जिन्दगी : दुविधा का निवारण
मानव प्रकृति कहें या मनुष्यों की विचार धारा कहें सबकी अपनी सोच है ,सब लोग स्वतंत्र हैं जब उनकी पसंद न पसंद का प्रश्न आता है। एक परिवार में दस लोग हैं और यदि उस परिवार में कोई उत्सव शादी ब्याह का कार्यक्रम है तो इस में सब का दृष्टिकोण भिन्न भिन्न हो सकता है। किसी के लिए हो सकता है अमुक कार्य अति आवश्यक हो और इस व्यक्ति विशेष के लिए अमुक पूजा अर्चना करने में परिवार के कल्याण का उद्देश्य छिपा हो ,या कोई भविष्य के लिए उज्वल कामना को दृष्टि में रख कर यह कर रहा हो ,और उसी परिवार में से कोई इसे मात्र समय और धन की बर्बादी समझ रहा हो उसी घर में कोई वृद्ध महिला जो पूजा हवन आदि की पक्षधर हैं वे छोटी से छोटी वस्तु या क्रिया का पूरी सख्ती से पालन स्वयं भी कर रही हों और दूसरों को भी करने के लिए बाध्य कर रही हों ,इस भय से की यदि कहीं कोई चूक हो गई तो परिवार पर बड़ी मुसीबत आ सकती है ,तो दूसरी ओर कोई बहु बेटी यंत्रवत सारे काम इसलिए कर रही है की काम करना उसका कर्तव्य है। पूजा पाठ से होने वाले लाभ या हानि उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। और घर के नन्हे सदस्य इस लिए खुश हैं की उन्हें अब अच्छे अच्छे पकवान खाने को मिलेंगे। घर के किसी एक कोने में उच्च शिक्षा के लिए प्र्यत्नरत कोई स्नातक घर में हो रही हल चल से और शोर गुल से झल्ला रहा है ,हो सकता कुछ लोगों के लिए ये सब मात्र दिखावा है ,ये सब अपनी अपनी सोच को ही सही कहेंगे और तर्क भी करने को तैयार हो जायेंगे। ये एक उदाहरण है हमारी रोज मर्रा की जिंदगी का।
काम किसी भी ढंग से हुआ हो दो तीन दिन बाद सब भूल भाल कर सब अपनी पुरानीं जिंदगी जीने लगते हैं। ये मानव को प्रकृति की तरफ से मिला एक विलक्षण वरदान है ,गर्व से कह सकते हैं की और किसी जीव धारी के पास नहीं है। हम हर चीज में अच्छा बुरा देखने की क्षमता रखते हैं अपना स्वार्थ देखते हैं ,अपने सुखों का ध्यान रख कर श्रम करते हैं फिर उसकी परख भी करते हैं। अन्य जीव तो मात्र जीते हैं भोजन और प्रजनन के लिए। उनको सुख सुविधाओं की आवश्यकता भी नहीं है इसलिए उनमे लोभ और अहंकार भी नहीं है। मानव जाती को प्रकृति द्वारा मिले विशेष उपहार के चलते उसने पूरी सभ्यता को कुरुक्षेत्र में ला कर खड़ा कर दिया।( ऐसा इससे पहले भी हुआ था ओर आज भी निरंतर होता रहता है )निश्चित ही एक विशाल परिवर्तन के होने का यह एक संकेत था ,नई सोच ,नए संस्कार नया समाज उभर कर आने वाला था। कोई पक्ष जीते ऐसा तो होना ही था। जिसके लिए कुछ लोग बेचैन हो रहे थे और कुछ दुविधा में पड़े थे। यह सच है की विकास के लिए परिवर्तन आवश्यक है और परिवर्तन की प्रक्रिया अधिकतर सुखदाई नहीं होती।
कुरुक्षेत्र में आज ऐसी ही घड़ी आ गई थी। कृष्ण ने आगे बढ़ कर अपने कर्तव्य का पालन करने निश्चय किया। वहां एक मात्र कृष्ण ही थे जो पूर्ण रूप से शांत चित्त थे ,जिन्हें पूरी परिस्तिथि का पूरी तरह से ज्ञान था ,अहसास था। वे शांत चित्त थे ,निष्पक्ष थे और धर्म के रक्षक भी थे ,वे सुव्यवस्था व शांति के पक्षधर भी थे। जब अहंकार आता है तो मनुष्य अपने अंदर निहित अच्छाइयों को भूल जाता है और कर्तव्य के स्थान पर मन में अनुराग और मोह जन्म ले लेते हैं। ऐसे में मनुष्य शिथिल हो जाता है ,निराश भी हो जाता है और दुखी भी। एक बात ध्यान देने योग्य है की इस समय दुर्योधन उतावला हो रहा था जल्दी से जल्दी युद्ध प्रारम्भ करना चाहता था की कहीं उसके सैनिकों का मनोबल न टूटने लगे ,ये भी कह सकते हैं वो युद्ध कर अपना राज्य स्थापित कर अपनेअहंकार और शक्ति का प्रमाण देना चाहता था
पांडवों की हार ही उसकी सबसे बड़ी ख़ुशी थी इस उतावलेपन में उसे अच्छे बुरे का कोई विचार ही नहीं आ रहा था ,वो अपने संकल्प पर दृढ़ था और अर्जुन विचलित।
स्वामी चिन्मयनन्दा जी ने कहा है ——-
“Grief and dejection are the prizes that delusion demands from its victim man,
So to rediscover ourselves to be really something higher than our own ego is to end all the fancy sorrows that have come to us through false identification .”
