भावार्थ — समस्त प्राणियों के लिए जो ( अवस्था ) रात्रि अर्थात अन्धकार रूप है उसमें सयंमी पुरुष जागते हैं। आत्मा को देखने वाले मुनि के लिए वह रात्रि अन्धकार स्वरुप है।
श्लोक संख्या -70 ,अध्याय-2 ,
भावार्थ — जिस प्रकार सब ओर से जल से पूर्ण होते रहने वाले स्थिर -रूप से अवस्तिथ समुद्र में विविध नद नदियों के जल ( उसे विचलित ना करते हुए ) उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं ,उसी प्रकार जिस ( स्तिथप्रज्ञ पुरुष ) में सब काम्यविषयक ( किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न करते हुए ही ) प्रविष्ट हो जाते हैं ,वही परम शांति को प्राप्त होता है — भागों की कामना करने वाला नहीं।
उक्त श्लोक में यह कहने का प्रयास किया गया है की जो ‘मनुष्य ‘ स्थितप्रज्ञ हैं अर्थात स्थिर बुद्धि वाला है ,जिसकी बुद्धि सांसारिक उथल पुथल पर विचलित नहीं होती – वह सदा प्रसन्न चित्त रहता है। यह परिस्तिथि तब आती है जब हम अपनी इच्छाओं को जो हमें लोभ मोह में बाँध कर रखती हैं उनका त्याग कर दें या वश में कर लें।
यहाँ पर मुझे अपने गुरु तुल्य पिता की कही गई बात याद आती है ” छोड़ दिया या छूट गया ” -दोनों बातों में बहुत अंतर् है ,यदि आपने कुछ त्यागने का संकल्प लिया है तो यह सम्भावना सदा बनी रहेगी की आप उसे कभी भी दोबारा फिर से अपना लोगे। यदि छूट गया तो आप मोह से परे हो जाते हैं। इसके लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है। यह उतना सरल भी नहीं है की हम दो शब्दों में उसकी व्याख्या कर दें। हमें रास्ता खोजना है पर मंजिल हम जानते हैं। बिना ज्ञान के यदि राह ढूंढ़ने चल भी पड़ेंगे तो बार बार रास्ता भटकेंगे ,बार बार धैर्य छूटेगा ,बार बार भौतिक सुख ललकारेंगे और बार बार कभी हम पीछे हटेंगे या फिर पीछे हटने की सोचेंगे ,ऐसे में हमारा दृढ़ निश्चयी होना बहुत आवश्यक है जिससे हमारे अंदर का विशवास न टूटे । अपने अहंकार का त्याग करना ,द्वेष को भूलना , मोह के बंधन काटना यदि आसान नहीं तो असमंभव भी नहीं हैं। शास्त्रों में ‘यम ‘‘नियम ‘ ‘आहार ‘ ‘प्रत्याहार ‘की बात कही गई है ,ये सब वो औज़ार हैं जो आत्मज्ञान की राह पर चलने में हमारी सहायता करते हैं। श्री कृष्ण ने कहा जिसे सब लोग दिन मानते हैं उसे ज्ञानी पुरुष अन्धकार मानते हैं। ऐसा वे इस लिए सोचते हैं की जिसे सब लोग उजाला समझ रहे हैं वह वास्तव में ऐसा उजाला है जिसकी चका चौंध में आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। साधारण शब्दों में हम कहें तो जब सारी दुनिया लोभ मोह के पाश में बंध अपने को भाग्यशाली और सुखी समझने लगती है
तब वह भ्रमवश अज्ञान के अन्धकार को ही उजाला मान लेती है।
पर ज्ञानी जन कहते हैं की यह प्रकाश नहीं अन्धकार है और मानवजाति को चाहिए की वह इस भ्रम जाल को काट कर आत्मज्ञान और विवेक के प्रकाश में अपने को स्थित करे ,यह आवश्यक है। कारण की अज्ञानी जिसे प्रकाश मान बैठे हैं वो अन्धकार है ,जो शास्वत नहीं है। इसलिए इससे प्राप्त सुख और वैभव भी शास्वत नहीं हैं और यह सुख भी क्षणभंगुर ही सिद्ध होगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने कहा है –“While others are in this great sleep of ignorance,the wise person is awake to the reality of the ‘ I ‘ the knowledge of which
nullifies the division between the knower and the known since ,in reality ,there is no division .Therefore ‘I am all of this –aham idam sarvam . ‘
अपने ज्ञान को उचित दिशा देने के लिए हमें जानना और समझना होगा की वे लोग जो ‘अयुक्त ‘ हैं और वे लोग जो विवेकी हैं उनमें अंतर् क्या है । कुरुक्षेत्र में अर्जुन जो कह रहा था वह विवेक बुद्धि से परे था तत्कालीन परिस्तिथि से प्रभावित था पर श्री कृष्ण उसको उचित राह पर चलने को प्रेरित कर रहे थे, कर्त्तव्य को समझाने का प्रयास कर रहे थे। ‘अयुक्त ‘ लोगों के विचारों में सदा उनकी ही सोच हावी रहती है। लाख समझने पर भी वे बार बार अपने ही निर्णय को उचित ठहराने का प्रयत्न करते हैं। आपने भी अधिकतर ऐसे लोगों को कहते सुना होगा जो वे कह रहे हैं उसमें अनुचित क्या है। हो सकता है की वे अपनी जगह पर सही कह रहे हों। अर्जुन भी अपनी जगह पर सही था
