भावार्थ –हे पार्थ ! यह (सम )बुद्धि तुझे सांख्य (अर्थात ज्ञान योग ) के विषय में कही गई है अब तू इसे कर्म योग के विषय में सुन -जिस सम बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म के बंधन को अच्छी तरह नष्ट कर डालेगा।
दूसरे अध्ययाय के प्रथम 30 श्लोकों में श्री कृष्ण ने आत्मा और परमात्मा के स्वरुप को और आत्मा नित्य है ,इस विषय पर अर्जुन को ज्ञान दिया। क्योंकि जब बुद्धि भ्रमित हो जाती है तो विवेक काम करना बंद कर देता है ,मनुष्य कर्त्तव्य विमुख हो जाता है और तब वह उसी बात को सत्य
मानता है जिसको उसके भ्रमित विचार सच मान बैठते हैं। इस लिए अर्जुन का मोह भांग करने को श्री कृष्ण ‘आत्मा ‘ के नित्य होने का उपदेश देते हैं। मनुष्य को काल,परिस्तिथि और आवश्यकतानुसार मानव जाति के कल्याण हेतु धर्म का पालन करते हुए किस तरह
अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए -वे अर्जुन को समझाना चाहते हैं। प्रस्तुत काव्य में कर्त्तव्य का पालन करने हेतु ,या फिर समाज की मान्यताओं और मूल्यों की रक्षा करने हेतु या फिर धर्म की संस्थापना करने हेतु अर्जुन के पास मात्र एक ही विकल्प बचा था —
‘युद्ध ‘ | युद्ध अर्थात भीषण नर संहार और वो भी अपने ही परिजनों का। यह एक विचारों का तूफ़ान था -भारत भूखंड के अधिकतर लोग विलासिता और वैभव के दास थे और उसे साम दाम दंड भेद पा लेना अपना हक़ समझते थे। विचारों की यह आंधी जन जन के ह्रदय में उमड़ पड़ी थी। यथा राजा तथा प्रजा -इसी लिए श्री कृष्ण ने
धृतराष्ट्र और दुर्योधन को सही निर्णय और प्रजा के हित में निर्णय लेने का अनुरोध किया। उन्हें युद्ध के परिणामों से अवगत कराया। यह परिस्तिथि सभी के लिए कष्टदायनी थी ,वो चाहे पक्ष में रह कर मिले या विपक्ष में ,नुक्सान सबका बराबर ही होने वाला था।
अहंकार और लोभ ऐसी दो विचार धाराएं हैं जो इंसान की सोच पर एक गहरा काला घने बादलों जैसा आवरण डाल देती हैं। जब किसी राजा की सोच स्वार्थ भरी हो तो प्रजा को इससे शह मिलती है और इससे चारों ओर आतंक और अराजकता फ़ैल जाती है। स्पष्ट है की श्री कृष्ण की सलाह का कौरवों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दिन पर दिन उग्रता बढ़ती
गई ऐसे में किसी उचित परिवर्तन की सम्भावना समाप्त हो जाती है। जन साधारण को सामाजिक और धर्मनुसार हितों के मूल्य को कैसे समझाया जाये ! आप उस काल की परिस्तिथि को देखें या आज की – हालात का बिगड़ते जाना जितना सरल है परिवर्तन उतना ही कठिन।
ऐसे उदाहरण इतिहास में अनेक हैं या कहें अनगिनत हैं जहाँ सामाजिक उत्थान का एक मात्र विकल्प युद्ध ही रह गया था। कई राज्य बने और कई राज्य काल की गति में लुप्त हो गए। अहंकार और लोभ कई युद्धों का कारण बने। स्वार्थ की भावना ने सदा ही राज्यों को तहस नहस करने की भूमिका निभाई है।
कुरुक्षेत्र में भी कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। धर्म की
संस्थापना के लिए अर्जुन का धनुष उठाना अनिवार्य हो गया था। अर्जुन का कहना था की क्या युद्ध रोका नहीं जा सकता ,अपनों का अपने ही हाथों से संहार कर के धर्म की संस्थापना हो सकेगी -अर्जुन की दुविधा सही थी पर कृष्ण का उपदेश भी उचित था। देश, राज्य ,प्रजा और संस्कृति की रक्षा ,इन सब के लिए विचारों में परिवर्तन की थी और इस लिए धर्म युद्ध अनिवार्य हो गया था।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश इस लिए दिया की वो समय ,समाज और परिस्तिथियों को ध्यान में रख कर युद्ध के लिए अग्रसर हो ,किसी भी योद्धा को युद्ध में भाग लेना है तो उसके मन में उद्देश्य और संकल्प का होना बहुत आवश्यक है। मन को यदि संदेह और मोह ने आ घेरा तो तो शरीर का शिथिल हो जाना स्वभाविक है।
इस लिए श्री कृष्ण अर्जुन को ‘कर्म ‘ करने को कहते हैं। दूसरी ओर हम कोई भी काम करें उसके दो ही परिणाम होते हैं -सफलता या असफलता .इस लिए फल की चिंता भी कर्त्तव्य का पूरी तरह से निर्वाह करने में बाधा बन सकती है। ऐसे में आत्म ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है। मृत्यु से परे भी एक सच है -वो समझना भी बहुत आवश्यक है तभी हम अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर ,कर्त्तव्य पालन कर ,उसके परिणाम को ग्रहण (स्वीकार कर ) सकेंगे।
स्वामी चिन्मयान्द जी लिखा है “The law of karma which is often misunderstood as the law of destiny ,form a very cordinal creed of the hindus and a right understanding of it is absolutely unavoidable to all students of the Hindu way of life .”
हम मोक्ष प्राप्ति के लिए या फिर शांति पूर्ण जीवन जीने के
लिए दो प्रकार की राहों में से एक राह चुन सकते हैं। इनका उदेश्य
भी एक ही होगा मंजिल भी एक ही होगी पर एक राह ‘ कर्म ‘ प्रधान होगी और दूसरी ‘ सन्यास ‘| कर्म प्रधान राह पर मनुष्य को अपने कर्तव्यों का एवं जीवन लक्ष्य का पूरा ज्ञान होना बहुत आवश्यक है जिसका मार्ग दर्शन विवेक बुद्धि द्वारा होता है। अपने कर्त्तव्यों का
पालन करने के लिए हमें मन ,वचन और क्रम से पवित्र होना होगा। यह
असंम्भव नहीं है पर कुछ लोगों के लिए कठिन अवश्य हो सकता है।
कारण की यह किसी योग साधना से कम नहीं। दूसरी ओर सांख्य दर्शन है ,सन्यास है जहाँ सत्य और असत्य के बीच का भेद जान लेना आवश्यक है ,नहीं तो मोह भंग नहीं होगा -मन अधर में ही लटका
रहेगा। ज्ञान को प्राप्त करना अति आवश्यक है तभी तो विवेक बुद्धि के अँधेरे दूर हो सकेंगे। यदि हम ज्ञान को आत्मा का सच मान कर चलेंगे तो हम सामान्य स्तर से कहीं ऊँचा उठ कर सोचने लगेंगे। अच्छे और बुरे का भेद हमें उचित राह दिखायेगा। अपनी राह का चयन करने का हक़
व्यक्ति विशेष का अपना भले ही हो पर राह ऐसी होनी चाहिए जिस पर चलने से सब का भला हो या दूसरे शब्दों में उस प्रयत्न में किसी दूसरे को हानि न पहुंचे इस बात का सदा ध्यान रहे। ऐसे में कभी कभी गुरु की आवश्यकता होती है जो अर्जुन को कृष्ण के रूप में मिली।