भावार्थ — जो पुरुष समस्त कामों को त्याग कर ममता रहित ,अहंकार रहित तथा स्पृहा रहित होकर विचरता है ,वही शांति
को प्राप्त होता है।
हे !पार्थ यही ब्राह्मी स्तिथि है ( अर्थात ब्रह्मरूप में अवस्तिथ है ) इस अवस्था को प्राप्त हो कर ( मनुष्य ) कभी मोहित नहीं होता। अंतकाल में भी इस ( अवस्था )में प्रतिष्ठित हो कर वह ब्रह्मनिर्वाण ( अर्थात ब्रह्मस्वरूपता की शांति ) को प्राप्त हो जाता है।
अधिकतर बुद्धिजीवियों का मानना है हमें उपरोक्त दोनों ही श्लोकों को गीता अध्ययन करते समय बहुत ही गहराई से समझना चाहिए। यह संन्यास योग की प्रथम सीढ़ी है और इसका विस्तार अगले
अध्यायों में धीरे धीरे और मुखरित होता जाता है। आदि शंकराचार्य
जी ने इस कहा है “A man of steady knowldge ,who knows
Brahman attains peace ( nirvaana ) ,the end of all the misery of mundane existance ( sansara ) . In short
he becomes the very Brahman . ” जैसे की मेने पहले भी उदाहरण देते हुए चर्चा की थी कि संसार में रह कर संसार के ,परिवार
और राज्य के धर्म का निर्वाह करना और वैभव में रह कर वैभव में लिप्त ना होना — इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण हैं ‘राजा जनक ‘ |
वे राज काज करते हुए किस तरह ‘ अहंम ‘ की भावना या कहें की ‘
‘मैं ‘ -भावना से परे थे यह एक बहुत ही गूढ़ विषय है जिसकी चर्चा या व्याख्या कुछ ही शब्दों में या फिर सभा बैठक आदि में की जाने वाली बहस में संभव नहीं है। इस विषय पर इस समय यही कहा जा सकता है की महान ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के बीच हुए जो संवाद हैं
उन्हें हम अष्टावक्र की गीता के रूप में जानते हैं। इस ग्रंथ में मुख्य रूप से आत्म बोध ,वैराग्य ,मुक्ति और समाधि आदि के ज्ञान पर सविस्तार चर्चा की गई है। लेकिन यहाँ महर्षि वेदव्यास जी द्वारा लिखित
गीता में श्री कृष्ण जिस ज्ञान की बात कर रहे हैं – वो अर्जुन के मन में छाए एक मोह का भ्रम जाल है – जो उसके मन में युद्ध की घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ , यह उसे दूर करने का प्रयास है। जिसकी व्याख्या
श्री कृष्ण जी ने भारतीय मूल के धर्म ग्रंथों अर्थात दर्शनों आदि के आधार पर की है। गीता में जिस ‘ आत्म ज्ञान ‘ की चर्चा की गई है उसे भारत का सर्वोपरि ज्ञान माना जाता है और गीता को सर्वोपरि ग्रंथ।
जिज्ञासु जब आत्मज्ञान को समझने और आत्मसात करने की बात करते हैं तो निर्देश के रूप में उनको यही कहा जाता है की सर्व प्रथम
” गीता ” को पढ़ो और समझो ,बाकी राहें अपने आप प्रशस्त होती जाएँगी। जब मनुष्य के मन से ‘मैं ‘ और ‘ मेरा ‘ की भावना खतम हो जाती है तब उसके मन से अहंकार दूर हो जाता है। पर जब ज्ञान
द्वारा या , विवेक द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि शास्वत क्या है और
