भावार्थ –अर्जुन ने कहा —“हे केशव समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ
(अर्थात स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य ) का क्या लक्षण है ?स्थिर बुद्धि मनुष्य कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है ,(अर्थात कैसे रहता है ) और कैसे चलता है।
श्लोक 53 में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि वो अपने मन के सारे संशय दूर कर स्थिर चित हो कर यदि प्रश्न पूछेगा तो वे उसकी शंकाओं का समाधान अवश्य करेंगे – यदि मन में उलझन रख कर भी प्रश्न पूछेगा तो भी वे उसका समाधान अवश्य करेंगे। मन की शुद्धि के बारे में सांख्य दर्शन के दूसरे भाग के तीसरे श्लोक में जो लिखा है उस बात की चर्चा इस लिए यहाँ जरूरी है की किसी बात को समझने के लिए मनुष्य का स्थिर बुद्धि होना क्यों आवश्यक है ,इसी की व्याख्या
सांख्य दर्शन के इस श्लोक में है अर्थात ” प्रथम तो ऐसे वचनों का सुनना ही कठिन है जिससे आत्मज्ञान और वैराग्य की उतपत्ति हो सकती है क्योंकि विषय वासना में फंसे हुए मनुष्य का वैसे उपदेशों में मन नहीं लगता। यदि किसी प्रकार सुन भी लें तो उसके सुन लेने मात्र से ही वैराग्य की प्राप्ति नहीं हो सकती ,कारण की आत्मा अनादि काल से बलवती वासनाओं से लिप्त चली आ रही है और वे वासनायें आत्मा का पीछा नहीं छोड़ती , उनकी असारता की बात जान लेने पर भी मन उन्हीं की ओर बारंबार दौड़ता है और इसके चक्रव्यहू में फंस जाता है। इस लिए वैराग्य की सिद्दी – निरंतर अभ्यास से ही हो सकती है। “
अर्जुन भी मोह जाल में उलझा है और इस बंधन से कैसे अलग हो वह समझ नहीं पा रहा क्योंकि यह मनुष्य का निरंतर होने वाला
व्यवहार है। सृष्टि का प्रवाह अनंत है ,वह कभी समाप्त नहीं हो सकता। शायद यही कारण है की यहाँ युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को भय है की वो अपने
स्वजनों का वध कर पाप का भागी बन जायेगा। इसलिए श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं की वो स्थिर बुद्धि से उनकी बात को समझे कि सृष्टि अनंत है और आत्मा अमर है।
प्रस्तुत श्लोक संख्या 54 में श्री कृष्ण ने अर्जुन का ध्यान सांख्य दर्शन की शिक्षा के बाद कर्म योग की ओर केंद्रित किया जिससे अर्जुन को अपना ध्यान लक्ष्य की ओर केंद्रित करने में सहायता मिल सकेगी।
हम किसी व्यक्ति विशेष के स्वभाव को , उसकी प्रकृति को और उसके देश काल एवं धर्म की पृष्ठ भूमि का पहले आंकलन कर
लें अर्थात उस व्यक्ति को पूरी तरह से जान लें तो उसकी वैचारिक दुविधाओं को दूर कर देना आसान हो जायेगा। कृष्ण अर्जुन को भली भांति जानते थे ,वह एक राजकुमार है पर राज लालसा में लिप्त अपने
चचेरे भाइयों द्वारा देश से परिवार सहित निष्कासित है। वह आदर्श पुरुष है अपने परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित है ,और सभी कर्तव्यों का पालन भी करता है ,वह एक सच्चा मित्र है और सदा धर्म की राह पर चलता है और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने को वह सदा तत्पर भी रहता है , और वह एक आदर्श पुरुष भी है। हम कह सकते हैं की उसमें वे सभी गुण है जो एक सत्पुरुष में होने चाहिए। क्योंकि वह एक राजकुमार है इसलिए वह एक कुशल योद्धा भी है और कुशल संचालक भी है। ऐसे पुरुष की कर्म भूमि युद्ध का मैदान ही होती है इसलिए की समय आने पर वह राज्य की सीमाओं की सुरक्षा कर सके। यह जान लेना की अर्जुन के जीवन में उसके कर्म (कर्तव्य ) का क्या स्थान है स्वामी चिन्मयनन्द जी ने लिखा है —
” The idea seems to be quite appealing and theory indeed logical. There is a ring of conviction ( दोष सिद्धि )
added to it when the theory comes from the mouth of Lord Krishna. Arjuna has such a mental constitution that Karm Yoga appealed to him the most —-we find Arjuna asking some necessary questions to clear his doubts and gain a better understanding. As a practical man, he is rather afraid that after gaining the great Goal of life through the buddhi yoga he may not be able to live afterward as vigorously as now in the world outside .”