कुरुक्षेत्र की परिस्तिथि और उसमें युद्ध के लिए बेताब सेना और दोनों पक्षधरों की मनोस्तिथि को हमने यहाँ तक के अध्यन से जान लिया है। अब वो समय आ गया है जब जहाँ अर्जुन को उपदेश देने के लिए श्री कृष्ण ने अपना गुरुपद स्वीकार अपने शरणागत मित्र के मन में उठ रही दुविधा का निवारण करने के लिए उसे उपदेश देना प्रारम्भ किया। यहाँ जो उपदेश कृष्ण ने अर्जुन को दिए वो हिन्दुओं के महान ग्रन्थ उपनिषदों का सार है। अर्जुन की शारीरिक अवस्था संज्ञा विहीन हो चुकी थी और विचार शक्ति पर मोह का आवरण छा गया था। यह मनुष्य की वह अवस्था है जिसे हम ‘शून्य ‘अवस्था भी कह सकते हैं और कृष्ण द्वारा दिए गए उपदेशों से अर्जुन के मन में फिर से ज्ञान का उदय हुआ ,प्रस्तुत परिस्तिथि में उचित धर्म का पालन करने की प्रेरणा मिली (यह कितना सच है इसकी चर्चा अंत में होगी ) हम अर्जुन का उदाहरण ही ले कर क्यों आगे बड़े यदि हम जरा गंभीरता से इस विषय पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा की अर्जुन की समस्या कोई अनोखी -या अद्भुत नहीं है ,
हम सभी अपने जीवन में कहीं न कहीं ऐसी ही समस्या का सामना कर रहे हैं ,जहाँ हम खड़े होते हैं वहां से अनेक राहें दिखाई देती हैं ,कोई स्वार्थ की कोई मोह की ,कोई भोग विलास की ,कोई कर्तव्य की ,कोई धर्म की और कोई अन्धकार से भरी –पर हमारे लिए उचित राह कौन सी है इसके लिए परिस्तिथियों को सही से पहचान लेना
हमारे बहुत जरूरी है। महात्मा बुध का भी मूल उपदेश यही है की सर्वप्रथम बुध अर्थात की बुद्धि शरण में जाओ ,तब भी यदि समस्या नहीं सुलझी तो संघ की शरण में जाओ अर्थात जो बहुमत कहे। पर यदि अब भी समाधान नहीं मिला तो फिर धर्म की शरण में जाओ ,धर्म का अनुसरण सभी करते हैं ,मानते हैं ,धर्म सब के लिए सामान है। इन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है की हमें हालत से हार मान कर
नहीं बैठ जाना चाहिए ,हमें निराशा को मन में ही नहीं आने देना है। जब तक समस्या का निवारण नहीं होगा ,भयभीत ह्रदय को हर पल कठिनाइयां विकराल रूप लेती ही दिखेंगी ,कारण की हम निष्क्रय हो कर बैठे हैं। हमारे विचारों ने हमारा साथ नहीं दिया है या फिर हमने ही किसी भय वश ऑंखें मूँद रखी हैं। हो सकता है की हमने अपने को समझा लिया हो बहला लिया हो की कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा मैं व्यर्थ ही
परेशान हो रहा हूँ —पर समस्या तो वहीँ की वहीँ है ,पलायन तो हमने कर लिया है ,हार तो हमने मान ली है। हमने दोष धर्म कर्म और पाप पर लगा दिया है ताकि हम दोष भाव से बच सकें। यहाँ अर्जुन को उपदेश दिया गया यह बात उतना महत्व नहीं रखती जितना ऐसी परिस्तिथियों में दिए गए ‘उपदेश ‘
गीता हर युग का ज्ञान है ,हर समस्या का निवारण इसमें हैं ,गीता से हमें सही आचरण की प्रेरणा मिलती है।
नीरा भसीन