉ.कर्ण सिंह,जो कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़े थे,उनका भूतपूर्व राजा होना उन्हें विजयी नहीं बना सका.वो कांग्रेस प्रत्याशी से हार बैठे.”
अटल जी का राजनीतिक कद शुरू से ही इतना विशाल रहा है कि ये जानते हुए भी कि इंदिरा जी की मौत पर जनता की सहानुभूति का हमें पूरा लाभ मिलेगा,कांग्रेसियों ने साजिश रची क्यूंकि अटल जी के अपार लोकप्रियता से उनकी नस नस में डर था.
खैर कांग्रेस को ईंट का जवाब पत्थर से मिला – कांग्रेस ने जो अटल जी के साथ 1984 में किया …भाजपा ने वही कांग्रेस के साथ 1991 में विदिशा में किया.