भावार्थ -जब तेरी बुद्धि मोहरूपी पंक को पार कर जाएगी उस समय तू सुनने योग्य और सुने हुए सभी विषयों के प्रति वैराग्य
को प्राप्त हो जायेगा।
सर्व प्रथम उदाहरण के लिए सांख्य योग के श्लोक संख्या 7 को लेते हैं जिसमें कहा गया है की यदि जीव स्वभाव वश बंधन में पड़ा है तो उसके मुक्त होने की विधि का उपदेश हो ही नहीं सकता। क्योंकि बंधन को जीव का स्वाभाविक धर्म मानने पर मोक्ष होगा ही नहीं ,परन्तु यहाँ दुखों की निवृति मोक्ष से की गई है इसलिए जीव का स्वभाव बंधन कदापि नहीं हो सकता।
कर्म-फल- रूप बंधन प्राप्त होने पर ही मोक्ष के द्वारा उसका नाश होता है। ” सांख्य दर्शन के ही श्लोक संख्या 8 में कहा गया है की स्वभाव तो स्थाई होता है ,उसे हटाया नहीं जा सकता। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है ,बिना गर्मी के कभी अग्नि रह
ही नहीं सकती , जल का स्वभाव ठंडा होता है ,उसे गर्म करने के कुछ देर बाद वह फिर ठंडा हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ की कोई भी पदार्थ अपने स्वभाव से विपरीत गुण वाला नहीं होता
,इसलिए बंधन यदि जीव का स्वभाविक गुण है तो उसके लिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने से कोई लाभ नहीं हो सकता ,क्योंकि बंधन का स्वभाव होने के कारण मोक्ष हो ही नहीं सकता। इसलिए स्वभाविक बंधन वाले जीव के लिए मोक्ष का विधान करना शास्त्र के विरुद्ध सिद्ध होगा और उसे कभी प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। ” पर मानव जाति के स्वभाव में कई तरह के गुण हैं जिसमे से विवेक और तर्क बुद्धि विशेष हैं।
जिस किसी के पास ऐसी बुद्धि का अभाव होता है उसे मानव शरीर धारी होते हुए भी पशुवत जीव मान लिया जाता है और वो
अपना पूरा जीवन किसी का आश्रित बन बिताता है।
गीता के प्रस्तुत श्लोक में भी श्री कृष्ण अर्जुन को विवेक बुद्धि का महत्व समझा रहे हैं। क्योंकि यहाँ अर्जुन भी अपना विवेक खो बैठा है ,वह पूर्णतया मोह ग्रस्त हो चुका है और ऐसे समय में मनुष्य सदा अपने लक्ष्य से भटक जाता है और मात्र अपनी भावनायों पर केंद्रित हो जाता है। अर्जुन को भी मोह रूपी पंक अर्थात दल दल का त्याग कर अपना पूरा ध्यान अपने लक्ष्य की ओर केंद्रित करना चाहिए। हमारे दिन प्रति दिन के कार्यों
में ,विशेष अवसरों में या किसी निर्णय विशेष के समय हमारे विचार अधिकतर स्वार्थी हो जाते हैं ऐसे में स्वाभाविक है की हम वही करते हैं जो हमें अच्छा लगता है और यह भी मान बैठते हैं
हमारे काम की बहुत सराहना होगी ,क्योंकि हमने जो सोचा है जो करने वाले हैं या किया है वो सब की भलाई के लिए ही तो है —
पर उस समय परिस्तिथियों की मांग कुछ और होती है ,सब का ‘भला’ किसी और ही तरह के कर्म की अपेक्षा करता है। ऐसे में कभी कभी अच्छी सोच भी जन हित में नहीं होती ,समय के अनुकूल नहीं होती और इस लिए विनाश का या हानि का कारण बन जाती है।
कारण की मनुष्य किसी स्वाभाव विशेष में बंधा हुआ नहीं है इसलिए वह तर्क और विवेक द्वारा समयानुसार निर्णय ले सकता है ,यदि ऐसा है तो फिर अर्जुन क्योंकर अपनी बात पर अड़ गया है ,क्यों वह मोह को अपने कर्त्तव्य से ऊपर मान बैठा है। जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक मोह रूपी अँधेरा दूर नहीं होगा और यदि एक बार यह अँधेरा छट गया तो फिर व्यर्थ की मोह माया को त्याग देने में कष्ट नहीं होता। यहाँ श्री कृष्ण अर्जुन को विवेक द्वारा कर्त्तव्य का निर्वाह करने को प्रेरित कर रहे हैं ,मोह का त्याग करने को प्रेरित कर रहे हैं।
श्लोक 53 —अध्याय 2 ,
भावार्थ — (अनेक प्रकार के फल ) श्रुतियों (को सुनने ) से विक्षिप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधि में स्थिर हो कर ठहर जाएगी ,तब तू (समत्वरूप )योग को प्राप्त होगा।
