सांख्य दर्शन के पांचवें श्लोक में कहा गया है —–सांसारिक साधनों और उपलब्धियों –राज्य ,धन ,स्त्री ,भवन आदि सभी से ‘मोक्ष ‘cको श्रेष्ठ माना गया है। ऋग्वेद में महामृत्युंजय मन्त्र जिसका भावार्थ है –“हमें मृत्यु से छुड़ाओ पर अमृत से दूर मत करो ” .यहाँ अमृत पद से जीव की मुक्त अवस्था कही गई है। वेदों में कहीं भी सांसारिक साधनों को श्रेष्ठ नहीं कहा गया। इससे सिद्ध होता है मोक्ष ही दुःख से निवृति करने में समर्थ है।
जब जब बात कर्म की मोक्ष की या भौतिक सुखों की होती है तो विवेक और ज्ञान की कमी होने के कारण भौतिक सुखों पर आ कर रुक जाती है। भौतिक सुख वह हैं जो हमें तत्काल सुखों का अनुभव कराते हैं और ‘मोक्ष ‘ ये एक ऐसी उपलब्धि है जिसके लिए यदि हम जीवन भर प्रयत्न करें तो उस तरह की सुख या तृप्ति का अनुभव नहीं होता जो तरह तरह के भोज्य पदार्थ खाने ,सुरा पान करने या स्त्री गमन और अन्य कई विलासी वस्तुओं को भोग कर मिलता है। यह आनंद क्षणभंगुर ही सही पर है तो आनंद। पर ‘मोक्ष ‘ जो दृश्टि से परे , अनुभव से परे ,रंगरूप से परे , कैसे मन को लुभा सकता है। पर इसी समाज में कुछ ज्ञानी लोग भी हैं जो अपने जीवन के अनुभव से क्षणिक आनंद और परम् आनंद का भेद जान लेते हैं। ऐसे लोग मोक्ष की कल्पना मात्र से ही आनंदित हो जाते हैं।
भौतिक सुख पल पल अनुभव किये जाते हैं और आध्यात्मिक सुख -जब ज्ञान प्राप्त हो तब समझ में आता है।
भौतिकता में सुख अकेले कभी नहीं आते -दुखों की लड़ियाँ पटाखों की तरह हमेशा साथ चलती हैं और बीच बीच में फटती रहती हैं ,जिससे आस पास के सभी संबंधित लोग आहत भी होते हैं। क्योंकि ये क्षणिक सुख किसी व्यक्ति विशेष के अपने नहीं होते। ये कभी तो कष्ट उठा कर प्राप्त किये जाते हैं तो कभी कष्ट दे कर ,और कभी धोखे से तो कभी चोरी से। इनका एक दूसरा पहलु भी है -वो यह की जहाँ प्रतिस्पर्धा होती है वहां मनुष्य को जो लाभ होता है ,वो दूसरों को कष्ट दे कर ,cइर्षा में देख कर ,कुंठित देख कर या कुंठा दे कर प्राप्त किया जाता है।
दूसरी ओर ज्ञानी या विवेकी मनुष्य इन सब प्रकार के विचारों से ऊपर उठ जाता है। जब उद्देश मोक्ष प्राप्ति का हो तो मन में दुर्विचार आते ही नहीं –न किसी घटना विशेष पर अतिशय दुःख होता है और ना ही प्रसन्नता। किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा कर स्वयं प्रसन्न होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि यह राह तो मोक्ष की है संसारिक बंधनों की नहीं। जो लोग विवेक बुद्धि द्वारा नहीं सोचते वे सदा उलझनों में पड़े रहते हैं। प्रसिद्ध शायर मिर्जा ग़ालिब ने लिखा है —–
“हजारों ख्वाहिशें ऐसी की ,हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमां ,मगर फिर भी कम निकले। “
ऐसे भोग में लिप्त रहने वालों को श्री कृष्ण विवेकहीन मानते हैं। जो लोग जीवन का एक मात्र लक्ष्य ‘मोक्ष ‘ही रखते हैं वे कभी पथ भ्रष्ट नहीं होते। वे संसार में रह कर भी संसार से ऊपर होते हैं। इसीलिए श्री कृष्ण अर्जुन को विवेक बुद्धि द्वारा विचारों का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।
श्लोक 45 –अध्याय 2
भावार्थ — हे अर्जुन ! (सब )वेद तीन गुणों को विषय करने वाले
(अर्थात त्रिगुणात्मक संसार का ही प्रतिपादन करने वाले ) हैं। तू इन तीन गुणों से अतीत (अर्थात असंसारी) हो जा (सुख दुःख आदि ) द्वंदों से रहित ,नित्यवस्तु में रहने वाला योगक्षेमराहित (अर्थात अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा के लिए प्रयत्न ना करने वाला )
