कुरुक्षेत्र में अर्जुन को भी अपने कर्म अर्थात कर्तव्य का ज्ञान था जो एक क्षत्रिय होने के नाते उसके साथ पीढ़ियों से चला आ रहा था। प्रश्न तो वही है की कर्म स्थिर नहीं है उनका कोई लक्ष्य नहीं है और वे स्वार्थ से भी परे नहीं हैं। मानव प्रकृति में स्वार्थ तो कूट कूट कर भरा है। बहुत कुछ पा कर भी मन तृप्त नहीं होता ,अपितु अहंकार बढ़ता जाता है और भविष्य में किये जाने वाले ‘कर्म ‘मात्र अहंकार की पूजा रह जाते हैं। यहाँ तक की मनुष्य सोचने समझने की शक्ति भूल जाता है -भौतिकता का संग्रह और निजी सुख की प्राप्ति के लिए कुछ भी करते जाना एक मानसिक रोग की तरह हो जाता है। यही दशा कौरवों की थी जो समाज को दीमक की तरह खाये जा रही थी। युद्ध की यलगार अहंकार और लोभ का ही फल था। इस लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाने का प्रयास किया ,और जिस ज्ञान से श्री कृष्ण ने उसके अंतःकरण को प्रकाशित करने का प्रयास किया वह ज्ञान उपरोक्त सभी भावनाओं से हट कर था।
मनुष्य जब बहुत सारे काम एक साथ शुरू कर लेता है तो उसका ध्यान भी बंट जाता है और कहीं न कहीं किसी ना किसी काम में उसे मिल रही सफलता या असफलता उसके अन्य कार्यों में भी बाधा बनती जाती है कभी कोई एक वस्तु लुभाती है तो कभी दूसरी वस्तु भयभीत करती है। इसी उहापोह में वह भटकता रहता है। श्री कृष्ण यहाँ अर्जुन को समझाना चाहते हैं की यह परम्परागत चली आ रही रूढ़ियाँ नहीं हैं –कोई भी मनुष्य यदि एक उद्देश्य को मन में ले कर आगे बढ़ता है तो अपना सारा ध्यान उसी बात को ले कर उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए केंद्रित करता है। ऐसे में न तो उसके मन में कोई शंका उत्पन्न हो सकती है और न ही किये जाने वाले कार्य में कोई बाधा। यह वो स्तिथि है जहाँ हम कह सकते हैं फल प्राप्ति की भावना (अच्छी या बुरी ,सफल या असफल ,सुख देने वाली या कष्ट देना वाली ) भी मन में नहीं आनी चाहिए। इससे आत्म बल कमजोर पड़ जाता है और शरीर शिथिल पड़ जाता है फिर चाहे ये राज महल में खेला जाने वाला चौपड़ हो या मैदान में लड़े जाना वाला युद्ध या फिर कोई यज्ञ अनुष्ठान आदि।
मन की एकाग्रता सफलता की कुंजी है। अधिकतर देखा गया है की जब कोई किसी कर्म कांड का आयोजन करता है तो उसके साथ साथ वह अपनी सम्पन्नता और शक्ति का भी प्रदर्शन करता है और इसका फल कहें या उद्देश्य कहें ‘ अहंकार ‘ बन जाता है। युद्ध के मैदान में , मेरा अपना विचार है की अर्जुन को कहीं ना कहीं ये अहंकार था और विश्वास भी था की युद्ध में उसके हाथों से कोई नहीं बच पायेगा ,और जब कुरुक्षेत्र में अपने ही परिवार को विपक्ष में सज्ज देखा तो उसके फल की चिंता कर उसका हृदय विचलित हो उठा। इस लिए श्री कृष्ण ने उसे एक योद्धा होने का कर्तव्य याद दिलाया और अपना ध्यान अपने लक्ष्य की ओर स्थिर करने को कहा। हमारे जीवन में भी जब कोई निर्णायक क्षण आते हैं तो हमें भी अपना ध्यान लक्ष्य पर ही केंद्रित करना चाहिए।
श्लोक -42 ,43 -अध्याय 2 —
भावार्थ –हे पार्थ (काम्यकर्म -संबंधी )वेद वाक्यों में प्रीती रखने वाले (स्वर्गप्रद कर्मों के अतिरिक्त )और कुछ नहीं है ,ऐसा कहने वाले अविवेकी लोग जन्मरूप कर्म फल को देने वाली तथा भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की क्रियाओं को बतलाने वाली ,इस प्रकार की जिस पुष्पित (अर्थात रमणीय प्रतीत होने वाली ) वाणी को कहा
करते हैं।
धरती पर अनगिनत लोग हैं कुछ ज्ञानी और कुछ अज्ञानी ,कुछ परिस्तिथियों को देख कर जान कर समझने का प्रयास करते हैं तो कुछ देख समझ कर आगे बढ़ते हैं। वे समयानुसार आवश्यकताओं को देखते हैं और एकाग्रचित हो कर काम करते हैं ,तो कहीं कुछ लोग फिर भी परिस्तिथियों से झूज रहे होते हैं ,पर यंत्रवत और उदासीन रह कर काम करते जाते हैं।
श्री कृष्ण यहाँ पर ऐसे व्यक्तियों की चर्चा कर रहे हैं जो परिस्तिथियों को देख समझ तो रहे हैं पर करते वही हैं जो वेदों का कथन है पर ऐसे लोग वेदों की वाणी को विश्लेषण रूप से अनदेखा कर देते हैं। जिन्हों ने शास्त्रों का अध्यन किया है उनमें समझ है ,उनमें
