कहा जाता है कि भारत में घूँघट की प्रथा तब से शुरू हुई जब से भारत पर बाहरी देशोंका आक्रमण आरम्भ हुआ। विजयी सेनाए विजिट क्षेत्र में खूब उत्पात मचाती लूटमार के साथ महिलायों पर तरह तरह के अत्याचार कर सब कुछ तहस नहस कर जाती। शायद तभी से इस्त्रियो ने परदे कि ओट में रहना शुरू कर दिया होगा।
यह प्रथा उत्तर भारत में है दक्षिण भारत में पर्दे का चलन नहीं है कारण विदेशी शासकों के आक्रमण उत्तर भारत तक ही सीमित थे। हाँ अब कुछ अन्य धर्मो का पालन वाली महिलाये घूँघट ,बुरका या चादर का प्रयोग अवश्य करती है वो भी तब जब वे घर से बाहर निकलती है।
बहुत पुरानी बात है जब मै मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव में रहती थी। पूरा स्त्री समाज तीन स्तरों में बटा हुआ था। वृद्ध महिलाये मात्र एक खददर कि पहने अधिकतर समय घर के बहार बरामदे में अनाज साफ करने में बिताती थी वे घूँघट तो नहीं निकालती थीं पर उनका सर हमेशा धोती के पल्लू से ढका रहता था पर निरंतर बालों को खुजाते रहने से यह भी स्पष्ट था कि इनको हफ़्तों से धोया संवारा नहीं गया। दूसरी थी वो लड़कियाँ जिनका अभी विवाह या गौना नहीं हुआ था,वे घर के बाहर बेठी वृद्ध महिलायों और घर के अंदर खसर खसर रोटियाँ बेलती बहु के बीच कि कड़ी थीं। बहुयों का घर के बाहर आना वर्जित था और दादी को जोड़ों के दर्द ने लाचार कर रखा था।
ये लड़कियाँ दिन भर घर के अंदर बाहर करती रहती थी। खाली समय में रिब्बन चोटी गूँथ कर साडी के पल्लू को दोनों कंधो पर डाले भविष्य के सपने देखा करती। दिल्ली जैसे बड़े शहर से आ कर यहाँ बस गए थे। घूंघट में फिरती महिलयो को चपलता पूर्वक कामकरते देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था और डर भी लगता था कि ये अब गिरी कि अब —-अब इसका पानी का घड़ा गिरा पर वे बड़ी कुशलता से निकल जाती थी ,पर में कभी कभी पलकें झपकना भूल जाती थी।
इसी गांव के एक किनारे पर एक पंजाबी परिवार रहता था। अक्सर जाना होता था। उनका घर इस तरह से बना था कि घर के अंदर रौशनी और हवा के प्रवेश कि कोई गुंजाईश न थी। जब मेरी माँ आंगन में बैठ कर चाचीजी से बतिया रही होती थी तो में बाहर चबूतरे पैर आ कर बेठ जाती थी। घर के ठीक सामने सड़क के उस तरफ एक कुंआ था जिसकी जगत करीब एक फुट ऊँची थी पानी गिरने से सड़क पैर सदा कीचड बना रहता था। वो कुंआ कम किसी पत्रकार का दफ्तर अधिक लगता था। पचास से साठ घर के लोग यही से पानी भरते थे।
यह भी पड़े : 1947 विभाजन- ‘आप बीती घटना’
जिंदगी : “फस गए भीड़ में”
ढोडी तक का घुंगट निकाले दो घड़े सर पैर रखे एक हाथ से तीसरा घड़ा कमर पैर टिकाये और दूसरे हाथ में एक बाल्टी और रस्सी थामे अपनी पड़ोसन से बतियाती बहु कुंए पैर पानी भरने आती इस बीच घर में क्या क्या कलह हुई सास नन्द या देवरानी और जिठानी किस बात पर ,सब एक दूसरे को कह डालती।
बातों के बीच पानी भरने का काम चालू रहता यदि कलसा बाल्टी साफ करते समय घर के झगडे कि चर्चा हो रही होती तो उसका असर बर्तनो पर जरुर पड़ता मन का गुबार निकलने के चककर में बर्तनो को कब ज्यादा जोर से रगड़ना शुरू कर दिया ,वे जन ही न पाती। यदि कुंए से पानी खींचते समय यह चर्चा छिड़ जाती तो रस्सी को खींचते हाथ वहीं थम जाते ,एक पैर कुंए कि मेड़ पर टिका जाता और जरा से ऊपर उठे घूँघट में से काजल भरी आँखे साफ मटकती दिखाई देतीं और श्रोता को शब्दों से कहीं ज्यादा आँखों द्वारा मन कि व्यथा सुनाई दे जाती और इसी बीच ठुड्डी पर पंजे कि बिखरी उँगलियाँ आ कर टिक जाती ,मानो कही जा रही बात में वजन डाल दिया गया हो।
एक दूसरे का हाल कह सुन कर महिलांए अपने पानी से भरे घड़े फिर उसी क्रम से उठाती घर कि तरफ चल पड़तीं। पानी से भरे घड़े जो एक बार सर पर टिका लिए तो फिर घर पहुँच कर ही उन्हेंहाथ लगाती। खली घड़ा जो पहले हाथ में पकड़ा था अब कमर पैर टिका लिया गया था और दूसरे हाथ में भरी बाल्टी और रस्सी पकडे वो हाथ भर का घूँघट निकले वे महावर लगे पैरों को घीरे धीरे सावधानी से आगे बढ़ाती, पायल और बिछिये के नूपुरों कि मधुर झंकार पीछे छोड़ती अपने अपने घरों को बड़ जाती। उन दिनों घरों के दरवाजे ज्यादा ऊँचे नहीं होते थे। घर के अंदर जाने के लिए वे नट जैसी कुशलता दिखाती और बाल्टी को वहीं छोड़ तीनो घड़े सम्भाले अंदर प्रवेश कर जाती।
इतना वजन उठाने पर चाल में एक कोमल सी लचक आ जाती थी और कदमो के उठने पर नूपरों कि धव्नि भी लय बध हो जातीथी। कवियों ने इस दृश्य पर जितनी भी रचनाएँ लिखी है उनका साक्षात्कार तो वहाँ रोज होता था । पर अब सर्वांग प्रदर्शित करती नारी कि ओर देख कर लगता है कि कवियों कि लेखिनी भी विमुख हो गई है। इस तरह सिर पर दो दो घड़े उठाये और कमर पर टिके घड़े को सम्भाले गांव कि गोरी जब किसी गली से गुजरती होगी तो उसकी एक झलक पाने के लिए लोग पवन के झोकों से गुहार करने लगते होंगे.. घूँघट कि ओट में रह कर भी हर तरह का समाचार हर घर में ऐसे ही पहुंचा करते थे।
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )