हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है। ज्ञान योग के द्वारा सांख्यों ( अर्थात ज्ञानयोगियों ) की और कर्म योग के द्वारा ( कर्म ) योगियों की ( निष्ठा ) कही गई है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने कहा है “We are talking about ‘moksha ‘ ,which can be produced, if it can be produced it would be lost also ,If for example ‘moksha ‘ could be achieved by purifying the ‘atman ‘ it would take no time at all for the ‘ atman ‘ to become impure again You would have to scrub it everyday ! “
यहाँ श्री कृष्ण ने जब यह बात अर्जुन से कही तो उन्होंने अर्जुन को न तो मित्र के रूप में देखा और न स्वयं को गुरु के रूप
में। श्री कृष्ण ने यह बात स्वयं को ‘ ईश्वर ‘ मान कर कही है। यह आत्मा से हो कर परमात्मा के स्वरूप को पहचानने की चेष्टा है। मनुष्य को अपने आप से ऊपर उठ कर सोचना होगा ,मानवता और कर्तव्य
की पहचान करनी होगी। श्री कृष्ण चाहते थे की अर्जुन भी ‘अर्जुन ‘ से
ऊपर उठ कर उनकी बात सुने। कृष्ण भी ‘ कृष्ण ‘ हो जाएँ और ‘अर्जुन’
भी ‘ कृष्ण ‘ हो जाये। भक्ति काल के संतों ने भी इसे ही मोक्ष का मार्ग माना है। यहाँ पर मैं आचार्य विनोबा भावे जी के कुछ विचार आप के साथ साँझा करना चाहती हूँ ,इन विचारों ने मेरा भी मार्ग प्रशस्त किया
है। ” मेरे जीवन में ‘गीता ‘ ने जो स्थान पाया है ,उसका मैं शब्दों
में वर्णन नहीं कर सकता। ‘गीता ‘ के अनंत उपकार हैं मुझ पर। रोज मैं
उसका आधार लेता हूँ , रोज मुझे उससे मदद मिलती है। ‘ गीता ‘ मातृवत है। मेरे हृदय और बुद्धि का पोषण ‘ गीता ‘ के दूध पर हुआ है।
जहाँ हार्दिक संबंध होता है वहाँ तर्क की गुंजाईश नहीं रह जाती। तर्क को काट कर ,श्रद्धा और प्रयोग इन दो पंखों से ही मैं ‘गीता – गगन ‘ में
यथा शक्ति उड़ान भरता रहता हूँ। मैं प्रायः ‘ गीता ‘ के ही वातावरण
में रहता हूँ। ‘ गीता ‘ मेरा प्राण तत्व है। ‘गीता ‘ महाभारत के मध्य में एक ऊँचे दीपक की तरह स्तिथ है ,जिसका प्रकाश सारे महाभारत पर
पड़ रहा है। समग्र महाभारत का नवनीत ( मक्खन ) व्यास जी ने ‘गीता ‘ में रख दिया है। ‘गीता ‘ व्यास जी का प्रधान सिखावन ( शिक्षा ) और उनके मनन का पूर्ण संग्रह है। जीवन के विकास के लिए आवश्यक प्रायः
प्रत्येक विचार गीता में आया है। ‘ गीता ‘धर्म ज्ञान का एक कोष है। “
” अर्जुन सन्यासी का वेश तो बना सकता था ,वैसी वृत्ति कैसे ला सकता था ? उसका स्वभाव उसे लड़ाये बिना नहीं रह सकेगा। स्वधर्म में रहने से ही विकास हो सकता है। स्वधर्म ऐसी वास्तु नहीं ,जिसे बड़ा समझ कर हम ग्रहण करें और छोटा समझ कर छोड़ दें।
स्वधर्म न छोटा होता है न बड़ा। वह हमारे नाप का होता है। दूसरे धर्मों की सरलता आभास मात्र होती है। वृत्ति सही होनी चाहिए चाहे संन्यास की हो। ‘ गीता ‘ कृष्ण ने कही ,सुनते हुए अर्जुन इतना सम रस हो गया की उसे भी ‘कृष्ण ‘ की संज्ञा मिली। यह वर्णन करते हुए व्यासदेव इतने
एकरस हुए की उन्हें भी ‘कृष्ण ‘ नाम से जाना जाने लगा। कहने वाला कृष्ण ,सुनाने वाला कृष्ण रचने वाला कृष्ण , इन तीनों में अद्वैत उत्पन्न हो गया। तीनों की समाधि लग गई। ‘गीता ‘ पाठ करने वाले में
ऐसी ही एकाग्रता होनी चाहिए। पुराने शब्दों पर नए अर्थों की कलम लगाना विचार क्रांति की अहिंसक प्रक्रिया है। “
