श्लोक –३ भावार्थ -हे पार्थ तू कायरता को प्राप्त न हो। यह तुझमें योग्य नहीं है। परन्तप (अर्थात शत्रुओं को तपाने वाले )! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को छोड़ कर (युद्ध के लिए ) उठ खड़ा हो।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा यह समय भावनाओं के वशीभूत हो कर कमजोर पड़ने का नहीं है ,शिथिलता एक वीर के लक्षण नहीं हैं। इसलिए उठो और युद्ध करो। यदि हम पूरी गीता को एक पल में
जानने का प्रयत्न करें तो कह सकते हैं की जहाँ जो कार्य करना अनिवार्य है वो अनिवार्य है और उसे करना ही है और अर्जुन के लिए युद्ध के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है
“The whole Geeta is going to point out that what is to be done must be done –unless one is sanyasi. Doing what is to be done can be yoga, requiring only a change of attitude on your part “.
अर्जुन ने भी युद्ध के मैदान में अपने दुःख से दुखी वा किंककर्तव्यविमूढ़ अपने हथियार दाल दिए ,जब तक बार बार उसका ह्रदय तार तार हो उसे पूर्णरूप से शिथिल ,करुणा से ओतप्रोत कर ईश्वर की गुहार नहीं करने लगा। अर्जुन की किसी बात का उत्तर कृष्ण ने नहीं दिया। जो प्रलाप अर्जुन कर रहा था वो गलत तो नहीं कहा जा सकता कयोंकि प्रत्यक्ष में जो दिखाई दे रहा था वो हृदयविदारक था। इस युद्ध में एक पक्ष के हृदय में द्वेष था लोभ था और दूसरे पक्ष में धर्म था और अनुराग भी था। पर धर्म की रक्षा हो या देश की या फिर समाज की ,इसके लिए भिन्न भिन्न रास्ते अपनाये जाते हैं और जब परिस्तिथियाँ दारुण हो जाएँ ,विनाशकारी हो जाएँ तो युद्ध ही एक मात्र विकल्प रह जाता है। यहाँ भी अर्जुन अपने स्वभावनुसार या दूसरे शब्दों में कहें की वो अपने परिजनों के प्रति बहुत संवेदनशील था और उनका वध कर राज्य प्राप्त करना —यह अर्जुन को स्वीकार न था। उसके परिजन तो दोनों पक्षों में खड़े हैं और युद्ध में ये सभी वीरगति को प्राप्त होंगे,तो जिनके लिए युद्ध किया जा रहा हैवहीन बचेंगे ,फिर यदि विजय प्राप्त होती भी है तो उसका औचित्य क्या रह जायेगा। यहाँ पर जो आर्तनाद अर्जुन के हृदय से उठा उसे कृष्ण ने बहुत ध्यानपूर्वक सुना और जब अर्जुनके हाथ से से शस्त्र छूट गए तब यह आर्तनाद की चरम सीमा थी -जिसका उत्तर श्री कृष्ण ने बहुत ही शांत मन से दिया। उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को यह विशवास दिलाया की वो एक वीर योद्धा है ।
“In the tradition of religious devotion ,it is very truly said and firmly believed all over the world ,that the Lord ,in his high seat ,keeps mum and almost so long as we are arguing and asserting our maturity as intellectual being But when come down to live and act as an emotional being when tears of desperation trickle down the cheeks of true soul, the lord of compassion even unmasked ,rushes forward to reach lost soul and guide him out of his inward darkness to the resplendent light of wisdom .A soul identifying itself with the intellect can seek and discover itself ,,but when it is identifying itself with the mind ,it needs help and guidance.”
Swamy chinmaynanda,
मेरे पिता श्री लालचंद चड्डा जी का भी यही विश्वास है ,उनका कहना है की “जब तुम पूर्णतया विह्वल (व्याकुल ) हो कर उसे पुकारोगे तो वह अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगा .”यह उनका मात्र ज्ञान ही नहीं अपना अनुभव भी है ,और ऐसा कई बार हुआ है। अक्सर जब कुछ लोग एक साथ बैठते हैं तो कभी कभार चर्चा का विषय गीता भी होता है ,और आम लोगों की धारना के अनुसार हम एक वाक्य में पूरी गीता कह डालते हैं की निष्काम कर्म करना ही गीता का प्रथम और अंतिम सन्देश है। या फिर हमें फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए बस अपना कर्म करना चाहिए। इस बात में भी बहुत सार है पर दूसरी ओर यह कहा जाता है की हम कर्म करते ही फल की प्राप्ति के लिए हैं -यहाँ कर्म और फल को अलग कैसे किया जा सकता है दुविधा अकारण नहीं है ,बस आवश्यकता है तो गीता में कहे गए सन्देश को समझने की। इस काव्य में बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कहा गया है। एक एक शब्द में भारी व्याख्या छुपी है ,सन्देश है ,कर्तव्य है निष्ठां है व्यवहार है —–कह सकते हैं की यह मानवोचित विचारों का उचित मार्ग दर्शन है। इस लिए गीता को पड़ते समय हमें मात्र प्रत्यक्ष रूप नहीं देखना है हमें उसको मनोवैज्ञानिक रूप से भी समझना है। कुछ होने के लिए कुछ कारण होता है और कारण परिस्तिथियों से पैदा होते हैंऔर परिस्तिथियाँ विचारों की देन हैं और हमारे विचार हमारे कर्म सुनिश्चित करते हैं। फिर कर्मफल भी भोगने पड़ते हैं जो सुखद भी हो सकते हैं और नहीं भी।
युद्ध भूमि अर्जुन के हृदयविदारक आर्तनाद को कृष्ण ने सुना चुपचाप ख़ामोशी से तन्मय हो कर सुना। अर्जुन दुख के जिस शोक सागर में डूब चूका था उसे उस स्तिथि से बाहर लाने के लिए प्रहार की आवश्यकता थी जिससे उसकी मोह की तंद्रा
भंग हो सके और ये मीठे कोमल शब्दों द्वारा बिलकुल भी संम्भव न था। शरीर में आ गई शिथिलता को मन में चुभ जाने वाले शब्दों के प्रहार ही जीवन संचार कर सकते थे। ऐसे शब्द जो बिजली की कड़कड़ाहट और चकाचौंध वाली रौशनी लिए हो और जो किसी ठोस वस्तु सा प्रहार करे : इसलिए जब कृष्ण ने मौन तोड़ा तो कहा की हे पार्थ तुम तो शत्रुओं का विनाश करने वाले वीर हो तो फिर यह कायरों
जैसा ,(नामर्दों )व्यव्हार क्यों कर रहे हो। इस शिथिलता का कोई प्रयोजन नहीं ,उठो अपने र्धर्म का पालन करो। शब्द कोमलता से ही कहे गए थे पर उनका प्रहार सीधा ह्रदय पर लगने वाला था। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रयास है किसी को भी “शून्य”परिस्थिति से बाहर लाने के लिए। रूठे हुए बालक को आज भी हम ऐसे ही मानते हैं —-आप भी सहमत होंगे।