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जिन्दगी : युद्ध

Tez Samachar by Tez Samachar
March 7, 2020
in Featured, विविधा
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जिन्दगी : संवेदना से उभरी वेदना

Neera Bhasin कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए तैयार सेनाएँ -पक्ष और विपक्ष की एक ही परिवार से थीं जो दो हिस्सों में बट   कर खड़ी थीं। युद्ध में तो सदा यही होता है की एक सेना के समक्ष दूसरी सेना शत्रु के रूप में तैनात होती हैं और युद्ध से होने वाले नर संहार को अपने लक्ष्य प्राप्ति   का ज़रिया मान लिया जाता है –या इसे उद्देश्य पूर्ति लिए किया गया आवश्यक कर्तव्य मान लिया जाता है। पर कुरुक्षेत्र में अपने जिस  उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिनका संहार करना था वे तो दोनों सेनाओं में  अपने ही गुरु जन , परिजन  और सगे  संबंधी  थे।
“But there is no such thing as retreat in a battle ground in those days .”

                 अर्जुन जानता  था की वो चाह कर भी वो  वापिस नहीं लौट सकता क्योंकि दुर्योधन- जिसे युद्ध में ही अपनी जीत दिखाई दे रही थी ,कभी भी युद्ध से इंकार नहीं करेगा।  एक ओर अपनों  संहार करने की सोच अर्जुन के हाथ पाँव शिथिल हो रहे थे तो दूसरी ओर दुर्योधन अपनों का नरसंहार करने  लिए अपने ही गुरुजनों एवं मित्रों को युद्ध  करने के लिए उन्हें उकसा रहा था –कयोंकि वो जानता
था की उसकी सेना के सभी योद्धा जो उसके पक्ष में खड़े थे, वो
मात्र इसलिए  वे वचन बद्ध हैं। हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा उनका कर्तव्य था और इसका लाभ उठाते हुए दुर्योधन उन्हें
वचन -अपवचन कह कर उकसा रहा था ,वो अपने योद्धांओं के
ह्रदय से अनुराग को पूरी तरह से मिटा देना चाहता था ,वो चाहता था की सैनिकों का ह्रदय जोश से भर जाये और वे क्रोध में आ कर
अर्जुन की सेना के साथ युद्ध करें।
अर्जुन भी एक महान योद्धा था और जानता था की यदि युद्ध हुआ तो पक्ष और विपक्ष में जो भी सैनिक हैं
वे सब वीरगति को प्राप्त हो जाँयगे ,कयोंकि भीष्म ,कर्ण आदि
योद्धांओं के धनुष से वाणों की ही वर्षा होगी फूलों की नहीं।
अनगिनत सैनिकों के परिवार अनाथ हो जाएँगे ,युद्ध कर क्या प्राप्त होने वाला है अर्जुन यह समझ ही नहीं पा रहा था। वो युद्ध करना नहीं चाहता था और कृष्ण यह जानते थे की इस युद्ध को रोकने के उनके सा रे प्रयत्न विफल हो चुके थे । इसलिए युद्ध तो
हर हाल में हो कर रहेगा कयोंकि यही एकमात्र विकल्प था  ,ऐसे
में अर्जुन की शिथिलता के कारण कहीं अधर्म की विजय न हो जाये। अर्जुन व्यथित हो कर कह रहा था की इस युद्ध को रोकने के लिए वो तीनो लोकों के राज्य का भी त्याग कर सकता है ,पर अपने ही लोगों पर वार नहीं कर सकता।
युद्ध मैदानों में  लड़ कर मैदानों में ही नहीं
ख़तम हो जाते ,जो पक्ष जीत जाता है और जो हार जाता है
दोनों को ही उसके दुष  परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
श्लोक —३६,३७,
अर्जुन की वेदना गहरी होती जाती है ,युद्ध से किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला। जो लोग इस युद्ध से लाभ प्राप्त
करना चाहते हैं वे सब तो यहीं हैं ,परिणामस्वरूप अपने प्राणों को यहीं गवां देंगे और इन सब की हत्या का पाप अर्जुन को ही लगेगा ,यह सोच कर वो अपना धैर्य खोने लगता है।
जो छः प्रकार के पाप होते हैं वो सब दुर्योधन ने किये थे——१ -उसने अपने चचेरे भाइयों को जला कर मारने का प्रयत्न किया , २,-भीम को विष दिया , ३ ,-पांडवों की सम्पत्ति हड़प कर ली , ४, -उनका राजपाट छीन लिया  ,५,- उन्हें सुई की नोक बराबर जमीन देने को भी मना किया और ६, -अपने ही भाइयों से उनकी पत्नी छीन कर उसे भरी सभा में अपमानित किया। धर्म शास्त्र के अनुसार उपरोक्त पापों को करने वाला दंड का अधिकारी है। अर्जुन जनता था की कौरव पापी हैं आतताई हैं
लेकिन फिर भी इस युद्ध  भूमि में उनके प्रति मन में उठे
अनुराग ने अर्जुन को दुविधा में डाल दिया था। दुर्योधन को भी समझना होगा ,मनोवैज्ञानिक रूप से यदि हम देखें तो जान पाएंगे की क्रोध में सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है और
अहंकार में भी मनुष्य विवेक खो बैठता है ,सर पर  सवार जनून भी  इंसान को अँधा बना देता है ऐसी स्तिथि में होश तब आता है जब सब कुछ समाप्त हो जाता है उदेश्य प्राप्ति में पूरी तरह असफलता प्राप्त होती है ,इतना ही नहीं हताश व्यक्ति सब नियम धर्म त्याग कर कुछ अनहोनी कर बैठता है। पर इस युद्ध भूमि में
अर्जुन युद्ध करने से इंकार करता है वो अपने परिवार का संहार
मात्र राज्य लोभ में नहीं करना चाहता ,पर करने को विवश है।
एक और अहंकार है तो दूसरी तरफ अनुराग। इसे परिस्तिथियनो
की विवशता मान लें या फिर धर्म की संस्थापना  का यज्ञ।
विवेक का त्याग कर अहंकार के मद  में चूर तब भी हथियार उठाये गए और आज भी उठाये जाते हैं। हर देश ,हर काल और हर  जातिधर्म  में यह  होता है और शायद होता रहेगा।
इस युद्ध भूमि में अर्जुन की दुविधा ने ही व्यास  जी
को गीता लिखने की प्रेरणा दी।  व्यास जी द्वारा लिखा गया यह
ग्रंथ  पौराणिक काल में हिन्दू धर्म के पुनुरुत्थान के लिए किया गया एक सफल प्रयास भी कहा जाता है।
अपनी दुविधा में अर्जुन बार बार कृष्ण को अनुरोध
करता है किसी तरह ये युद्ध टाल दिया जाये। कोई अपनों का वध कर कैसे प्रसन्न हो सकता है। कृष्ण अपने मित्र की पीड़ा समझ रहे हैं पर वे अब भी चुप हैं।

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