भावार्थ — निराहारी ( अर्थात इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण न करने वाले )पुरुषों के भी विषय तो निवृत हो जाते हैं ,परन्तु इस रस को छोड़ कर (अर्थात विषयों में रस बुद्धि या तृष्णा निवृत नहीं होती ) (किन्तु )इस (स्तिथ्प्रज्ञ पुरुष ) का रस (अर्थात तृष्णा ) भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाता है।
” For one who does not feed senses come back to oneself ,leaving the longing behind . Having seen the Brahma (when the self is known ) even the loging goes away .”
क्या अपनी इच्छाओं को ,वो भौतिक हों या व्यवहारिक उनसे पीछा छुड़ा लेना क्या इतना ही आसान है –शायद नहीं। हमारी इच्छाएँ हाथ में कोड़ा ले कर हमें हाँकती हैं और हम येन तेन प्रकरेण उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते ही रहते हैं। अपने को दोषी भी नहीं मानते –बात कभी परिवार पर डाल देते हैं ,कभी समाज पर ,तो कभी शासन पर -कहने का अर्थ यह है की हम किसी न किसी के ऊपर अपने दोष मढ़ने के लिए उसकी खोज कर ही लेते हैं और कछुए की भांति अपने लिए एक ठोस आवरण बना लेते हैं। ये मानव स्वभाव का एक विशेष गुण है की हम अपनी इच्छाओं को प्राथमिकता देना चाहते हैं।
उदाहरण के लिए एक नन्हे शिशु को ही ले लेते हैं ,वो अचानक ही रो रो कर अपनी इच्छा जाहिर करता है अभी जब की उसने बोलना भी नहीं सीखा और उसके बाद क्या होता है हम सब जानते हैं। बिना किसी
परेशानी के मानव जाति अपना आस्तित्व स्थापित करने में या प्रत्यक्ष हो रहे घटना कर्म से अपने को दूर करने ,या असफल अनजान होने का कवच ओड़ कर किनारा कर लेते हैं। आदि शंकर्याचार्यजी ने अपने विचार प्रगट करते हुए लिखा है –‘Even though people may not go along with their fancies ,the taste of them will still be there .Therefore is this not the practice of suppression ,rather than withdrawal ? We have seen how people blow up .The senses get them sooner or later -if not today ,than tomorrow .Why ? Because everything is supressed inside .When the value for something is inside a man ,he will definitely deliver himself into the hands of his senses eventually .
Because he is not their master, the senses will get him. If he thinks that he has enslaved them, he need only wait for certain situations to present themselves. He will find himself enslaved by his senses in no time. They will take him for a ride. In the wink of an eye, he will be gone totally .”
मेरे पिता जी भी कुछ ऐसा ही कहते हैं “छोड़ दिया या छूट गया ” छोड़ दिया यह एक विचार है कभी भी दुबारा स्थापित हो
सकता है और यदि छूट गया है तो यह आत्मज्ञान की यात्रा का पहला पड़ाव है। जीवन शैली को नियम बद्धः तरीके से निभाना – ऐसा शास्त्रों में लिखा है या गुरुओं ने कहा है या फिर ऐसा – ऐसा करने से ख़ुशी मिलती
है ,तो फिर यह स्थाई भाव नहीं है। बिना कुछ जाने समझे एक क्रिया विशेष या पद्धति विशेष का पालन करते रहना स्वाध्याय को कुंठित कर देता है ,तर्क बुद्धि को पैदा ही नहीं होने देता और अच्छे बुरे ,उचित अनुचित की परख करना भी कठिन हो जाता है। हमें चाहिए की हम जो कार्य या विधि विधान कर रहे हैं उसे जानें -समझें ,उसके लाभ हानि गुण अवगुण आदि को भी परखें और यदि हम अपने क्रमबद्ध कार्यों या रूढ़ियों के कारण को जान लेते हैं तो उसका फिर कभी बंधन नहीं महसूस होगा। जिस काम को हम समझ कर करेंगे उसे करने से हमारे विचार शुद्ध होंगे और वो कर के हमें ख़ुशी मिलेगी और हो सकता है की इससे दूसरों का जीवन भी सरल बन सके ,उन्हें ख़ुशी मिल सके। ख़ुशी और दुःख हमें बार बहार चेतावनी देते हैं। जागृत अवस्था का सच स्वप्न में पाए गए राजसी सुख से सर्वथा भिन्न है। पहली बात -यह सच है ,समक्ष है और कर्म कर प्राप्त हुआ है। दूसरी बात यह की यह क्षण भंगुर माया है , सच के साथ इसकी तुलना नहीं की जा सकती। यदि हमें मायावी जाल से मुक्त होना है तो हमें ज्ञान प्राप्त करने की बहुत आवश्यकता है या फिर इसे अर्थात ज्ञान को एक मात्र राह कह सकते हैं। ज्ञान का भी सही ज्ञान होना चाहिए तभी हम अपनी इन्द्रियों को बस में कर सकेंगे और उचित मार्ग का चयन भी कर पाएंगे।