प्रस्तुत श्लोक में मन की दुविधा को विस्तार से कहा गया है ,कोई भी अर्जुन जैसी परिस्थिति का शिकार हो सकता है की उसे किस राह का चयन करना चाहिए। अर्जुन की दुविधा है कि वह किस
राह को चुने ज्ञान को या कर्तव्य को ,इसलिए वो सीधे सीधे श्री कृष्ण से मुक्ति पाने की प्रार्थना कर रहा है और यह बात श्री कृष्ण भली भांति समझ गए थे। अर्जुन महान भी बनना चाहता है और पुण्य भी कमाना
चाहता है पर युद्ध अर्थात कर्तव्य से भाग रहा है। हम सब भी तो कहीं न कहीं यह ही करते हैं ! श्री कृष्ण चाहते हैं की वो अपने जीवन का लक्ष्य
समझे और बिना किसी संशय के आगे बड़े। यदि साधारण रूप से समझने की कोशिश करें तो कृष्ण ने अर्जुन से सीधी सी बात कही कि कर्म करो और फल की चिंता न करो। निष्काम कर्म में अद्भुत शक्ति है।
इससे कर्म करने का सामर्थ्य बढ़ जाता है और मोह मनुष्य को भ्रमित नहीं कर सकता। जब कभी कुछ बुद्धिजीवि एक जगह पर बैठते हैं और
चर्चा का विषय कर्म और कर्म फल का हो तो अधिकतर तर्क वितर्क उग्र रूप धारण कर लेते हैं ,क्योंकि की हम बात की गहराई को समझने का
प्रयास नहीं करते और विषय पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। यदि यह बात इतनी ही सहज होती तो अर्जुन दूसरे अध्याय के समाप्त होने से पहले
ही युद्ध के लिए उठ खड़ा होता।
श्री कृष्ण का कहना था की यदि हम फल की चिंता न करके कर्म को अपना कर्तव्य मान लेते हैं तो यह अवस्था एक सन्यासी की अवस्था होगी। जैसे की आचार्य विनोबा भावे जी ने भी कहा है —-” स्वधर्म कर्तव्य रूप है इसे खोजना नहीं पड़ता।” संत तुका राम जी कहते हैं “यदि भजन करने से भगवान् मिल गया तो क्या भजन करना
छोड़ दूँ। भजन तो हमारा सहज धर्म हो गया। “दो तरह के निष्ठावान
लोग होते हैं ,प्रथम जो अपने कर्मों में निष्ठा रखते हैं और उनके कर्म
सदा परिस्तिथिया और धर्म के अनुरूप होते हैं , ऐसे लोग कर्म योगी कहे जाते हैं और जो ज्ञानवान होते हैं विपत्ति के समय धीरज और विवेक से काम करते हैं उन्हें ज्ञान योगी कहा जाता है। इसका उल्लेख सांख्य दर्शन में भी मिलता है। वैदिक परम्परा के अनुसार भी चार प्रकार के धर्म निर्धारित किये गए और उन निर्देशों का पालन करने वालों के वो स्वधर्म कहलाये। इसमें भी कर्म और सन्यास के लिए प्रावधान निश्चित किये गए। प्रस्तुत दृश्य में अर्जुन एक कर्म योगी है
जब श्री कृष्ण उसका ध्यान कर्तव्य की ओर खींचने का प्रयत्न करते हैं
तो अर्जुन के मन में कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं और एक चतुर विद्यार्थी की तरह वह श्री कृष्ण को गुरु मान लेता है। वो पाप का भागी नहीं बनना चाहता इसलिए वो चाहता है की गुरु उसे ऐसी राह बताएं जिस पर चल कर उसे मोक्ष की प्राप्ति हो -वह पाप का भागी बनने से बच सके। यहाँ
एक बात तो सिद्ध हो जाती है हम बिना कर्म किये मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। ‘कर्तव्य ‘के लिए ‘ कर्म ‘आधार है और ‘मोक्ष ‘ के लिए
‘ज्ञान ‘ – अर्जुन योद्धा है सन्यासी नहीं। पर दोनों ही अवस्थाओं के
लिए ‘कर्म ‘प्रधान है।
स्वामी चिन्मयानंद जी ने गीता होम स्टडी में लिखा है —
” At the very beginning of creation these two ‘ paths ‘
were given out by “ME ” as the two possible methods
by which the active and contemplative could seek
and re – discover the Eternal Nature of their very self .”
