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जिन्दगी : “आसक्ति और द्वेष “

Tez Samachar by Tez Samachar
May 16, 2021
in Featured, विविधा
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जिन्दगी : “आसक्ति और द्वेष “
Neera Bhasin
 श्लोक संख्या 64 , अध्याय -2 
भावार्थ — परन्तु आसक्ति और द्वेष से रहित अपने वशीभूत इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण करता हुआ सयंतचित पुरुष अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। 
   श्लोक संख्या 65 , अध्याय -2 –
भावार्थ –अंतःकरण की प्रसन्नता प्राप्त होने पर इस (पुरुष )के सभी दुखों का नाश हो जाता है।  व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही  ( परमात्मा में स्तिथ हो जाती है। 
         अर्जुन को हम अज्ञानी तो नहीं मान सकते। वह एक  राजकुमार था और उसकी शिक्षा दीक्षा बहुत ही सुचारु ढंग से हुई थी। कर्म से वह एक वीर पुरुष था और युद्ध कौशल में उसका कोई सानी नहीं था। गुरु द्रोण  को भी अर्जुन के कुशल योद्धा होने पर बहुत गर्व था।हम अनेक  विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं और पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त कर मास्टर की विशेष डिग्रियाँ भी प्राप्त करते हैं। जाहिर है की हमने पूरे  मनोयोग से अमुक विषय का ज्ञान प्राप्त किया और समय आने पर उसका प्रयोग भी और सदुपयोग भी किया। अर्जुन ने भी अपनी शिक्षा प्राप्त करते समय अपने ध्यान को चारों तरफ से हटा कर –या कह सकते हैं की लक्ष्य  अतिरिक्त और कुछ न दिखाई दे , ऐसा अभ्यास किया था। यह भी योग की ही एक प्रक्रिया है। लक्ष्य मात्र पर मन को केंद्रित कर लेने से असफलता के अवसर ‘न’ से भी कम  हो जाते हैं –अर्जुन के जीवन में ऐसे कई अवसर आये जब अपने कार्य की सिद्धि  के लिए अर्जुन ने अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। तब अर्जुन को मोह या अन्य किसी प्रकार की विषयसक्ति ने विचलित नहीं किया। ऐसी अवस्थाओं को वैदिक अध्ययन के अंतर्गत मन की एकाग्रता कहा गया है। निरंतर अभ्यास से मनुष्य धीरे धीरे अपनी सभी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। 
                   यहाँ कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण ने अर्जुन को ऐसे तथ्यों के बारे में बताया जो मनुष्य को कठिन समय आने पर कमजोर बना देता हैं। जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर विजय पा लेता है वह  ही दृढ़ निश्चय वाला बन पाता है –अपने कर्तव्य का पूरी तरह से पालन कर पाता है। सांसारिक सुख मनुष्य को तरह तरह से लुभाते रहते हैं और इन्द्रियों के वशीभूत  मनुष्य तरह तरह के काम उन सुखों को पाने के लिए करता रहता है और धीरे धीरे वह अपने बने इस जाल में खुद ही उलझ जाता है और   कष्ट भी पाता है , पर लालच है की उसका पीछा ही नहीं छोड़ता। फिर एक समय ऐसा भी आता है  जब उसे लगता है की अब संसार का ऐसा कोई सुख नहीं है जो उसके पास नहीं –अब कोई उसका  कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पर सच तो यह है की इतना विशाल भौतिक संसार पाकर भी वह खुश नहीं बेचैन है –एक तरफ इसे शास्वत बनाने की दौड़ और दूसरी तरफ यश पाने  की इच्छा ,हम इसे साधारण भाषा में बड़ा आदमी बनने की इच्छा कहते हैं , क्या ये सब प्रयत्न उसे सुख देते हैं ,क्या इससे मन तृप्त हो जाता है -नहीं ये सब उसे अहंकार देते हैं , भय देते हैं ,लोभी और क्रूर बना देते हैं।  कुरुक्षेत्र में उपस्तिथ दुर्योधन और महल में बैठे दृतराष्ट्र की यही मनोस्तिथि बन गई थी। वे जिस सुख की खोज में अंधे थे ,वो शास्वत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इसकी उपलब्धि का प्रयत्न ज्ञान वा न्याय के द्वारा नहीं क्रोध और अहंकार के बल पर किया जाने वाला था। 