श्लोक संख्या – 60 अध्याय 2 ,
भावार्थ –क्योंकि हे कौन्तेय ! ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ प्रयत्नशील विवेकी पुरुष को भी बलपूर्वक हर लेती हैं। ( अर्थात विषयासक्त
कर देती हैं )
श्लोक संख्या – 61 अध्याय 2 ,
भावार्थ –इसलिए (साधक ) उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर के समाहित चित्त तथा मेरे प्रयत्न हो कर स्तिथ रहे। क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं उसी की बुद्धि प्रतिष्ठित (अर्थात स्थिर )होती है। अभी तक श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया की विवेकी और ज्ञानी पुरुष वही होता है जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर सकता है। इस्द्रियाँ प्रकृतिक रूप से सदा ही चंचल रहती हैं ,सदा ही भौतिकता
में सुख का अनुभव करती हैं और सांसारिक सुखों की प्राप्ति पर तृप्त
होती हैं। ये सुख क्षणभंगुर होते हैं ,पर एक के बाद एक -और अधिक फिर और अधिक की आशा के साथ उभरते रहते हैं। फिर जब एक के बाद एक सुख सुविधाओं से अमुक व्यक्ति का संसार भरने लगता है तो उसमें अहंकार की उत्पत्ति होती है। सारी दुनिया ही अपनी लगने लगती है
अब उसे संजो कर रखने और उसमे निरंतर वृद्धि करते रहने की लालसा
तीव्र होती जाती है। यहीं पर होता है बुद्धि का विनाश। मनुष्य अच्छे बुरे
के भेद से दूर होता चला जाता है। जब चारों तरफ सुख ही सुख हो ,
नाम , धन दौलत ,राज पाट सब हो और लोग उस मनुष्य को अपना देवता मानने लगें –तो उसे तो इस आनंद के समुद्र में डूब जाना चाहिए मन से हर तरह के राग द्वेष मिट जाने चाहिए ,पर ऐसा होता नहीं है — मद गर्व और अहंकार के नशे में चूर वह मनुष्य अंदर से हमेशा भयभीत रहता है। लोगों की दृष्टि में सदा ऊँचा बना रहने के लिए अहंकार में अँधा वो मनुष्य कुछ न कुछ ऐसा करता रहता है जो निति न्याय और धर्म के विरुद्ध होता है। ऐसे में वह व्यक्ति ‘ कापुरुष ‘ बन
जाता है पर दिखता नहीं है। इस अवस्था में विवेक काम नहीं करता
और इन्द्रियों के सदा प्रयत्नशील रहने के कारण –श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझते हुए कहा की वो मनुष्य विषयासक्त हो जाता है। जब मनुष्य के सतोगुण पर अविवेक का आवरण पड़ा होता है तो वो लालसा की अँधेरी
गुफाओं में भटकता रहता है। उसे मिलता है भौतिक सुख और फिर उसके खो जाने का भय। इस लिए श्री कृष्ण ने कहा हे ! कुंती पुत्र तुम्हें विवेक बुद्धि से काम लेना होगा ‘सच को परखना होगा। यहाँ श्री कृष्ण अर्जुन को यह चेतावनी दे रहे हैं की उस जैसे महान कर्म धर्म वाले वीर को आगे का कदम उठाने से पहले अपने मन की चंचलता को वश में करना होगा। इसे आत्मज्ञान कहते हैं। गीता में यह बात भले ही अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण के श्री मुख से कही जा रही हो पर यह हम सब के लिए आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी अर्जुन के लिए तब थी। आज हम अपनी बात करें या अर्जुन की ,अपने मोह अनुराग आदि को वश में करना अति आवश्यक है इससे पहले की हमारा मन उसके वश में हो जाये।
स्वामी चिन्मयानंद जी के विचार हैं —–
Since the sense organs are saboteurs in the kingdom of the spirit who bring the soul .Arjuna is warned here that as a seeker of self perfection ,he should constantly struggle to control all his sense organs and their mad lustful wanderings in their respective fields .”
इस तथ्य को तो हमें सीधा जीवन में उतार लेना चाहिए। हम अधिकतर पथभृष्ट हो जाते हैं ,दूसरों की देखा देखी काम करते हैं ,
दिखावे की जिंदगी जीने में गर्व का अनुभव करते हैं। पर यह अनुचित है