भ्रम क्या है तो अहंकार टूट जाता है। वो ब्रह्म जिसे हम बाह्य जगत में ढूँढ रहे थे उसका बोध हमें अपने अंतर्मन में होने लगता है। खुद से खुद की पहचान हो जाती है। युद्धभूमि में खड़े सैनानी -सब अपना अपना कर्म करेंगे और अपनी गति को प्राप्त होंगे पर चेतनरूपी आत्मा तो अजर अमर है। जो बात श्री कृष्ण जी अर्जुन को समझा रहे हैं , वो हमें भी समझनी चाहिए की कितनी भी कठिन परिस्तिथि हो कर्तव्य से मुहं मोड़ कर भावुक होना बुद्धिमान व्यक्ति को शोभा नहीं देता। उचित समय पर
उचित कर्म करने से मन को शांति ही प्राप्त होगी। क्षणिक मोह भविष्य में कष्ट दे ऐसी भी संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। इस
लिए हमें सदा सचेत रह कर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
” मैं ” अपने प्रियजनों पर आघात नहीं कर सकता, यह मोह है , “मेरा ”
यह अहंकार है जिससे मनुष्य के अंदर छिपे गुणों का ,विवेक का विनाश
होता है। इसी तथ्य को मेरे गुरुतुल्य पिता जी ने समझते हुए बताया की
यदि ध्यान से समझने की कोशिश करोगे तो समझ में आ जायेगा कि
श्री कृष्ण की गीता आत्मज्ञान की बात करती है जो कर्तव्य को साथ ले कर चलती है ,यह एक व्यवहारिक शिक्षा है जो राजा और प्रजा दोनों के लिए मार्ग दर्शक का काम करती है और दूसरी ओर है अष्टावक्र की गीता जो ‘आत्मबोध ‘कराती है और उसको जान लेने के बाद लगता है जो है सब भ्रम है मिथ्या है , क्योंकि आत्मबोध मनुष्य को मनुष्य से ऊपर ले जाता है ,कह सकते हैं -निर्वाण की ओर।
यह तर्क भी आवश्यक है जब तक हमें आत्म ज्ञान नहीं प्राप्त होगा तब तक हम यह नहीं जान पाएंगे की शरीर और आत्मा या
जीव -जीवन और आत्मा का संबंध क्या है और तब तक हमारा आत्मज्ञान अधूरा है , हम विचारों के ,प्रश्नों के ,दुविधाओं के और कही सुनी बातों के जाल में ही गोल गोल घूमते रहेंगे। जब कभी हमें कोई ज्ञान प्राप्त होता है — जाना या अनजाना तो हमें मात्र श्रोता बन कर उसे
ग्रहण नहीं करना चाहिए ,सुनने के बाद उस विषय पर मनन करना भी
अति आवश्यक है ,क्योंकि हमें उस विषय के गुण – अवगुण दोनों को ही समझना है ,तभी किसी निष्कर्ष पहुंचा जा सकता है। जब हम किसी स्थान विशेष स्थान पर बैठ कथा कहानियाँ सुनते या पढ़ते हैं तो हम उस विषय के साथ होते हैं पर उस स्थान से दूर जाते ही हम अपनी विचारशक्ति पर वहीँ विराम लगा देते हैं और आगे बड़ जाते हैं ,कारण की हम अपनी दिनचर्या के घेरे में बंधे हैं –सही भी है भरण -पोषण , समाज, एवं परिवार पर ध्यान देना भी तो आवश्यक है ,अनिवार्य है। पर जरा सोचिये की यदि आपको मनन करने का अभ्यास हो जाये तो आप उचित निर्णय ले सकेंगे ,उचित व्यवहार कर पाएंगे और तब आपको सुखद अहसास होने लगेंगे। अब यह जरुरी तो नहीं की हम हर दुःख सुख का बोझ अपनी आत्मा लादें और वक्त बेवक्त अपने दुःख या कष्टों का अहसास होने पर आहें भरते रहें। आत्मा कभी झूठ नहीं बोलती हमारी सोच हमें अनुचित