भारतीय संस्कृति को एक उचित व्यवस्था वा व्यवहार को एक उचित दिशा देने के लिए हमारे ऋषि मुनियों
ने बहुत खोज बीन के बाद वेदों वा पुराणों की रचना की और कालांतर में कई प्रकार के दर्शन शास्त्रों की रचना हुई और उनमें काल और परिस्तिथियों के अनुसार जीवन शैली में ,मानव व्यवहार में समयोनुचित फेर बदल भी किये गए। ( यह वो व्यवहार हैं जो धर्म के अंतर्गत आते हैं अर्थात स्वाभाविक नहीं
हैं )ऐसे परिवर्तन बदलती हुई परिस्तिथियों के साथ और जटिल समस्याओं को सुलझाने के लिए आवश्यक हो जाते हैं। इसलिए परिवर्तन किये भी जाते हैं और निभाए भी जाते हैं। ऐसा सदियों से होता आया है और आज भी हो रहा है। परिवर्तन तो नियति है
फिर चाहे वो प्रकृति में हो या मानव के अंतर्मन में। इससे हमारा
ज्ञानवर्धन होता है और मनुष्य के जीवन में जब नयापन आता है
तो कर्मठता बढ़ती है ,उत्साह बढ़ता है। कुछ परिवर्तन और निर्णय हमें अपने समक्ष अचानक आ खड़ी हुई समस्याओं के कारण भी करने पड़ते हैं।
कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में पक्ष और विपक्ष दोनों ओर के योद्धा एक ही परिवार के थे और उनका साथ देने वाले समस्त
भारत भूखंड से ए राजा महाराजा भी किसी ना किसी तरह एक दूसरे से पारिवारिक संबंध रखते थे। फिर यह युद्ध भारत में घुस आई विदेशी ताकतों के विरोध में नहीं था ,यह तो परिवार में हो रहे अन्याय का अंत करने के लिए था यह जानते हुए भी सबने
इस युद्ध में अपने लाभ को ही देखा। लालच और भौतिकता के लोभ का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। सब सिंहासन
से बंधे थे।उनमें से कई वयोवृद्ध सत्कार योग्य परिवार के लोग अपने विवेक को भुला कर इस युद्ध को मात्र अपना सिंहासन के प्रति कर्त्तव्य मान नरसंहार करने को उद्धत थे यदि परिवार के गणमान्य , विवेकी और वयोवृद्ध लोग सही बात सामने रखते ,
अपने तर्क सामने रखते और अनुचित को अनुचित कहने का साहस करते तो इतिहास कुछ और ही होता।पर वे मौन थे। शायद यह सिंहासन के प्रति उनका कर्त्तव्य था। वे सब वेद पुराणों में दिए नियमों व शिक्षा के अधीन युद्ध करने को सज्ज थे तो दूसरी ओर इन्ही उपदेशों के आधीन अर्जुन अपने हथियार डाल चुका था। भीष्म पिता जैसे व्यक्ति भी चुप थे ,अपनी आयु का ,अनुभव का और परिवार के माननीय बुजुर्ग होने के हक़ का प्रयोग कर वे युद्ध को टाल सकते थे पर वे वचन बद्ध थे -उन्हों ने जीवन भर हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा का वचन अपने पिता को दिया था और इस समय राजसिंहासन पर कौरव पिता धृतराष्ट्र का अधिकार था जो हर हाल में अपने पुत्रों की उचित अनुचित बात का पक्षधर था । और दूसरी ओर अर्जुन अपने ही परिजनों को शत्रु पक्ष में देख मोहवश अपना विवेक खोता जा रहा था। अर्जुन के मन में रह रह कर एक ही बात आ रही थी की वह राज्य के लोभ में अपने ही परिजनों का वद्ध कर पाप का भागी नहीं बन सकता।
इसलिए यह आवश्यक है की दवंद में फंसे व्यक्ति के विचारों में अच्छा और बुरा दोनों को समझने की परखने की
बुद्धि का होनी चाहिए । जब मनुष्य स्वयं कोई निर्णय ना ले सके तो ऐसी परिस्तिथि में एक पथप्रदर्शक की आवश्यकता होती है। शंकराचार्य ने इसी श्लोक का भाव समझते हुए कहा है —-
“you may now ask ‘when shall I attain true conviction of the Self after crossing beyond the veil of ignorance and obtain wisdom through the discrimination of the self and the non self ? “
हम चाहे कितनी भी कठिन परिस्तिथि में फंसे हों तब भी हमें अच्छे और बुरे का विश्लेषण करना चाहिए ,हमारे कर्म परिस्तिथियों में सुधार लाने के लिए और जन हित के उत्थान के लिए होने चाहिए। अभ्यास से यह मनुष्य का स्थाई स्वभाव बन जाता है। यह सच है।