                   परन्तु जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को अपने वश में  कर लेता है वह ज्ञानी कहा जा सकता है , “ज्ञान “अर्थात अच्छे  और बुरे का ज्ञान ,शास्वत और क्षणभंगुर के बीच का ज्ञान , उचित और अनुचित के बीच का ज्ञान —इससे आसक्ति और द्वेष के बीच के भेद को समझने में कठिनाई नहीं होती। और मुष्य जब अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तो उसके सभी दुखों का अंत हो जाता है। यहाँ एक प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है की क्या अब मान लिया जाये की  अमुक व्यक्ति के जीवन में कोई दुःख नहीं आएगा –आएगा और अवश्य आएगा ,क्योंकि हम सब  समाज और परिवार का  हिस्सा हैं ,पर ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद मनुष्य की सोच बदल जाएगी और विकट एवं प्रतिकूल परिस्तिथियों में भी वह सही राह का चयन बड़ी सरलता से कर पायेगा | अब परिस्तिथयों वश मिला दुःख हृदय को कष्ट नहीं देगा। ऐसे में मनुष्य को सुख दुःख सम  लगने लगते हैं। अब वह अपने व्यवहार और कर्मों को करता हुआ सदा प्रसन्नचित्त रह सकता है। ऐसी मनोस्तिथि तो भगवान् के दिए प्रसाद की तरह होती है। जो भी मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है वह धीरे धीरे स्वभाव से शांत हो आत्मज्ञान को प्राप्त होता है। अर्जुन को इसका अहसास दिलाना बहुत आवश्यक था क्योंकि वह मोहवश अपनी इन्द्रियों से अपना सयंम खोता जा रहा था और निढाल हो शस्त्रों का त्याग कर चुका था। हम यह भी कह सकते हैं की ऐसी परिस्तिथि में शस्त्र उसके हाथ से छूट गए। अर्जुन को भय  था की यदि वो अपने पूज्य्नीय परिजनों का वद्ध करेगा तो वह पाप का भागी बन जायेगा। श्री कृष्ण ने कहा जो ज्ञानी पुरुष होते हैं वे कैसी भी परिस्तिथियाँ हों अपना धैर्य नहीं खोते अपना नियंत्रण नहीं खोते। 
                         जब हम अपना जीवन एक व्यवस्तिथ रूप से जीते हैं तो धीरे धीरे विचारों में सयंम आने लगता है ,अच्छा क्या है बुरा क्या है इसके बीच उचित क्या है उसका चयन करना आसान हो जाता है। हमारी ज्ञान इन्द्रियाँ हमारे बस में हैं यही इस बात का सबूत है। पर ऐसा हमेशा तो नहीं रह पाता। मानव स्वभाव और मानव स्वभाव में चंचलता मन के विशवास को कमजोर बना देती है। बरसों से साधा विश्वास भी डोल जाता है। पांडवों ने सदा ही  अपने चचेरे भाइयों का दिया अपमान झेला ,तिरस्कार झेला ,
दुःख झेला ,वनों में कठिन जीवन बिताया ,बार बार मौत के मुहँ से बचे –यह  उनका आत्म सयंम था। पर आज युद्ध में अपने पूज्यजनों को  शत्रुपक्ष में देख कर अर्जुन का धीरज छूट गया। वह युद्ध के मैदान में युद्ध के लिए ही सज्ज हो कर आया था पर अपने समक्ष भीष्म पितामह और गुरु द्रोण को देख कर वह  शिथिल हो गया , धीरज छूट गया और हाथ से शस्त्र गिर गए। 
दूसरी ओर श्री कृष्ण जिनका पूरा जीवन ही आत्मसयंम का एक ज्वलंत उदाहरण है वे अर्जुन को सयंम रखने का उपदेश दे रहे 
थे ,उस समय वे पूर्णरूप से शांत चित्त थे। यहाँ  दोनों ही पक्ष में उपस्तिथ सभी लोग  उनके अपने सगे संबंधी थे , सखा थे।  श्री कृष्ण एक महान योगी और ज्ञानी व्यक्ति थे इस लिए ऐसी विकट  स्तिथि में भी वे शांत चित्त थे। वे ज्ञान मार्ग से विचलित नहीं हुए। उन्हों ने अर्जुन को ज्ञान देने  का लिए वेद ,पुराण ,शास्त्र दर्शन आदि का सार समझाया और कर्तव्य पालन की राह दिखाई। ज्ञानी  और संयमी पुरुष का दृष्टिकोण आम आदमी से बिलुकल भिन्न होता है। गीता में वही गूढ़ रहस्य अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत किये गए। 