राह पर ढकेल देती है। आत्मनिर्भरता का होना कल्याणकारी है। कई बार लोगों को कहते सुना है की ‘ मेरी आत्मा गवाही नहीं देती ‘ ऐसे कई उदाहरण हैं जो मनुष्य को अच्छे कर्म करने के लिए उत्साहित करते रहते हैं ,पर हम अक्सर ऐसी आवाज को लोभ ,मोह ,अहंकार और सामाजिक दिखावे की भेंट चढ़ा देते हैं ,और करते वही हैं जिससे हमारी आत्मा को नहीं हमारे दंभ और अहंकार को सुख मिलता हो। यह सुख क्षणिक है -इसे हम भूल जाते हैं या सोचना भी नहीं चाहते बस एक विकृत विचार धारा के अधीन जीवन बिताते चले जाते हैं। जब हमें आत्म ज्ञान की अनुभूति होने लगेगी तब हम उचित या अनुचित का ध्यान कार्य करने से पहले ही कर सकेंगे। ऐसे में हम धीरे धीरे सच की ओर बढ़ेंगे ,और ऐसे सुख को पा सकेंगे जो शास्वत है स्वयं के लिए भी और पूरे विश्व के लिए भी लाभकारी सिद्ध होगा।
मन की ऐसी परिपक्वता के बाद कहीं वैराग्य की स्थिति आती है जिसका उदाहरण ‘ राजा जनक ‘ हैं। ऐसी अवस्था को जो मनुष्य प्राप्त कर लेता है वही आत्म बोध का अधिकारी बनता है।ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं -करोड़ों में कोई एक। साधारण मनुष्य के लिए तो आत्मज्ञान ही एक बहुत बड़ी उपलब्द्धि है। श्लोक 72 में इसे ही ब्रह्मवास्था कहा गया है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें ” मैं ” का कोई स्थान ही नहीं है और जब “मैं ” का कोई भाव ही मन में नहीं रहेगा तो अहंकार भी नहीं होगा। ज्ञानी व्यक्ति हमेशा अपने विचारों को अपनी भावनाओं को पूरी तरह से अपने वश में रखना जानते हैं। परिस्तिथियाँ यदि कभी विपरीत भी दिखाई दें तो भी ज्ञानी पुरुष को अपना स्वाभाव नहीं छोड़ते । श्री कृष्ण को ज्ञात था की अर्जुन एक वीर ज्ञानी राजकुमार है पर युद्ध में विवेक ने उसका साथ नहीं दिया। श्री कृष्ण ने जब अर्जुन को हथियार उठाने को कहा तो उस समय उन्होंने अर्जुन को याद दिलाया की वह यह ना भूले की सबसे पहले उसे यह स्मरण रखना होगा की वह कौन है ,कहाँ है और कयों है ,मोह जैसे विचार मन को कमजोर बना देते हैं। उन्होंने कहा “मत भूलो की तुम एक वीर योद्धा हो ” और ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने अर्जुन के आत्मज्ञान के बंद दरवाजे खोलने का प्रयत्न किया। कर्म का निर्णय करने से पहले विषय का ज्ञान होना बहुत जरुरी है और निर्णय लेने से पहले कर्तव्य की ओर ध्यान देना भी आवश्यक है।
आत्मा अमर है ,श्री कृष्ण ने बार बार अर्जुन को ये समझाया पर अर्जुन के संदेह नहीं मिटे। वो अब भी उलझन में था ,वो अब भी श्री कृष्ण की ओर कातर दृष्टि से देख रहा था।
गीता के दूसरे अध्याय को श्री वेदव्यास जी ने यहाँ पर विश्राम दिया। अर्जुन के मन में उठ रहे संदेहों को श्री कृष्ण ने कर्मयोग की व्याख्या करते हुए तीसरे अध्याय में जो ज्ञान दिया उसकी चर्चा हम आगे करेंगे और ” कर्म ” के महत्व को समझने का प्रयास करेंगे।