भावार्थ –इस लिए ( साधक ) उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त तथा मेरे परायण होकर स्तिथ रहे। क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वश में होती हैं उसी की बुद्धि प्रतिष्ठित (अर्थात स्थिर )होती है।
श्लोक -62 , अध्याय -2
भावार्थ –विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन (विषयों )में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है ,आसक्ति से कामना पैदा होती है ,कामना (में विघ्न ) आने से क्रोध उत्पन्न होता है।
श्लोक – 63 ,अध्याय – 2
भावार्थ –क्रोध से सम्मोह ( अर्थात मूड़ भाव ) पैदा होता है , सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है ,स्मृति नष्ट हो जाने से ( विवेक बुद्धि ) का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट हो जाने पर ( मनुष्य ) नष्ट हो जाता है (अर्थात पुरुषार्थ के अयोग्य हो जाता है ) |
उक्त तीनों श्लोक बुद्धि की स्थिरता पर प्रकाश डालते हैं।
कठोपनिषद के तीसरे अध्याय के श्लोक संख्या पांच में भी कुछ ऐसा ही कहा गया है – जो मनुष्य विवेकशून्य होता है ,जिसका मन सदा बुद्धि से स्वतंत्र होता है ,कभी स्थिर नहीं होता ,सदा अनियमित चलता है ,वह मनुष्य लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे लगाम को ढीला करने से दुष्ट अश्व रथ स्वामी को रथ से नीचे गिरा देते हैं ,लक्ष्य पर नहीं पहुँचाते ;ऐसे ही जो मन – बुद्धि के वश में नहीं है वह मन सदा अनियमित चलता है। जिसका मन नियम से न चले ,उसकी इन्द्रियाँ ठीक मार्ग पर न चल कर उसको विषयों में फंसा कर ,विषयों के गर्त (गड्ढे )में गिरा देती हैं। अतः सबसे आवश्यक कार्य कोचवान –बुद्धि को सुधारना है। बुद्धि शुद्ध हो तो थोड़े से परिश्रम से भी सफलता प्राप्त की जा सकती है और यदि बुद्धि विकृत है तो कोई भी कार्य मर्यादा से नहीं हो सकता। .बुद्धि दो प्रकार की होती है –एक स्वाभाविक (नैसर्गिक )
बुद्धि और दूसरी नैमित्तिक बुद्धि। नैसर्गिक बुद्धि तो सभी प्रकार के मनुष्यों में एक सी होती है किन्तु नैमित्तिक बुद्धि सभी की भिन्न होती है। मन का तीन प्रकार का होना नैमित्तिक बुद्धि की विभिन्नता का कारण है। सत्वगुणी मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह अन्य प्रकार का होता है ,रजो गुनी अन्य प्रकार का होता है और तमो गुनी मन के द्वारा होने वाला ज्ञान इन दोनों से भिन्न प्रकार का होता है। “
सांख्य दर्शन के प्रथम अध्याय की श्लोक संख्या – 164 , में कहा गया है
” इन्द्रियों के संपर्क में आने पर आत्मा विषय भोगों को कर्तव्य समझने लगती है ,परन्तु विषयों से आत्मा का संयोग अविवेक के कारण है ,और इसी से आत्मा का कर्तापन माना जाता है , क्योकि इन्द्रिय आदि अचेतन पदार्थ आत्मा के संयोग से ही कर्म करने में समर्थ हो सकते हैं।
उपरोक्त उदाहरण इस लिए दिए गए हैं की गीता को वेदों का उपनिषदों का सार माना जाता है ,जो सच है। गीता तो ज्ञान का सागर है जो हमें हमारी संस्कृति से परिचित कराती है। वेद पुराण उपनिषद आदि बहुत गूढ़ और गंभीर विषय हैं ,मोह माया में फंसे मनुष्य की समझ से बहुत ऊपर। पर यदि यही विषय हम एक पारिवारिक परिसर में या ,भौतिक संसार से जोड़ कर समझने का प्रयास करें तो हो सकता है की विषय इतना गंभीर न दिखाई पड़े ,समझने में भी आसानी होगी।
जब तक हम किसी समस्या विशेष का या विषय विशेष का गहराई पूर्वक समय ,काल परिस्तिथि और उद्देश्य को धयान में रख कर हल नहीं निकालेंगे हम अपने कार्य में सफल नहीं हो पाएंगे। भावनाओं में बह कर समस्या का हल नहीं निकलता। हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अधिकतर कहते रहते हैं की ‘दिल से नहीं दिमाग से सोचो ‘हम सब इस बात को जानते हैं पर फिर भी समय आने पर विवेकशून्य हो जाते हैं। ठीक अर्जुन की तरह जिसकी सोच एक ही स्थान पर आ कर ठहर गई ‘कैसे
वध करूँ मैं अपने पूज्य्नीय परिजनों का ,गुरु का। यह उचित नहीं है मैं पाप का भागी बन जाऊंगा ‘ |
श्री शंकराचार्य जी ने श्लोक 62 और 63 के बारे में लिखा है —
” How a person gets into trouble when he or she is completely taken over by senses, meaning the’rasas ‘.this analysis applies to everyone -vivekis and avivekis
alike. There is common psychology here, the psychology of a desire — how a desire originates, how the pursuit of it begins, how destroys one’s objectivity, and so on all of which is set out in these two very important verses .”
