आखिर जुबान भी कोई चीज है या नहीं? अयोध्या मामले में 9 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने से पहले आप कह रहे थे कि फैसला जैसा भी आए उसका सम्मान किया जाएगा, उसे मानेंगे। अब क्या हो गया? मुस्लिम समुदाय के एक पक्ष ने फैसले को विरोधाभासी बताते हुए पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है। कहा जा रहा है कि फैसला कानून पर आस्था की जीत है। कानून के अनेक जानकारों के अनुसार फैसले में कोई बदलाव होने की संभावना नहीं है। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया है। यह बात पुनर्विचार याचिका की बात करने वाले भलीभांति जानते हैं। तर्क दिया जा रहा है कि पुनर्विचार याचिका का विशेषाधिकार है तो उसका उपयोग क्यों नहीं किया जाए। पिछले दिनों एक मुस्लिम धार्मिक नेता यह तक कह चुके हैं कि पुनर्विचार याचिका 100 फीसदी खारिज हो जाएगी इसके बावजूद हम इसे दायर करेंगे। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना वली रहमानी ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार 99 प्रतिशत मुसलमान रिव्यू पिटीशन के पक्ष में हैं। इस तरह के बयानों को क्या खतरनाक संकेत नहीं मानना चाहिए? विशेषाधिकार है तो याचिका दायर करें लेकिन क्या ऐसी बयानबाजी से नहीं बचना चाहिए जो माहौल खराब करने वाली और कलहकारी साबित हो सकती है? फैसले के 30 दिन के अंदर पुनर्विचार याचिका दाखिल की जा सकती है। इसके बाद क्यूरेटिव याचिका के लिए 30 दिन का समय मिलता है।
अयोध्या फैसले पर मुस्लिम समुदाय में तीन तरह के दृष्टिकोण सामने आए हैं। एक तरफ वे लोग हैं जिन्हें लग रहा है कि मुसलमानों के साथ इंसाफ नहीं हुआ है। अत: पुनर्विचार याचिका दायर करनी चाहिए। एक दूसरा पक्ष फैसले में खामी देख रहा है लेकिन चाहता है कि एक पुराना विवाद खत्म करने का मौका मिला है इसलिए पुनर्विचार याचिका जैसे कदमों से बचना उचित होगा क्योंकि इससे कटुता बढऩे का खतरा है। यह राष्ट्रीय एकता के लिए भी सही नहीं होगा। वैसे भी फैसले से पहले आप उसे स्वीकार करने की बातें कर रहे थे। मुस्लिम समुदाय का तीसरा पक्ष फैसले में कोई खामी नहीं पा रहा। उन्होंने इसे खुशी-खुशी स्वीकार किया है। उनका मानना है कि राजनीति के लिए कुछ लोग अनर्गल बातों से लोगों को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। यह तीसरा पक्ष विवाद को जबरन घसीटते नहीं रहना चाहता।
आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का निर्णय लिया है जबकि जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द ने पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है। केरल में कांग्रेस की मित्र इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने पहले फैसले का स्वागत किया था, फिर वह पलट गई। लीग का कहा, मुस्लिम समुदाय निराश हुआ है। जमीयत के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी फैसले को समझ से परे बता रहे हैं। वह सफाई देते हैं कि पुनर्विचार याचिका दायर करने का मकसद देश की एकजुटता और कानून एवं व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न करना नहीं है। खास बात यह है कि उनके भतीजे और जमीयत के एक धड़े के अगुआ मौलाना महमूद उनसे इत्तेफाक नहीं रखते। वह पुनर्विचार याचिका दायर करने के पक्ष में नहीं बताये जाते हैं। आश्चर्य है कि अरशद मदनी जैसी बुजुर्ग हस्ती ने फैसले को लेकर अपना दृष्टिकोण कैसे बदल लिया? फैसला आने से पहले अखबारों में प्रकाशित बयान के अनुसार उन्होंने कहा था कि जो फैसला आएगा, उसे मानेंगे। सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था का बेहद सम्मान करते हैं, उसके फैसले का सम्मान करेंगे। पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी के भी कमोवेश यही शब्द थे। 