श्लोक –4 , अध्याय –3 ,
भावार्थ -मनुष्य ना तो कर्मों का आरम्भ बिना निष्कर्म भाव ( अर्थात
कर्म बंधन से मुक्ति ) को प्राप्त होता है ,और न केवल कर्मों के त्याग
मात्र से ही सिद्धि ( अर्थात निष्कर्म भाव ) को प्राप्त होता है। एक बहुत ही प्रसिद्द कहावत है की इंसान ठोकर खा कर ही संभलता है। ज़ाहिर है चलेगा तो ही ठोकर लगेगी। मीठा खाने से ही मीठे का स्वाद पता चलता है। पैर में कांटा चुभने से ही चुभन का अहसास होगा ऐसे ही कर्म
करने पर ही कर्मफल का अहसास होता है ,अच्छा या बुरा – उचित या अनुचित। हम भी क्यों न अपने जीवन में ऐसा ही मान कर चलें -पहले विवेक बुद्धि से काम लें और फिर कर्म करें। श्री कृष्ण के कहने का तात्पर्य है कि कर्म जो सुनिश्चित है वह निभाना ही पड़ेगा। अब यह मनचाहा फल देगा या नहीं इस बात को पहले से ही निर्धारित कर लेने का कोई प्रयोजन नहीं।
कुरुक्षेत्र एक युद्ध भूमि थी और कोई भी विजयी हो सकता था। यदि पहले से कुछ निर्धारित कर लिया जाये तो मनुष्य अहंकारी भी बन सकता है।
ऐसे में यदि अपने ऊपर से विश्वास उठ जाये या मन कर्तव्य से भटक जाये तो इसके परिणाम हो सकता है की सुखकर न हों। हमें एक बात जान लेनी चाहिए की धर्म की राह में और कर्म की राह में मन का स्थिर
होना अति आवश्यक है। कही सुनी बातों के आधार पर लोगों में एक धारणा सी बन गई है की यदि मोक्ष पाना है तो सन्यास लेना होगा और इसके लिए सब कुछ त्याग कर साधना में लग जाओ। पर यह सत्य नहीं है ,सार्थक भी नहीं कही जा सकती –यह तो कर्तव्य से मुंह मोड़ लेना है।
समाज में रहना और उसकी ऊंच नीच के बीच रह कर अपने विचारों को
परिपक्व करना ,मानवता के लिए अपने कर्तव्यों को समझ तदनुसार
धर्म की राह पर चल कर कर्म करना — यह किसी विश्वविद्यालय से ली
गई उपाधि से कम नहीं । मोक्ष चाहिए पर किससे और क्यों
इतना ज्ञान तो हमें होना ही चाहिए। हम समाज में रहते हैं परिवार में रहते हैं सबसे अच्छा या बुरा व्यवहार करते हैं – तो इसमें हमें ऐसा क्या दिखा जिसे त्याग कर हम सन्यास लेना चाहते हैं। हम जब तक यह अनुभव नहीं करेंगे तब तक सच नहीं जान पाएंगे। जब तक सच नहीं जानेंगे या अनुचित नहीं पहचानेंगे तो क्या पाना है और किसका त्याग करना है समझना कठिन होगा। यह भी सोचना होगा की क्या संन्यास लेने का यह उचित समय है ,क्या आगे हमारा मार्ग प्रशस्त है। कहीं हम कुछ ऐसा तो नहीं करने जा रहे जो हमें नहीं करना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं की हम मन में उठ रही किसी शंका या भय के कारण परिस्थितियों
से भाग रहे हैं। ऐसे में पलायन करना या निष्क्रय हो जाना और मोक्ष के लिए संन्यास ले लेना यह तो कायरता होगी जो कालांतर में ‘ साधना ‘
की राह में बाधा बनेगी , दोषी होने की भावना साधना में दृढ़ता नहीं आने देगी। परिस्तिथियों से डर कर भागना समस्या का हल नहीं है ,दृढ़ता से समस्या का सामना करना ही धर्म है। कर्मों से मुक्ति कर्म कर के ही पाई जा सकती है। श्री कृष्ण ने भी अर्जुन से ये ही कहा था कि कर्म करने से ही निष्कर्म भाव को प्राप्त किया जा सकता है। धर्म क्या है ,अधर्म क्या है ,अच्छा क्या है बुरा क्या है हमें ऐसी भावनाओं से ऊपर उठ कर कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए ,अपने कर्मों का विश्लेषण करने के लिए ज्ञान
प्राप्त करना आवश्यक है। अर्जुन की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी उसने पूछा जब जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है तो क्या उसके लिए युद्ध करना और युद्ध में अपने ही गुरुजनों एवं परिजनों का संहार करना इतना आवश्यक है ,क्या मोक्ष पाने के लिए यही एक मार्ग है।
ये जो श्री कृष्ण बार बार अर्जुन से उसके कर्तव्य का पालन करने को कहते हैं इसके बारे में श्री रंगनाथ जी ने कहा है —-” गीता लोगों के हृदय में विवेक की लौ जगती है और उन्हें स्वयं ही अपनी समस्या का समाधान करने को छोड़ देती है। ” हमें भी इस बात पर
विचार करना चाहिए की हम समस्या को समझें , श्री कृष्ण के कहने का तात्पर्य था की अर्जुन भी समस्या को समझे और उसका समाधान निकाल अपने कर्तव्य का पालन करे।
आज जब हम अपने चारों तरफ देखते हैं तो लगता है की हम सब भी अपने जीवन में यही कर रहें हैं और भविष्य के उचित अनुचित के फेर में स्वार्थी बन कर्तव्य पालन से भाग रहे हैं। हमें अपने जीवन की कर्म भूमि में अपने कर्मों का चुनाव भावुकता में बह कर नहीं
परिस्तिथियों को समझ कर पूरी निष्ठा और ज्ञान के आधार पर करना चाहिए।