इच्छाओं का होना न होना यह मनुष्य की जीवन शैली
पर निर्भर करता है। इच्छाएं हों ही ना यह तो असंभव है और यदि हमारी कोई प्रबल इच्छा है तो क्या हम नें फल के बारे में कभी चिंतन किया
क्या कभी सोचा की इससे किसका हित या अहित होने वाला है ,क्या इच्छा पूर्ति के बाद हमें कभी अपार सफलता मिल जाएगी ,यह किसी को कष्ट या दुःख दे कर तो नहीं हासिल की जा रही। अब जब हमारी इच्छा
पूर्ति के बाद हमें परम सुख मिल गया है – तो क्या अब किसी और इच्छा का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है । ये सब कल्पनाएं हैं। हम जीवन में जो भी पाना चाहते हैं हमारी आसक्ति उस पर बढ़ती ही जाती है। जब किसी ने कोई लक्ष्य एक बार निर्धारित कर लिया तो फिर उसके आस पास या आर पार भी वो देखना या समझना नहीं चाहता | विचार जहाँ पर स्थिर हो गए तो हो गए। कोई भी प्रयत्न कर वो विचारों से अमुक बात हटाना चाहें भी तो नहीं हटा सकता , वही विचार घूम फिर कर नए बहानों के साथ दिमाग में प्रगट होता ही रहता है। अगर हम देखें की कोई ऐसी परिस्तिथि में फंसा है तो समझ लेना चाहिए की या तो उसमे ज्ञान की कमी है या फिर विवेक की। कभी कभी प्रबल इच्छाओं के आगे तो धर्म भी हार जाता है। हमने अपने जीवन में कई बार किसी न किसी को कहते सुना होगा — “जाओ मैं नहीं सुनता किसी की ” या फिर “मुझे तो वही करना है जो मेरा मन कहेगा ” |ऐसी विचारधारा वाले लोग अपने हठ पर अपना ध्यान टिका देते हैं। कारण कुछ भी हो सकता है -यश ,गुणगान ,धर्म या किसी का व्यक्तित्व या किसी का कोई संबंध या कोई लक्ष्य आदि। आप स्वयं तो हठ पर अटक गए हैं लेकिन साथ ही साथ ये भी चाहतें हैं की दूसरे सब लोग भी उसे ही सही या उचित मानें ,उसी की प्रशंसा करें। यह जरुरी तो नहीं की हमारी हर इच्छा वैसी ही पूरी हो जैसी की हम चाहते हैं या हम जो सोच रहे हैं वही सही है। प्रश्न यह उठता है –क्या वाकई !