                  इस बात को हम एक बहुत ही छोटे से उदाहरण के साथ समझने का प्रयास करते हैं। भारत में ग्रामपंचायतों का चलन बहुत ही पुराना है। ग्राम पंचायत के निर्णय का पालन पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ के लोग पूरी श्रद्धा से मानते हैं और निभाते भी हैं। ग्रामपंचायत के सदस्य सर्व सम्मति से चुने जाते हैं और उनका चयन उनके अनुभव , आयु और संयमित स्वभाव को देखते हुए किया जाता है। किसी भी बात का निर्णय वे निष्पक्ष हो कर करते हैं  ,कारण की स्वयं प्रस्तुत की जा रही घटना से कोई 
संबंध नहीं रखते। यदि कभी उनमें से किसी को न्याय की आवश्यकता होती है तो वो सदस्य न्याय कर्त्ता  के पद से हट कर पार्थी के रूप में उपस्तिथ होता है। वे जानते हैं की जो भी घटित हुआ है और उचित अनुचित को ध्यान में रखते हुए जो भी निर्णय हुआ है उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनको कोई हानि या लाभ नहीं होने वाला। इस बात को या ऐसे किसी घटना क्रम को देखें ,सुने या संमझें तो पाएंगे की पंच सदा अपने सदस्यों के बीच सलाह -मशवरा करके ही सही फैसले पर पहुँचते हैं। इस बात पर भी ध्यान देना होगा की वे भावात्मक रूप से अपने किसी फैसले 
से कोई सम्न्बंध नहीं रखते –वे सारे हालत को समझ कर सही और गलत का निर्णय करते हैं। इस समय उनका निर्णय ईश्वर का निर्णय माना जाता है -जिसमे स्वार्थ या अहंकार का कोई स्थान नहीं होता। आज कल कुछ पंचायतें अपवाद का शिकार हो रही हैं ,पर ये सब अहंकार और कुर्सी के लोभ के कारण हो रहा है। यदि ऐसे ही चलता रहा तो परम्पराएं धरी की धरी रह जाएँगी –ये स्वार्थी घटक हैं। 
             श्री कृष्ण ने जो अर्जुन से कहा की प्रसन्नचित हो जाने पर अर्थात सम बुद्धि हो जाने पर दुखों का अंत हो जाता है और ऐसे लोग शीघ्र ही आत्मज्ञान द्वारा परमात्मा में स्तिथ हो जाते हैं। यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है क्या दुःख पा कर इन्दिर्यों को वश में करना उचित होगा या फिर इन्द्रियों को पहले ही वश में करके सुखी रहना उचित है —दोनों बातों में अंतर् है भी और नहीं भी। प्रश्न बाद में या पहले सुखी होने का नहीं है ,प्रश्न है इन्द्रियों को वश में करने का। किस तरह का दुःख बड़ा है या क्या दुःख है जिसने हमारे सुख को छीन  लिया। इसकी परिभाषा को शब्दों में बाँधा  नहीं किया जा सकता। यह अभ्यास से ही अनुभव किया जा सकता है। एक ऐसा अभ्यास जो जीवनचर्या का हिस्सा हो। हम देखेंगे की नित्य अभ्यास करने से जीवन के साथ साथ ज्ञान भी पनपने 
लगा है –इसका अनुभव भी हमें होने लगेगा। हानि तो हमेशा भौतिक वस्तुओं की होती है ,जो मानव निर्मित है उनकी होती है ,
जिस पर गर्व या अहंकार प्राप्त होता है उनकी होती है। शिक्षा ज्ञान और विश्वास आदि को कोई नष्ट नहीं कर सकता ,ये तो आत्मसात हैं सदा साथ हैं। कोई वस्तु छोटी या बड़ी यदि वह टूट जाती है या मिट जाती है या फिर छिन्न जाती है तो दुःख का कारण बन जाती है। दुःख हो या सुख ये छोटा या बड़ा नहीं होता ,हमारी सोच उसे छोटा या बड़ा बनाती है ,हमारा मोह उसे छोटा या बड़ा बनाता है ,भौतिक संग्रह उसे मूल्य वान या अमूल्य वान 
बनाता है, उसमे पाप और पुण्य , लाभ – हानि ,मोह और द्वेष ढूंढ़ने लगता है  ,ये सब साधारण सोच  कारण होता है।  व्यक्ति ने यदि अपने को सांसारिक  भावनाओं से  ऊपर उठा लिया  तो हमें यह  मान लेना चाहिए की उसने  इन्द्रियों को वश में कर लिया है ,
उसे आत्मस्वरुप समझ में आने लगा है और उसने  जान  लिया है की यह संसार नश्वर है ,यहाँ कुछ भी शास्वत नहीं सिवा अंतर में  स्तिथ “आत्मा “के , जिसे हम देख तो नहीं सकते पर क्योंकि हम हैं इसलिए  इसका बोध अवश्य कर सकते हैं। श्री कृष्ण ने 
कहा है जो सदा प्रसन्नचित्त है  ईश्वर उसकी बुद्धि में स्तिथ है। 
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