कार्य करने की क्षमता अधिक होती है। क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान की समझ होती है। आत्मा परमात्मा ,मृत्यु -जन्म मृत्योपरांत आत्मा का होना या व्योम में विलय होना या भटकना -इसका ज्ञान वे रखते हैं।
इस लिए उनका स्थान साधारण व्यक्ति से कहीं ऊपर होता है। ऐसे व्यक्ति ही दूसरों का पथ प्रदर्शन कर सकते हैं। वे कर्म में विशवास रखते हैं और यही मोक्ष का मार्ग है ऐसा समझते हैं। पर ऐसे व्यक्ति जो जीवन के अंत में मोक्ष की कामना करते हैं पर जीवन पर्यन्त भौतिक सुखों के लिए कर्म करते वा उसमें लिप्त रहते हैं , वे प्रायः पथ भ्रष्ट माने जाते हैं।
कर्म फल तो आने वाले काल के लिए होता है (मृत्यु पर्यन्त भी होता है ) परन्तु ज्ञान ‘कर्म ‘को सही राह दिखता है। क्योंकि इन्हीं कर्मों का फल मृत्युपरांत मनुष्य का या कहें की आत्मा का स्थान निर्धारित करता है। कुछ बुद्धिजीवों का भी यह मानना है की लोग सुखों का संचय जीवन के भोग के लिए करते हैं और ऐश्वर्य का संचय शक्ति प्रदर्शन के लिए। आज जब मैं अपने चारों तरफ देखती हूँ तो यही लगता है की हर किसी के कर्म स्वार्थ पूर्ति से अधिक कुछ भी नहीं। मृत्युपरांत आत्मा को सद्गति प्राप्त हो इस एक सोच के चलते मनुष्य छोटे छोटे कर्म कांड कर अपने आप को भरम में रखता है।
विचारों में स्थिरता ,स्पष्टता और ठहराव होना आवश्यक है नहीं तो शंका और दुविधा की स्तिथि बनी रहती है।
श्लोक -44 –अध्याय 2
भावार्थ –उस वाणी के द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है तथा जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त हैं ऐसे लोगों के अंतःकरण में आत्मविषयक निश्चयात्मक बुद्धि नहीं ठहर पाती।
सांख्य दर्शन के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में यह कहा गया है की आध्यात्मिक ,अधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के दुखों का बिलकुल ना रहना या उत्पन्न ना होना ही प्राणी मात्र का मुख्य अभिप्राय है। पुरुषार्थ चार प्रकार के हैं – धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष। इन चारों में मोक्ष ही सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। यहाँ शंका होती है की मोक्ष से ही मुक्ति क्यों ? धर्म,अर्थ या काम से क्यों नहीं ? तो इसका समाधान यह है की सांसारिक साधनों से यदि हम एक दुःख से छुटकारा पाते हैं तो दूसरे दुःख हमें घेर लेते हैं। एक दुःख हटता नहीं की दूसरा आ खड़ा होता है इस लिए दुखों के आस्तित्व को ही मिटा देना तो परम पुरुषार्थ अर्थात ‘मोक्ष ‘ द्वारा ही संभव है। जब कोई कर्म किसी फल की इच्छा से किया जाता है या मनोवांछित उपलब्धि की प्रबल भावना के साथ किया जाता है तो उसका परिणाम बहुत हे सीमित हो जाता है। कारण ना तो कर्म ही व्यापक रूप में था और ना ही उसका फल किसी अन्य के लाभ आदि के लिए था। अब फलस्वरूप जो भी प्राप्त होगा वह भी क्षणिक सुख ही होगा।
उपरोक्त कहे गए 41 ,42 और 43 वें श्लोक में श्री कृष्ण ने ऐसे कर्मों की जो स्वार्थ या फल की इच्छा से किये जा रहे हैं ,उनकी बड़े कठोर और दृढ़ शब्दों में भर्तसना की है। ऐसे विचारों से आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है। ऐसे कर्म तो मात्र दिखावा हैं। इनका आत्मा से कोई लेना देना नहीं। इन्हें हम शक्ति और सम्पन्नता का प्रदर्शन कह सकते हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग समाज को ऐसे अनर्थक नियमों का शिकार बना देते हैं और जनता को इस लोक का और परलोक का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। नतीजा गरीब लोगों का तो जीना ही कठिन हो जाता है ,उनका सारा श्रम व धन भय का निवारण करने में ही निकल जाता है। समाज एक बहुत बड़ा हिस्सा कर्म फल के लिए कर्म कांड का शिकार हो जाता है। इतिहास इस बात का प्रमाण है की सबसे अधिक धर्म परिवर्तन गरीब लोग ही करते हैं। पर जो सच को जान लेता हैं उनके लिए सब भेद भाव मिट जाते हैं।