फिर भी श्री कृष्ण उसे युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। जो बात अर्जुन कह रहा था यदि वो मान भी ली जाती तो निःसंदेह अर्जुन को ख़ुशी मिलती पर उन समस्याओं का क्या जिनके लिए कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि बना और पूरा भारत युद्ध के लिए तत्पर हुआ।
एक और बात गुरु द्रोणचार्य और भीष्मपितामह भी अर्जुन से उतना ही प्रेम करते थे जितना की अर्जुन उनसे ,शायद उससे भी अधिक , पर उस समय धर्म की रक्षा वा शांति संस्थापना के लिए युद्ध ही एकमात्र विकल्प था। मोह में डूबे अर्जुन को स्तिथि को समझना बहुत आवश्यक था। यहाँ पर हम यह बात बहुत अच्छी तरह समझ सकते हैं की जिस बात की कल्पना कर के ही अर्जुन को चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दे रहा था
उसी कार्य को सम्पन्न करने में श्री कृष्ण को प्रकाश दिखाई दे रहा था।
मनुष्य का मस्तिष्क एक फैक्ट्री की तरह है। अविरल चलते विचार ,अच्छे विचार ,बुरे विचार ,काम क्रोध और लोभ मोह और अहंकार में डूबे विचार , सदा हमारे मस्तिष्क में घूमते रहते हैं और इसे संचालित करने में सहायक होती हैं हमारी ज्ञान इन्द्रियां। भौतिकता के इस स्तर पर आम इंसान सदा उलझा रहता है। मोह ग्रस्त मनुष्य अपनी भौतिक उपलब्धियों पर गर्व करने लगता है और जब चाह बढ़ती चली जाती है तो उचित अनुचित राह पर चलने लगता है , फिर दुनिया में यश पा कर वह अहंकार की सीढ़ी चढ़ने लगता है और जब उसकी ‘ मैं ‘ बहुत बड़ जाती है तो उसके स्वाभाव में क्रोध और चिंता भी बढ़ने लगती है। ये क्षणभंगुर सुख ही उसे जीवन का सार लगने लगते हैं। अब हम यह तो नहीं कह सकते की उसकी भौतिक चमक दमक में उसके विचारों का कोई हाथ नहीं है ,हाथ है निश्चित रूप से है । यह सब उसके विचारों की ही देन है कारण की मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों के अधीन हो कर सोचता है और तदनुसार कर्म करता है। यह सब एक बाहरी आडम्बर है छलावा है। जिस सुख को पा कर उसे संतुष्टि मिली उसी सुख को शास्वत बनाने में वह अब दुखी रहता है। यदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त या उनके लिए प्राप्त सुख शास्वत होते तो मन शांत होता ,चेहरे पर एक आलौकिक आभा होती ,कुछ खो जाने का भय या चिंता ना होती। कुरुक्षेत्र में दुर्योधन की अधीरता हमारे लिए एक ऐतिहासिक प्रमाण है ,पर हम अपने आस पास भी ऐसा होता हुआ देख सकते हैं। हमें यह मान लेना होगा की जो मनुष्य आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है वो संसार में रह कर भी सांसारिक बंधनों से ऊपर उठ जाता है। इस की तुलना हम राजा जनक से कर सकते हैं यह भी एक ऐतिहासिक प्रमाण माना जाता है।
श्री कृष्ण ने आत्मज्ञानी मनुष्य की तुलना एक अथाह समुद्र से की है। समुद्र में अनगिनत नदी नाले चारों तरफ से आ कर ,अपने साथ कई प्रकार की अवांछित वस्तुओं को ले कर प्रवेश कर जाते हैं और यदि हम यह कहें की निरंतर ऐसा ही होता है तो भी अनुचित न होगा ,पर स्थिर रूप से अवस्तिथ समुद्र को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सब कुछ उसमें समां जाता है अच्छा भी और ख़राब भी। समुद्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार एक स्तिथप्रज्ञ पुरुष के विचारों को बाहरी विकार कभी प्रभावित नहीं करते। ऐसे ही व्यक्ति को परम् सुख की प्राप्ति होती है जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है।
सांसारिक भोग विलास की कामना करने वालों को सच्चा सुख कभी प्राप्त नहीं होता। मनुष्य को एक समुद्र के समान होना चाहिए जो बाहरी नदी नालों के प्रविष्ट होने पर भी अपनी सीमा को नहीं लांघता। अर्थात हमें ज्ञान की उस अवस्था तक पहुंचना है जहाँ त्यागने के लिए श्रम ना करना पड़े अपितु सब स्वाभाविक रूप से ही छूट जाये। संसार में रह कर मोह माया और अहंकार से परे रहने वाला ही ‘ स्तिथप्रज्ञ ‘मनुष्य कहलाता है।