किसी भी व्यक्ति का काम करने का तरीका या काम को समझ कर
करने का तरीका भिन्न भिन्न होता है। उदाहरण के लिए एक वीर की भाषा और सोच –एक व्यापारी की या कलाकार की भाषा और सोच एक दूसरे से भिन्न होगी। जिसमें एक वीर पुरुष का बल और ओज भरा है
या एक कलाकार जिसकी भाषा में संवेदना और संरचना झलकती है
दोनों ही एक दूसरे से भिन्न हैं। कर्म के अनुसार ज्ञान के भी भिन्न भिन्न रूप होते हैं। पर हम जो भी कर्म करें वो हमारे लक्ष्य काल ,परिस्तिथि और आवश्यकता के अनुरूप होने चाहिए –स्वार्थ से भरे नहीं। श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्तिथप्रज्ञ होने को कहा और पूछा की वे व्यक्ति जो स्थिर बुद्धि से काम लेते हैं वे कैसे होते हैं —क्या वे अपने कर्तव्यों का और अपने कर्मों का धर्मानुसार निर्वाह करते हैं। भाव तो यही समझ में आता है की व्यक्तियों के उठने बैठने के ढंग से चलने बोलने के ढंग से या भाषा एवं विचारों के माध्यम से हमें उनके कर्मों की पहचान हो सकती है। जब अर्जुन ने युद्ध से इंकार किया और शस्त्र
त्याग दिए तो यह एक वीर पुरुष के लक्षण नहीं थे। एक संतुष्ट
व्यक्ति स्तिथप्रज्ञ तभी कहलाता है जब वह अपने जीवन से या कर्म से संतुष्ट हो। पर अर्जुन युद्ध को ले कर संतुष्ट नहीं था ,इसलिए
यहाँ श्री कृष्ण एक ओर तो अर्जुन को उसके वीर होने का अहसास दिला
रहे थे और दूसरी अर्जुन के मन में उठ रहे संदेहों का समाधान भी कर
रहे थे। ये दोनों अलग अलग परितिथियाँ हैं। मन परेशान हो तो बुद्धि
काम नहीं करती और हम अक्सर सामने वाले पर ही संदेह कर बैठते है ,
कभी कभी पूछ भी लेते हैं की क्या आपको मेरी बात समझ में आ रही
है या नहीं। पर कृष्ण तो अर्जुन की बात बहुत अच्छी तरह से समझ रहे थे ,लेकिन अड़चन तो अर्जुन को उसके कर्तव्य का भान कराने की थी, न की उसके व्याकुल हृदय की पुकार सुन उसे युद्ध भूमि में विचलित करने की। भलाई तो कर्तव्य निभाने में ही होती है ,पलायन करने में नहीं। हम
लोग अपने जीवन में भी कभी कभार किसी को समझाते समय कह देते हैं की तुम तो समझदार हो और समझदार व्यक्ति को तो इशारा ही काफी है। अर्जुन को श्री कृष्ण का इशारा समझ नहीं आ रहा था इसलिए श्री कृष्ण उसे उसके एक वीर आर्य होने का सच बार बार बताते हैं। अर्जुन अब प्रलाप करने लगा था या कहें की वैसी ही परिस्तिथि में था और श्री कृष्ण चाहते थे की वो अपने को पहचाने और कर्तव्य का पालन करे –इस समय कुरुक्षेत्र में कुछ ऐसा ही दृश्य था।
श्लोक 55 — अध्याय 2
भावार्थ –हे पार्थ !जब (मनुष्य ) मन में विधमान रहने वाली सभी कामनाओं को त्याग देता है तथा अपने आप से ही संतुष्ट रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
बात सीधी सी कही गई जान पड़ती है पर जितनी सीधी और साफ़ यह दिखाई पड़ती है उतनी है नहीं। यह बात मुझे तो किसी तपस्वी की तपस्या से कम नहीं लगती और वो भी कठोर तपस्या