एवं आत्मवान (अर्थात प्रमाद रहित ) हो जा। प्रस्तुत श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को ‘कर्म ‘से कुछ हट कर मानव के प्रमुख तीन गुणों के बारे में समझाते हैं। वेदों में मानव स्वभाव या कर्म के बारे में कई रूप से व्याख्या की गई है जिसके अंतर्गत कर्म करने की अनेक राहों का वर्णन मिलता है जिससे हम समझ सकते हैं की प्रारंभ क्या है और अंत कहाँ है -पर हमें सदा इस बात का ध्यान रखना होगा की किसी भी कामना पूर्ति के लिए गए कर्म कांड के फल की सीमा निर्धारित होती है। इस लिए श्री कृष्ण का कहना है की
किसी भी कार्य या कर्म को या प्रयत्न विशेष को आँख मूँद कर नहीं करना चाहिए। वेदों में वर्णित ज्ञान को लोग अधिकतर अपने स्वार्थ के लिए उपयोग में लाते हैं और अधिकतर भौतिक सुखों के पीछे ही भागते देखे गए हैं। ऐसे लोगों को वेदों में ‘ तीन गुण ‘ वालों में विभाजित किया गया है -रजो गुण ,सतो गुण और तमो गुण। जो मनुष्य अपने भीतर सतोगुण धारण करता है वह सदा प्रसन्न रहता है। रजोगुण को प्रधानता देने वाला गुण मनुष्य के विचारों एवं कर्मों को सदा चंचल और चिढ़ चिढ़ा बनाये रखता है। लालसा बढ़ती ही जाती है और तमोगुण वाले व्यक्ति के मन में सदा अन्धकार और निराशा दिखाई देती है ,शरीर आलस्य और मन दुःख से बोझिल रहता है। इसका तातपर्य तो यह हुआ की ये तीनों गुण मनुष्य को कभी ख़ुशी देते हैं तो कभी दुःख और इस तरह एक सांसारिक मनुष्य भी इसी विरोधाभास में सदा फंसा रहता है।
ये सभी गुण एक दूसरे से विपरीत स्वभाव के हैं पर इनका प्रभाव हर जीव धारी पर पड़ता है या दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते हैं की प्रत्येक जीवधारी किसी एक गुण को अपना लेता है और उसी के अनुसार अपना जीवन जीता है।
आज के आधुनिक युग में देखें तो रजोगुण का प्रभाव बहुत अधिक है। हर कोई ऐश्वर्य बटोरने में लगा है एक के बाद दूसरा ,दूसरे के बाद तीसरा ,मानो इसका कोई अंत ही नहीं है। हर उपलब्धि का कार्यकाल बहुत ही छोटा है जल्दी ही चंचल मन कुछ और नया ढूंढ़ने में लग जाता है –परिणाम समाज में चल कपट और अहंकार बढ़ने लगता है। प्रतिस्पर्धा का अंत जय या पराजय नहीं होता ,इससे तो हमें अपने को सुधारने और भविष्य में अधिक श्रम करने की प्रेरणा मिलती है .लेकिन आज इससे समाज में विकृत भावना पनप रही है जिसके चलते एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव बढ़ता जा रहा है।
पल भर के लिए आइये हम कुरुक्षेत्र के दृश्य की कल्पना करें। ये युद्ध आखिर हुआ ही क्यों। परिवार एक ,परिजन सांझे गुरु एक ,शिक्षक एक ,देश एक ,भाषा एक ,रीतिरिवाज एक ,खानदान एक तो फिर महाभारत की नौबत क्यों आन पड़ी। रजोगुण और सतोगुण। कौरव रजोगुण से प्रभावित थे ,अपार संपदा राज पाट और धन दौलत के होते हुए भी वे तृप्त नहीं थे। लालच मोह और अहंकार ने उन्हें अँधा कर दिया था -ऐसे समय में विवेक बुध्दि गौण हो जाती है। दर दर भटकते पांडवों को यदि भरण पोषण के लिए पांच गांव दे दिए जाते तो कदाचित कलयुग का प्रारम्भ ही ना होता।
नाव क्षतिग्रस्त है और डूब रही है ,यदि क्षति को सुधारने की बजाये नाव् से पानी ही उलीचते रहे तो भी नाव को डूबने से नहीं बचा सकते। पानी को नाव से निकालने के साथ साथ नाव की मरम्त भी करनी आवश्यक है। नाव की बुरी दशा मनुष्य में अहंकार की तरह है। अपने मन से बुराइयों को निकालने के साथ साथ हमें अच्छे गुणों को भी अपनाना चाहिए ताकि सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे।