( अनेक प्रकार की फल -) श्रुतिओं (को सुनने ) से विक्षिप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधी में निश्चल और स्थिर हो कर ठहर जाएगी ,
तब तू (समत्वरूप ) योग को प्राप्त होगा।
उक्त बात बहुत संक्षिप्त रूप में कही गई है पर यदि इस श्लोक के अर्थ की गहराई को समझ लें तो हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। गीता में जो भी कहा गया है वह एक बात को समझाने का प्रयास है , अर्थात जो भी ज्ञान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया है वो क्यों दिया गया। प्रश्न यह उठता है की क्या हम किसी कथा कहानी के दृश्य को समझने का प्रयास कर इतिहास को समझने का प्रयास कर रहे हैं या फिर किसी घटना विशेष का विश्लेषण। यहाँ ‘घटना ‘ का अपना महत्व है यह झुठलाया नहीं जा सकता पर इस पृष्ठ भूमि में जो ज्ञान श्री कृष्ण के मुख से निकला और जिसे व्यासजी ने लेखनी बद्ध किया वह महत्वपूर्ण है। मुझे ऐसा लगता है की यह उपरोक्त श्लोक वेदों का ,पुराणों का, भक्ति का ,ज्ञान का ,व्यवहार का ,जीवन सार का , और जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति आदि का मूल मंत्र है। धर्म की उत्पत्ति ,कर्म की प्रेरणा
यह किसी काल ,घटना या अंधविश्वास के कारण जन्म लेती है और समाज के उत्थान के लिए एवं समाज में शांति संस्थापना के लिए होती है। ‘गीता ‘ को कहे पाँच हजार वर्ष से भी अधिक समय बीत गया है।
कुरुक्षेत्र में महा भारत का युद्ध धर्म की संस्थापना के लिए हुआ था और ऐसे ही धरती के अन्य भागों में भी समय समय पर नए धर्मों की संस्थापना होती रही है। बौद्ध धर्म ,जैन धर्म ,ईसाई और मुस्लिम धर्म
और दूसरे भी कई अन्य धर्मों को समाज में फ़ैल रही अराजकता एवं अंधविश्वासों के चलते ही स्थापित किया गया । ये सभी प्रयास अपने अपने देश काल में सफल भी रहे हैं।
जो परिस्तिथियां भारत को अराजकता की एवं अधर्म की ओर ले जा रही थी उनको रोकना बहुत आवश्यक था। ‘धर्म ‘ एक व्यवस्था का नाम है फिर वो चाहे किसी भी धर्म की क्यों न हो। जब जब धर्म को बचाने और पुनः स्थापित करने का प्रश्न उठता है तो
उसमें अर्जुन के मन में उठ रहे मोह बंधन का कोई स्थान नहीं रहता।
तब सब तरह के बंधनों का त्याग कर धर्म को अपना लेना ही समझदारी है। और इसके लिए मन उठ रहे हर संशय का त्याग कर सीधे लक्ष्य प्राप्ति ही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए। प्रस्तुत श्लोक में श्री कृष्ण ने अर्जुन को यही सीख देते हुए कहा है की हम जो भी कार्य करते हैं उसे पूरी लगन और भक्ति के साथ करना चाहिए। ऐसा करने से हमारे चित्त
की शुद्धि होती है ,समर्पण और भक्ति भाव से काम करने से मन में उद्वेग उत्पन नहीं होता। अज्ञान का अँधेरा भी धीरे धीरे दूर होने लगता है। मन , बुद्धि और चित्त का सम होना आवश्यक है। जब जीवन में ऐसे निर्णायक पल आते हैं तब आवश्यकता से अधिक अधीर होना या शंकित होना ,दोनों ही असफलता का कारण बन सकते हैं ऐसे में यदि कोई शांत चित्त हो कर निर्विकार भाव से एवं निष्पक्ष हो कर यदि आप को कुछ धर्म संगत बात कहता है तो उस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
महात्मा बुद्ध का एक मूल मन्त्र है -बुद्धम शरणम गच्छामि ,धर्मम
शरणम गच्छामि ,संघम शरणम गच्छामि -अर्थात जब मन में कोई दुविधा हो तो हमें सबसे पहले गुरु की शरण जाना चाहिए ,वहीँ से हमें उचित या अनुचित का ज्ञान प्राप्त होता है ,दूसरी स्थिति में हमें धर्म की शरण लेनी चाहिए क्योंकि धर्म ही मनुष्य को जीने की सही राह दिखता है – धर्म किसी देवी -देवता विशेष का नाम ,या कोई पूजा या फिर कोई
कर्मकांड नहीं है ,धर्म तो कुछ ऐसे नियमों का संग्रह है जिसको अपना कर सामाजिक और व्यवहारिक रूप से जीवन शांतिपूर्ण ढंग से और उचित व्यवस्था के अंतर्गत बिताया जा सकता है। फिर हम चाहे उस प्रद्धति को किसी धर्म का नाम दे लें। तीसरी स्तिथि -जब यहाँ भी हमारी
शंकाओं का समाधान नहीं होता है तो फिर हमें संघ की शरण में जाना चाहिए अर्थात बहुमत जिस बात की स्वीकृति दे उसे ही मानना चाहिए।
यही जन हित के लिए उचित है। ‘पंचायतों ‘ में फैसले की प्रथा इसका ही छोटा रूप है। जब कोई किसी भी कष्टपूर्ण स्तिथि या दुःखद परिस्तिथि में शंकाओं और समस्याओं से घिर जाएँ तो शांत मन से पहले सही गलत का विचार करना चाहिए या किसी से परामर्श करना चाहिए और जब तक सारे संशय दूर न हो जाएँ प्रयत्न करते रहने में कोई बुराई नहीं है। जब समस्या का समाधान मिल जाये तो कह सकते हैं की दुनिया के सारे प्रलोभनों से और विवशताओं से उस व्यक्ति को छुटकारा मिल गया है। अब शंकाओं के बवंडर मन में नहीं उठ पाएंगे –विवेक बुद्धि प्रखर हो जाएगी और शांत चित्त हो कर हम अपने कर्मों को सही
दिशा दे सकेंगे। ऐसी मन स्तिथि को ही योग कहते हैं। श्री कृष्ण ने अर्जुन को जब कर्म योग का ज्ञान दिया तो उसे कहा था की जब भी वो अपने मन के संशय दूर करने के लिए उनसे कोई प्रश्न पूछेगा तो कृष्ण उसका मार्ग दर्शन अवश्य करेंगे फिर वो प्रश्न उचित हों या अनुचित अर्थात तत्कालीन परिस्तिथियों के अनुकूल या प्रतिकूल ,उत्तर उसे तब भी मिलेगा ,एक सच्चे मित्र और मह ज्ञानी पुरुष से यही आशा की जाती है। विश्वास को व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती , बस विश्वास होना चाहिए , यही अपेक्षा कृष्ण को अर्जुन से थी।
कुरुक्षेत्र में कही गई सारी बातें “धर्म का पालन “करने
के लिए अर्जुन को समझाने का प्रयत्न है। आइये आप और हम एक बार धर्म क्या है यह समझने का प्रयास करते हैं ,यह कहाँ से आया ,क्यों
आया ,किसने बनाया इत्यादि।
बात आदि काल से शुरू करते हैं। मनुष्य में जब भिन्न भिन्न विचारों का उदय होना प्रारम्भ हुआ तब उसके मन में उत्सुकता बड़ी और तरह तरह के प्रश्नों का जन्म होने लगा। इसके चलते वो नई नई खोज करने लगा। इस प्रयत्न में हो सकता है की कई हजार वर्ष बीत गए हों। तब जा कर कुछ विचारों को और उपलब्धियों को कोई ठोस आधार मिला हो। उदाहरण के लिए फल फूल और धरती से उगने वाले
खाद्द्य पदार्थों को ही ले सकते हैं। इन सबकी जानकारी और उपयोगिता
ने मानव जाति को बौद्धिक रूप से बहुत विकसित कर दिया। धीरे धीरे
भोग उपभोग की वस्तुओं की प्राप्ति और संचय ने सामाजिक व्यवस्था को अनेक श्रेणियों में बाँट दिया। जब मानव उपलब्धियां राग द्वेष का
कारण बनी तो कुछ नियमों को तय कर व्यवस्था को सुचारु रूप से
चलाने के प्रयत्न में “धर्म “की संस्थापना हुई। हर क्षेत्र की अपनी एक खोज थी ,उस खोज से मिलने वाले लाभ के द्वारा अमुक वास्तु की उपयोगिता का अपना एक स्थान भी निश्चित हुआ होगा। जब नियमों
ने धर्म का स्थान ग्रहण कर लिया तो मानव अपने लिए बनाये गए नियमों की रक्षा भी अपने आप करने लगा। हम सब इस बात पर विचार करें तो बहुत जल्दी बुद्धि के ‘विकास ‘और ‘ज्ञान ‘ की परिभाषा स्वयं ही समझ पाएंगे। विकास और व्यवस्था की गति में ‘ दंड ‘ के विधान को भी नकारा नहीं गया – कारण – सभी के लिए नियमानुसार कहें या
धर्मानुसार आचरण करना अनिवार्य है। इन सब के पीछे एक ही उद्देश्य था की ‘धर्म ‘ का पालन कर देश में ,समाज में और परिवार में लोग शांति बनाये रखें। पर हम ये देख भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं की ऐसे
प्रयत्न जल्दी ही बिखरने लगते हैं। एक कहावत है “अति हर चीज की
बुरी होती है ” .महाभारत अति की विलासिता का परिणाम था।
कौरव स्थापित धर्म का पालन ना कर,अहंकार में चूर अपनों पर ही अत्याचार करते रहते थे। अधीरता के कारण कौरवों के मन में द्वेष
उत्त्पन हुआ और पांडवों के मन में अनुराग इस लिए हमने देखा की अर्जुन को उसके धर्म की राह पर लाने के लिए श्री कृष्ण ने अपने मित्र को निश्छल और स्थिर बुद्धि से विचार करने को कहा।