जसका फल प्राप्त होगा यह एक अनसुलझी पहेली सी लगती है,
फिर तपस्या ,फिर इच्छा ,फिर फल की कामना –लगता है बुद्धि
हमेशा इसी धुरी पर घूमती रहती है यह एक ऐसा बिंदु है जिसका आदि अंत एक ही है। कहते हैं एक वीर की बुद्धि का केंद्र बिंदु उसकी युद्ध कला तक ही सीमित होता है और एक शिक्षक की बुद्धि में पुरे विश्व का ज्ञान
समाया होता है। वीर की कर्म भूमि राज्य ,प्रजा ,राज और सुशासन होती है और गुरु का कर्म उसका सुचारु रूप से संचालन। जो काम अर्जुन को शस्त्र उठा कर करना है वो काम श्री कृष्ण शास्त्र समझा कर करा लेते हैं .दोनों का ही अपने काम में दक्ष होना अनिवार्य है। एक वीर को युद्ध
भूमि में युद्ध के लिए तत्पर खड़ी सेना को देख कर जोश में आ जाना स्वाभाविक है तो दूसरी ओर एक गुरु अथवा योगी का भी युद्ध भूमि में
भी होश में रहना आवश्यक है। यही दृश्य कुरुक्षेत्र में उपस्तिथ है।
(यह दुःखद बात है की आज के आधुनिक युग में ऐसी बातें देखने को
कम मिलती हैं -योद्धा विलासी हो रहे हैं और ग्यानी भोगी )
स्वामी विवेकानंद जी ने कर्म के बारे अपने विचार प्रगट कर कहा है —
” you find in Krishna that non attachment is the central
idea .He does not want anything . Works for work’s sake .Do good because it is good to do good .Ask no more ” that must have been the character of the man (krishna ).Otherwise These fables could not be brought down to the one idea of non – attachment .”
श्री कृष्ण का कहना है की यह एक युद्ध भूमि है और यहाँ हर एक वीर पुरुष का स्थिरबुद्धि होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसा
भी हो सकता है की श्री कृष्ण अर्जुन से कहना चाह रहे हों की वो पहले अपने अंतःकरण में झांक कर देखे ,अपने को समझे ,अपने कर्म को पहचाने ,युद्ध के उद्देश्य को समझे तो हो सकता है की उसके मन की पीड़ा कम हो जाये , हम सब के जीवन में ऐसे क्षण बार बार आते
रहते हैं जब हम अधीर हो बिना सोच विचार किये कुछ ऐसे निर्णय ले बैठते हैं जिससे हमें असफलता का सामना करना पड़ता है ,हानि भी हो सकती है और अनिष्ट भी। यह बात तो अब सर्वविदित है और अनगिनत लोग अपने अपने ढंग से चेतावनी भी देते रहते है पर फिर भी ऐसे हालातों में इंसान अपने तर्क को ही अधिकतर सच मान बैठता है और समस्या का मूल उदेश्य भूल जाता है उचित तो यही है की ऐसे में कोई हमारी मन बुद्धि और चेतना को जागरूक करे और जिस पर विशवास हो । इससे मन में उठ रही शंकाओं को समाधान तो मिलेगा ही साथ ही भौतिक आसक्ति से भी छुटकारा मिल जायेगा। ऐसे में जो कर्म किये जायेंगे उससे धर्म और समाज दोनों की रक्षा होगी। हमें एक बात याद रखनी चाहिए की जहाँ ज्ञान और आत्मज्ञान की कमी होगी वहां सांसारिक भोग विलास की इच्छाएं एक विष बेल की तरह बढ़ती जाएँगी। .इस लिए सबको स्थिर बुद्धि का होना आवश्यक है। अहंकार में अन्धकार है और स्वार्थ में अज्ञान |