दक्षिणी देशों की खोज कहती है हमें अपनी भावनाओं का दमन नहीं करना चाहिए क्योंकि यह प्रयत्न मानसिक रूप से लाभकारी नहीं है।
लेकिन भारतीय संस्कृति का ज्ञान इससे बिलकुल विपरीत मत रखता
है ,हमारे वेद शास्त्रों एवं पुराणों आदि के अनुसार यदि हम अपने वाह्य जगत की एवं भौतिक जगत की इच्छाओं का दमन करने में सफल हो जाते हैं तभी हम अपने अंतर् में आत्मरूपी सच को पहचान सकेंगे। इच्छाएं तो एक धारा प्रवाह की तरह हैं एक के बाद एक आती ही रहेंगी और हम सदा भौतिकता में ही उलझे रहेंगे। हमें ये जान लेना चाहिए की नश्वर क्या है और शाश्वत क्या है यह जान लेना कठिन हो सकता है पर असंभव नहीं | कोई भी सुख तब तक शास्वत नहीं होगा जब तक हम इस भेद को जान न लेंगे। जब कुछ कार्य धरम की परिधि या फिर स्वार्थ का त्याग कर समाज के हित के लिए किये जाते हैं तो ऐसी परिस्तिथि आने पर हमें अपने विवेक का सहारा ले कर अपना कर्तव्य करना चाहिए। हो सकता है कार्य करते समय हमें कोई निजी लाभ या सुख ना दिखाई दे रहा हो पर लोक कल्याण के लिए किया गया कार्य अंत में सबको सुख शांति ही देता है। यहाँ पर श्री कृष्ण ने भी नकारात्मक
और सकारात्मक दोनों ही प्रकार के विचारों को एक साथ ले कर बात अर्जुन के सामने रखी .एक ओर वे अर्जुन को नकारात्मक सोच से दूर
करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे उसी स्थान पर अर्जुन को सकारात्मक
सोच के साथ कर्तव्य का पालन करने को कहते हैं। यदि अर्जुन के हृदय
में उत्पन्न आसक्ति का निवारण न हो सका तो युद्ध के परिणाम
धर्म के विरुद्ध भी जा सकते हैं। जब जब मनुष्य के मन में नकारात्मक
विचार जन्म लेने लगते हैं तो परिस्तिथियाँ अनुकूल न होने पर क्रोध उमड़ने लगता है। यह स्वभाविक है की क्रोध में सोचने समझने का ज्ञान नहीं रहता। यहाँ अर्जुन मोहग्रस्त है और वो यह भूल बैठा है की वो
किस उद्देश्य से कुरुक्षेत्र में खड़ा है। वो बार बार एक ही बात दोहराता
है और हथियार उठाना नहीं चाहता। यहाँ पर कहा जा सकता है उसकी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया है। नकारात्मक विचार बार बार मन में उठ रहे हैं ,कर्तव्य पर मोह भारी हो गया है। अपने पुज्य्नीय परिजनों का वद्ध कर उसे पाप का भागी नहीं बनना है। श्री कृष्ण चाहते हैं की अर्जुन
इस समय सकारात्मक सोचे ,अपने कर्तव्य को पहचाने ,अपने उद्देश्य को याद रखे ,समाज का उत्थान करने का प्रयत्न करे और धर्म की संस्थापना करने का संकल्प ले। इस समय पलायन के बारे में सोचना किसी भी योद्धा को शोभा नहीं देता। अनीतियों और कुरीतियों से यदि समाज को मुक्त ना किया गया तो सदियों से चली आ रही सभ्यता और
संस्कृति का तो नाश हो जाना निश्चित है। यदि बुद्धि का ही विनाश हो
जाये तो कोई भी पुरुष पुरषार्थ के योग्य नहीं रह जाता। विवेकी मनुष्य ही अपनी बुद्धि का सदुपयोग कर सकता है और विवेक भी तब तक ही स्थिर रहता है जब तक क्रोध ,मोह या अहंकार नहीं आता।
श्री कृष्ण यहाँ अर्जुन को स्थिर बुद्धि रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। हमें किसी
वस्तु या विचार विशेष पर ध्यान स्थिर करने से पहले अपने आत्मज्ञान
की तरफ ध्यान देना होगा। जो लोग ऐसा नहीं करते वे अपनी जिद
के कारण कई दुखों का सामना करते हैं और अपने ही लक्ष्य की प्राप्ति में अपने ही हाथों बाधा उत्पन्न कर लेते हैं।
कवी गिरधर जी ने भी यही बात बहुत सरल शब्दों में कही है —
बिना बिचारे जो करे ,सो पाछे पछताए ,
काम बिगारे आपनो ,जग में होत हंसाये।
जन साधारण की भाषा में कही गई यह बात जन साधारण के लिए ही है।