एक प्रश्न हमेशा मन में कौंधता हैं…
हिन्दू धर्म में एक अच्छी सी संत-परंपरा रही हैं. जहां जहां हिन्दू धर्म का फैलाव हुआ हैं, वहां वहां संत – महंत हुए. इन्होने समाज प्रबोधन का बहुत बड़ा काम किया हैं. लोगों को न्याय के, नीति के, सत्य के, अहिंसा के मार्ग पर चलने का आग्रह किया. भगवत भक्ति की, समाज को सही दिशा में लेकर जाने की यह बयार अखंड हिन्दुस्थान में सभी जगह बही ऐसा दिखता हैं.
और हमारे समाज के नेतृत्व ने, राजा – महाराजाओं ने इस दिशा में चलने का पूरा प्रयास भी किया हैं. हमने कभी भी किसी पर भी स्वतः होकर आक्रमण नहीं किया. कोई हिन्दू राजा कभी भी आक्रांता नहीं रहा. युध्द में शत्रु पर क्रौर्य का, बर्बरता का, बिभत्सता का कोई भी उदाहरण हिन्दू राजा का नहीं मिलता. हम सहिष्णु रहे. आने वाले विदेशियों का स्वागत करते रहे.
धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने वाले हमको क्या मिला..?
हमे मिली गुलामी. हमे मिला दारिद्र्य. हमे मिले अत्याचार. हमे मिला अपमान.
हमारा ऐश्वर्य जाता रहा. हमारा स्वातंत्र्य जाता रहा. हमारा सम्मान जाता रहा. हमारी बहु-बेटियां भी जाती रही.
इसके ठीक विपरीत, हम पर आक्रमण करने वालों ने क्या किया..?
उन्होंने तमाम गलत, अनैतिक रास्ते अपनाएं. छल, कपट, बलात्कार का सहारा लिया. क्रूरता की पराकाष्ठा की. युध्द के तत्कालीन सारे नियम तोड़ दिए. बलात धर्मांतरण किया. बहु-बेटियों की इज्जत लूटी.
उन मुस्लिम आक्रांताओं को, उन अंग्रेज / पोर्तुगीज / फ्रेंच आक्रांताओं को क्या मिला..?
उनको मिला ऐश्वर्य. उनको मिला स्वातंत्र्य. उनको मिली सत्ता. उनको मिला उपभोग.
सारे पाप करने के बाद भी मुस्लिम और ख्रिश्चन आक्रांताओं को यह सब मिला और सारे पुण्य करने के बाद भी हमें गुलामी और दारिद्र्य मिला.
ऐसा क्यों..?
*मुस्लिम और ख्रिश्चन आक्रांताओं ने केवल एक धर्म निभाया. और हम हिन्दू, धर्म निभाने के आडंबर में धर्म का वही मूल तत्व भूल गए..!*
*वह हैं – संघ धर्म. समष्टि का धर्म. जिसका अगला भाग हैं – ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’.*
और हम यही भूल गए. सन १००१ में महमूद गजनी के आक्रमण के बाद हम मे जो क्षरण आने लगा, उसके कारण हम धर्म का यही तत्व भूल गए. अपने छोटे, छोटे झगड़ों के कारण या फायदों के कारण हम शत्रुओं की मदद करते रहे. गद्दारी करते रहे.
पृथ्वीराज चौहान के साथ कपट करने वाले जयचंद राठौर से लेकर हमारे यहाँ गद्दारों की लंबी परंपरा रही हैं. विजयनगर साम्राज्य के पराभव में गद्दारी का हाथ था. संभाजी को पकड़वाया एक मराठा सरदार ने. तात्या टोपे के बारे में अंग्रेजों को बताने वाला हिन्दू ही था. चद्रशेखर आजाद, चाफेकर बंधू आदि को मरवाने या पकडवाने वाले हिन्दू ही थे. ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे.
इसके विपरीत अंग्रेजों में, अंग्रेजों के खिलाफ गद्दारी के कोई उदाहरण नहीं मिलते. मुस्लिम शासक आपस में खूब लड़े. लेकिन हिन्दू राजा के खिलाफ लड़ने के लिए वे एक होते थे.
*और इस सारे वातावरण में हम ‘धर्म’ की व्याख्या ही भूल गए. मिर्झा राजा जयसिंह यह औरंगजेब के दरबार में सबसे वीर प्रतापी सरदार माने जाते थे. खैबर के दर्रे तक उनके पराक्रम की धाक थी. वे भगवान एकलिंगजी के परम भक्त थे. उनकी पूजा किये बगैर जल भी ग्रहण नहीं करते थे. उनकी दृष्टि में, उनसे धार्मिक कोई नहीं था. ऐसे राजा जयसिंह किसको परास्त करने लिए औरंगजेब की आज्ञा से दक्षिण में आये..? छत्रपति शिवाजी. जो हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का प्रयत्न कर रहे थे. हिन्दू धर्म के लिए लड़ रहे थे. लेकिन शिवाजी को पराभूत करने में कुछ गलत हैं, धर्म के विरोध में हैं, ऐसा राजा जयसिंह में मन में भी नहीं आया. क्योंकि उनके धर्म की व्याख्या ही अलग थी. रोज भगवान् एकलिंग जी का अभिषेक करना, उन्हें एक हजार बेल के पत्ते चढ़ाना, गौमाता के दर्शन के बिना भोजन ग्रहण नहीं करना, ब्राह्मण भोज करवाना… यही उनका ‘धर्म’ था.*
लेकिन उनके शौर्य, उनके वीरता की मदद से औरंगजेब हिन्दुओं मार रहा हैं, हिन्दू धर्म को समाप्त करने पर तुला हैं, हिन्दू देवस्थानों को नष्ट कर रहा हैं, गायों को काट रहा हैं… यह जानते हुए भी, यह ‘हिन्दू धर्म’ विरोधी हैं, ऐसा राजा जयसिंह को लगता ही नहीं था…!
समाज में आयी विकृति के कारण, ‘धर्म’ आडंबर बन कर रह गया. शौच के समय जनीव कान पर कैसे लगाना, माथे का टीका सीधा लगाना या आडा, पूजा के लिए आसन पश्चिम में लगाना या पूर्व में… इसी आडंबर में धर्म उलझता गया. हमारे ऋषियों ने धर्म को संगठित करने का जो माध्यम बनाया था, वह जाता रहा. धार्मिक आडंबरों के विकृति की पराकाष्ठा देखियें, मुस्लिम आक्रमणों के कालखंड में ‘कालतरंगिनी’ में लिखा हैं –
_वरं हि मातृगमनं, वरं गोमांसभक्षणम्_
_ब्रह्महत्त्या, सुरापानं, एकादश्या न भोजनम्_
अर्थात, दुनिया के अत्यंत नीच और निंदनीय पाप किये तो भी चलेगा. लेकिन एकादशी के दिन भोजन करना नहीं चलेगा..!
इन सब विकृतियों के कारण हिंदुत्व का जो मूलाधार हमारे ऋषियों ने दिया था – ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’, वह कही दूर चला गया…!
– प्रशांत पोळ
(‘हिन्दुत्व : विभिन्न पहलू, सरलता से..!’ इस पुस्तक के अंश. प्रकाशक – ‘सुरुचि प्रकाशन’, दिल्ली)