आत्म ज्ञान पर चर्चा करते हुए शंकराचार्य जी ने लिखा है की श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का आदेश नहीं दिया उनका तातपर्य था की इन परिस्तिथियों में अर्जुन का पलायन करना उचित नहीं और न ही श्रो कृष्ण अर्जुन से युद्ध करने का अनुरोध कर रहे थे। जब की अर्जुन तो युद्ध करने के लिए पूर्ण रूप से तत्पर खड़ा था पर अपने विपक्ष में अपने गुरुजन आदि को देख मोह ग्रस्त हो उठा था और अर्जुन के हृदय में उठ रहे विचारों को -जिस कारण वो निढाल हुआ जा रहा जिस कारण उसके हाथों से शस्त्रादि छूट चुके थे –श्री कृष्ण उसको इन्ही भौतिक बंधनो के सच से परिचित करा कर उसको उसके कर्तव्य की राह बता रहे थे।
इस परिस्तिथि में यह बात तो स्पष्ट हो जाती है की जब मन मोह के वश में फंस जाता है तो भ्रमित हो जाता है ,विवेक शून्य हो जाता है और कर्तव्य विमुख हो जाता है। अर्जुन के सारथि श्री कृष्ण ने रथ के अश्वों की डोर छोड़ अपने मित्र के विचारों रुपी रथ के अश्वों की डोर थाम ली-यह एक उचित मार्ग दर्शन था -न आज्ञा थी न अनुरोध -यह समय ,परिस्तिथि ,काल और स्थान के अनुरूप दिखाई गई एक सही दिशा थी।
श्लोक –१९ अध्याय २
भावार्थ —-जो इस (आत्मा )को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा समझता है ,वो दोनों ही नहीं जानते हैं ,क्योंकि यह न तो मरता है और न मारा जाता है
अपने उपदेश के अंतर्गत श्री कृष्ण जी ने सांख्य योग को आधार बनाया और आत्मा को ‘ईश्वर ‘कहा या ईश्वर का रूप कहा ,या ईश्वर में निहित ईश्वर माना जो प्रत्येक जीव को जीवन भर कार्यरत रखता है –और आत्मा के न रहने पर अमुक जीव जीवात्मा न रह कर मृतक माना जाता है। इसके साथ ही साथ वे स्वयं को ‘ईश्वर ‘कह अर्जुन के भ्रम में डूबे विचारों की धुंध को मिटने का प्रयास भी कर रहे हैं। आत्मा अमर है तो फिर जो मृत्यु को प्राप्त हुए उस शरीर को भी
प्रकृति के सपुर्द कर देने के बाद जो बचा वो हैं उसके अच्छे बुरे कर्म जिससे प्रभावित हो कर समाज की रचना की जाती है और इसीलिए कर्मों को नियमबद्ध और सर्व जन हिताय बनाया जाता है। ये तो मात्र प्रभाव कहा जा सकता है जो समय और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। इसलिए जब श्री कृष्ण अपने को ‘ईश्वर ‘कह रहे थे तो निश्चित ही उनका तातपर्य प्रत्येक जीव आत्मा के भीतर निहित दिव्य स्वरुप से होगा जो वहां उपस्तिथ सभी बधु बांधवों और
सैनिकों आदि सब में आंशिक रूप से उपस्तिथ था ,और जो अकाट्य था , यदि इस दृष्टि से देखें तो प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का एक अंश है ,और वो विभाजित नहीं हो सकता। तो क्या यही वो ईश्वरीय स्वरूप है जो हमें और ‘उसे ‘एक करता है। तभी शायद सब गुनी जन ,साधु ,ज्ञानी ,विद्वान ,,सूफी और संत आदि कहते हैं ‘अपने आप को जानो’ क्या वो यही है -हम और ईश्वर भिन्न नहीं एक हैं- दूरी मात्र देह की है।
व्यास जी ने जब गीता लिखी तो उसमें ‘कृष्ण ‘को ईश्वर के रूप में प्रस्तुत किया। यह एक आलौकिक प्रस्तुति है। युद्ध भूमि में ज्ञान और वैराग्य का उपदेश ! कर्म को कर्तव्य मान जनहित को दृष्टि में रख युद्ध की यलगार !परिस्तिथिओं में विरोधाभास दिखता है.पर उद्देश्य अच्छे कर्मों से जुड़ा है। सामाजिक वयवस्था में सुधार की आवश्यकता के लिए राजसिहासन पर उचित शासक कितना अनिवार्य है -यह सच भी हमें प्रत्यक्ष दिखता है। आज हम इतिहास में उठे परिवर्तन के बवंडर को राजनीति या कूटनीति कोई भी संज्ञा दें पर इस बात को नकार नहीं सकते की कुरुक्षेत्र में एक पक्ष अपनी भौतिक आकांक्षाओं एवं अहंकार के साथ युद्ध के लिए तत्पर था तो दूसरा पक्ष धर्म एवं शांति की संस्थापना करना चाहता था। ऐसे समय में यदि धर्म की संस्थापना करने वालों का धैर्य उनका साथ छोड़ दे तो बिना युद्ध के ही मानवजाति का कितना विनाश होगा यह कोई ज्ञानी या भविष्य द्रष्टा ही जान सकता है। उपरोक्त श्लोक में ‘ऍन ‘शब्द का अर्थ है ‘स्वयं ‘जिसे इंग्लिश में हम सेल्फ कहते हैं और ‘हन्तारं’ शब्द का अर्थ है मारनेवाला .परन्तु हम किसी को मार नहीं सकते क्योंकि आत्मा को मारा नहीं जा सकता , वो अमर है तो फिर अर्जुन का यह सोचना की वह अपने ही लोगों की हत्या नहीं कर सकता -गलत सिद्ध हो जाता है और जब इस कृत्य में कोई मारा ही नहीं गया तो किसी को मारने वाला अपने को हत्यारा नहीं समझ सकता।
यदि हम इस बात को सत्य मान कर चलें तो हमें परिस्तिथिओं पर भी विचार करना होगा ,उन परिस्तिथिओं से उतपन्न अव्यवस्था को भी समझना होगा ,समाज पर उसके अच्छे बुरे प्रभाव को भी जान लेना होगा अन्यथा युद्ध के परिणाम सामाजिक वयवस्था को और अधिक हानि पहुंचा सकते हैं। और यदि कुरुक्षेत्र में कोरवों का पक्ष विजय हो जाता तो वही हो जाता जो कृष्ण नहीं चाहते थे की हो। इसलिए यह आवश्यक था की अर्जुन शस्त्र उठाये ,परन्तु उनको यह भी ज्ञात था की अर्जुन का मोह पाश बहुत जटिल है वह तब तक न टूटेगा जब तक की अर्जुन का विवेक नहीं जाग जाता -ये भाव प्रस्तुत श्लोक में स्पष्ट हो जाते हैं। परन्तु यहाँ हम एक और बात समझ सकते है की मरने और मारने की क्रिया आत्मा के द्वारा नहीं की जाती अर्थात आत्मा न तो कर्त्ता है और न ही कर्म। शंकराचार्य ने भी यही कहा है की आत्मा तो अमर है इसका हनन तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर सकता अर्थात खुद आत्मा भी आत्मा का हनन नहीं कर सकती।