17 अक्टूबर 2019 को जिलानी का बयान आया था। जिलानी ने कहा था कि अयोध्या पर मध्यस्थता का अब कोई मतलब नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आएगा उसे मानेंगे। फैसला आने के बाद तुरंत बाद ही जिलानी ने इसे असंतोषजनक निरूपित कर दिया। कुछ अन्य जाने-माने मुस्लिमों ने भी फैसले पर असंतोष जताया है। किसी ने अपनी अप्रसन्नता घुमा-फिरा कर निकाली और कोई सपाट शब्दों में कह गया। सांसद असदुद्दीन ओवैसी पुनर्विचार याचिका मुद्दे पर पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में उपाध्यक्ष मौलाना जलालुद्दीन और सचिव जिलानी के साथ हॉवी रहे। ओवैसी द्वारा शेयर आर्टिकल-मुझे अपनी मस्जिद वापस चाहिए, सोशल मीडिया में चर्चा का विषय रहा है।
पुनर्विचार याचिका के पक्षधरों को समूचे समुदाय से समर्थन नहीे मिलना एक तरह से झटका है। यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड, मामले के प्रमुख पक्षकार इकबाल अंसारी और हाजी महबूब, दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी, लखनऊ ऐशबाग ईदगाह के इमाम रशीद फरंगी महली और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष गयूरुल हसन रिजवी सहित बड़ी संख्या प्रबुद्ध मुस्लिम पुनर्विचार याचिका के पक्ष में नहीं हैं। रिजवी ने यहां तक कहा है कि पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला मुस्लिमों के हित में नहीं है, इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता को नुकसान होगा। हाल ही में शबाना आजमी,नसीरूद्दीन शाह, जीनत शौकत अली, शमा जैदी और जावेद आनंद सहित 100 मुस्लिमों ने एक बयान जारी कर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरूद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने से मुस्लिम समुदाय को नुकसान ही होगा, इससे मुसलमानों को कोई मदद नहीं मिलेगी। यहां स्पष्ट रूप से दो बातें दिखाई दे रहीं हैं। पुनर्विचार याचिका के पक्षधर हक की बात कर रहे हैं। वहीं एक बड़े वर्ग को हक से अधिक समुदाय के हित की चिंता है। वह फैसले को हार-जीत के नजरिये से ऊपर उठ कर देख रहा है। शिया वक्फ बोर्ड अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राष्ट्रहित में बता रहा है। वरिष्ठ शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक ने कहा कि अयोध्या काबा नहीं है बल्कि वह हिंदुओं का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है।
पुनर्विचार याचिका दायर किए जाने पर यह अदालत पर निर्भर करेगा कि वह किस हद तक इसे सुनवाई के लिए स्वीकार करती है। इसमें नए तथ्य नहीं उठाये जा सकते केवल वह कानूनी खामी बतानी होगी जो स्पष्ट रूप से दिख रही हो। अनुभव यही है कि बहुत कम मामलों में ही अदालत अपने पूर्व आदेश को पलटती या बदलती है। यह संतोष का विषय है कि अयोध्या मामले से प्रभावित होते रहे पक्षों में अधिकांश लोग अतीत की कड़वाहट भूल कर आगे बढऩा चाहते हैं। इस फैसले ने आगे रास्ता बंद नजर आने जैसी स्थिति से दो समुदायों और समूचे देश को उबारा है। किसी ने बहुत सही टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा है भारत में लगभग आधी आबादी उन लोगों की है जिनका जन्म 1992 के बाद हुआ था, उन्हें अतीत की नफरत के जहर से दूर रखिए। इस आधी आबादी को उसका जीवन शांति, सदभाव, विश्वास और प्रेम से जीने देना चाहिए।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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